शुक्रवार, 7 मई 2010

जब्बार ढाकवाला को याद करते हुए...

मौत ने हमसे एक सार्थक लेखक छीन लिया...
नहीं...नहीं....यह खबर सच न हो....लेकिन खबर सच है. दुखी का देने वाली है. व्यंग्यकार और कवि जब्बार ढाकवाला नहीं रहे. सात मई को ऋषिकेश के पास सड़क हादसे में उनका निधन हो गया. उनके साथ उनकी धर्मपत्नी तरन्नुम भी चल बसीं. जैसे ही यह खबर मित्र रविन्द्र सिंह ने दी, मै सन्न रह गया. मन नहीं माना तो भोपाल के अपने मित्र राजुलकर राज से बात की. थोड़ी देर बाद जयप्रकाश मानस का एसएमएस आ गया. सुधीर शर्मा ने भी फोन किया. दिल्ली से ललित मंडोरा ने भी फोन कर के दुःख का इज़हार किया. उनके निधन की सूचना जिस किसी को मिली, वह विचलित हो गया. सब एक दूसरे को सूचित कर रहे थे और हादसे की पुष्टि भी चाहते रहे. भाव यही था कि काश..यह खबर गलत हो..लेकिन ऐसा न हो सका. खबर पक्की थी कि ऋषिकेश के पास ढाकवाला जी कि कर ४-५०० फुट गहरी खाई में जा गिरी. वे छुट्टी मनाने उधर गए थे. उनके साथ साथ-साथ जीने-मरनेकी कसम खाने वाली उनकी धर्मपत्नी तरन्नुम जी भी थी. वे भी ढाकवाला जी के साथ स्वर्गवासी हो गयी. कब, कहाँ मौतरूपी जहरीला सांप हमें डस लें, कहा नहीं जा सकता. आखिर मौत पर किसका बस चलता है?
मुझे तो अब तक यकीन नहीं हो रहा है, कि ढाकवाला जी नहीं रहे. लेकिन मन को कितना बहलायेंगे. सच से मुह मोड़ना ठीक नहीं.  अपने इस  परम मित्र को याद करता हूँ, तो बीस साल पहले के दिनों में  जाना पड़ता  है. रायपुर के दुर्गा कालेज से पढ़ाई करने वाले ढाकवाला प्रशासनिक सेवा में चयनित हो कर डिप्टी कलेक्टर बने, फिर आईएएस के रूप में भी पदोन्नत हुए. कुछ मध्यप्रदेश के कुछ जिलों में कलेक्ट्री की. जब वे छात्र थे.  तभी से साहित्य में उनकी रूचि विकसित होने लगी थी. उस वक्त रायपुर के सक्रिय समाजवादी लेखक गणपत साव 'बिलासपुरी' जी के साथ रह कर उन्होंने सामाजिक सरोकारों का पाठ सीखा था और व्यंग्य तथा नयी कविता की दुनिया में प्रवेश किया.  प्रशासनिक व्यस्तताओं के बावजूद वे  लेखन-कर्म में आजीवनसक्रिय रहे. जब वे बस्तर में थे, तब उन्होंने वहा एक साहित्यिक कार्यक्रम किया था और  मुझे भी बुलाया था. मेरे प्रति उनके मन में बड़ा स्नेह था. जब वे छत्तीसगढ़ बनाने के बाद भोपाल चले गए तो भी रायपुर से उनका रिश्ता बना रहा. यहाँ उनका घर अब भी है. बड़े मन से उन्होंने यहाँ एक घर बनाया था. एक बार जब वे आये तो अपना घर दिखाने ले गए थे. वे जब भी रायपुर आतेथे तो कुछ मित्रों से ज़रूर मिलते थे. उनमे एक मैं भी होता था. हम लोग एक-दूसरे को अपनी रचनाये सुनाया करते रहे.
बस्तर के आदिवासियों पर केन्द्रित कविताओं का एक संग्रह ''उदास गीत नहीं हैं उनके पास'' जब छप कर आया तो इस पर एक बड़ी गोश्ह्ती भोपाल में हुई थे. इस गोष्ठी में आलेख पढ़ने के लिए उन्होंने मुझे बुलवाया था. इस संग्रह को ज़रूर पढ़ा जाना चाहिये. एक संवेदनशील कवि जनजातियों की संस्कृति को किस तरह हृदयंगम करता है, इस संग्रह की कविताओं से पता चलता है. कविता के साथ-साथ व्यंग्य में भी उनकी गहरी दिलचस्पी थी. ''बादलों का तबादलों से सम्बन्ध'' उनका महत्वपूर्ण संग्रह है. इसमे उनका एक व्यंग्य है  ''अफसरियत का अकाल''. इसमें उन्होंने अपनी ही बिरