सोमवार, 17 मई 2010

छत्तीसगढ़ की डायरी

विकास के रास्ते की ओर सरकार...
सरकार बस्तर के विकास को ले कर अब ज्यादा चिंतित नजर आ रही है। ये अच्छे संकेत हैं। राजधानी रायपुर से लेकर दिल्ली तक अब नेता बस्तर के बारे में सोच रहे हैं। सोनिया गाँधी ने भी स्वीकार किया कि नक्सलवाद के पीछे कारण यही है, कि वहाँ ठीक से विकास कार्य ही नहीं हुुआ। राज्य सरकार अब विकास की दिसा में तेजी के साथ बढ़ रही है। बस्तर के जारों शिक्षित नवयुवकों के लिए सौ दिन में  नौकरी देने का एक पैकेज भी ला रही है। मुख्यमंत्री योजना आयोग को 9760 करोड़ की एक कार्ययोजना भी सौंपने वाले हैं। काश,ये सब काम बहुत पहले शुरू हो गए होते लेकिन अभी भी बहुत देर नहीं हुई है। सरकार की इस पहल के बाद उम्मीद की जा सकती है, कि बस्तर के युवक नक्सलवाद की ओर नहीं, विकासवाद की ओर आकर्षित होंगे। जब उन्हें काम मिलेगा तो वह मुख्यधारा में शामिल होंगे, जंगल की ओर क्यों भागेंगे?
नक्सलियों को एक प्रेरक -संदेश
हफ्ते भर पहले की ही बात है। सरगुजा में घायल हुए एक नक्सली को एक जवान ने ही खून दे कर उसकी जान बचाई। यह घटना एक प्रेरक-संदेश है नक्सलियों के लिए, कि समाज अगर तुम्हारे खिलाफ खड़ा है तो उसका कुछ कारण है,लेकिन वह तुम्हारी जान का दुश्मन नहीं है। नक्सलियों को भी समझ लेना चाहिए कि वे जवान जो समाज की रक्षा के लिए तैनात हैं, नक्सलियों के शत्रु नहीं हैं। वे अपना फर्ज निभा रहे हैं। जिस जवान ने नक्सली को खून दिया वह मना भी कर सकता था, कि मैं क्यों दूँ खून। नक्सली हमारे जवान भाइयों की हत्याएँ कर रहे हैं। लेकिन जवान ने ऐसा नहीं किया। उसने सदाशयता दिखाई। यही सदाशयता हमें मनुष्यता की ओर ले जाती है। जवान ने इंसानियत दिखाई, अब नक्सली भी दिखाएँ और मुख्यधारा से जुड़कर। पता नहीं, वो दिन कब आएगा, अभी तो वे किसी का गला रेत रहे हैं, जन अदालत लगा कर किसी को फाँसी पर लटका रहे हैं और अपने क्रूर सामंती चरित्र का ही सबूत दे रहे हैं।
साम्प्रदायिक सद्भावना की बात
गाय हमारी आस्था का केंद्र-बिंदु है। किसी भी समाज की आस्था को ठेस पहुँचे तो कटुता बढ़ती है। गाय को काटने की बातें जब सामने आती हैं, तो हिंदुओं को दुख होता है। वैसे सच्चाई यह भी है कि बहुत-से धनलोभी हिंदू ही अपनी कमजोर-बीमार गायों को कसाइयों को सौंप देते हैं। बहुत-सी गायें कसाईखानों को भेज दी जाती है। खैर, ये अलग मसला है। हर मुसलमान गाय का दुश्मन है, ऐसी बात नहीं है। कुछ हो सकते हैं, लेकिन वे मुसलमानों के प्रतिनिधि नहीं है। आदर्श मुसलमानों के प्रतिनिधि हैं पैगंबेरइस्लाम के वंशज बाबा हाशमी जी जैसे संत, जो साम्प्रदायिक सदभावना की दिशा में काम कर रहे हैं। पिछले दिनों वे रायपुर पधारे और अपनी तकरीर करते हुए उन्होंने मुसलिम भाइयों को समझाया कि हमें दूसरों की पसंद का खाना खाना चाहिए अगर हिंदुओं को गो की हत्या पसंद नहीं है, तो वह कार्य नहीं करना चाहिए। बाबा हाशमी जैसे संतों के उद्बोधन के बाद लोगों की सोच में बदलाव आएगा ही। बाबाजी ने संस्कृत के श्लोक सुनाए, गीता का हवाला दिया और पूरे प्रवचन के माध्यम से मानवता के विकास की बात की और कहा कि मिलजुल कर रहने में ही जीवन का सार है। ऐसेे प्रवचनों से समाज में शांति-सद्भावना कायम हो सकती है।
पानी की चिंता
रहिमन पानी राखिये बिन पानी सब सून...चार सौ साल पहले रहीम कवि ने यह संदेश दिया था। अब हम इसे दुहरा रहे हैं और अपनी नादानी पर रो रहे हैं। पश्चाताप कर रहे हैं। विकास के तथाकथित ढाँचे ने हमारी नदियों को, तालाबों को,हरे-भरे पेड़ों को हमसे छीन लिया। अब हम हाय-हाय...पानी-पानी कर रहे हैं। सरकारी तंत्र के कारण, मूर्ख लोगों के कारण पर्यावरण का विनाश होता रहा। आज भी हो रहा है। गौरवपथ बना कर हमनें पेड़ों की निर्मम हत्याएँ कीं और खुश हुए कि देखो, सड़कें कैसी चौड़ी हो गई। लेकिन मूर्ख मन ने यह नहीं देखा कि हरी-भरी धरती का सत्यानाश कर दिया। अब जब तापमान की तपिश एसी को भी फेल करने लगी, हम घर के भीतर भी झुलसने लगे तो अपनी गलती समझ में आने लगी। खैर, अभी भी चेत जाना चाहिए। अब नेताश्रमदान कर के तालाबों को, नदियों को बचाने का उपक्रम कर रहे हैं। ये सब नाटक-नौटंकी न बने, हम गंभीरता के साथ हरियाली बचाएँ, पेड़ लगाएँ, तभी भविष्य के लिए पानी बचा सकेंगे। शहरों में, गाँवों में हरियाली को बचाने का उपक्रम हो, हमें शॉापिंग मॉल नहीं, हरे भरे मैदान और पेड़ चाहिए, यह अभियान चले तो हम ग्लोबल वार्मिंग के दैत्य से बच सकते हैं।
 विरोध का यह तरीका नहीं...
पिछले दिनों खरसिया के गाँव दर्रामुड़ा में जो कुछ हुआ, वह ठीक नहीं हुआ। प्रतिरोध का यह तरीका ठीक नहीं कि हम लोगों का मुँह काला करें, उनको उठक-बैठक लगाएँ, जूते की माला पहनाएँ। ये ठीक है कि गाँव की सहमति के बिना एक इंच जमीन भी कोई कंपनी नहीं ले सकती। गाँव के लोगों को इसके लिए तैयार रहना चाहिए। कंपनी के चालाक लोग धूर्तता का सहारा लेकर गाँवों में पावर प्लांट या अन्य कारखाने लगाने के लिए जमील हड़प लेते हैं। गाँव का सत्यानाश हो रहाहै। गाँव वालों के मन में आक्रोश स्वाभाविक है लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि हम कानून अपने हाथ में  ले लें। हम शांतिपूर्वक प्रतिवाद करें, हिंसा का सहारा न लें। लेकिन जो भी हुआ उससे एक बात तो साफ हो गई कि गाँव के लोग अपने गाँव से प्यार करते हैं। वे अपने गाँव को बचाना चाहते हैं। एक बार कोई कारखाना लग गया तो गाँव उजडऩे लगता है। उसकी हरियाली, उसकी नदी-तालाब तबाह होने लगते हैं। उद्योगपति भी समझ लें कि गाँववालों को विश्वास में लिए बगैर कोई काम करने का दुष्परिणाम क्या हो सकता है। हमें  विकास चाहिए, लेकिन विनाश की कीमत पर नहीं। आपसी सदभावना के साथ विकास हो, यही समय की मांग है।
फुटपाथी चमत्कारों से सावधान..
अकसर यह खबर सुनने को मिल जाती है कि किसी ने चमत्कार का झाँसा देकर किसी महिला को ठग लिया। ऐसी खबरें छपती भी हैं, लेकिन हमारे अंदर का बैठा डर, लालच हमें झाँसों में आने पर मजबूर कर देता है। पिछले दिनों राजधानी में तीन महिलाएँ ठगी का शिकार हो गईं। एक चमत्कारी बाबा ने महिलाओं को रोका और कहा कि आप जो जेवर पहनी हुई हैं वे आपको बर्बाद कर सकते हैं. इसे मंत्रोपचार के जरिए ठीक किया जा सकता है। तभी बाबा को चमत्कारी सिद्ध करने के लिए उन्हीं के सिखाए-पढ़ाए लोग आ गए और बाबा को प्रणाम करके उसका गुणगान करने लगे। महिलाएँ झाँसे में आ गईं और अपने गहने उतार कर दे दिए। बाबा ने गहनों को पोटली में रखा, मंत्र फूँकने का नाटक किया और पोटली वापस कर दी और चलते बने। राह चलते चमत्कार दिखाने वाले किसी भी बाबा को फटकार देना चाहिए। महिलाएं रुक जाती हैं और बाबा लोग कुछ ऐसा सम्मोहन करते हैं कि वे जाल में फँस जाती हंै और अपने जेवर और धन लुटा कर ही होश में आती है। लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी होती है। इसलिए सावधान रहने की जरूरत है।

सुनिए गिरीश पंकज को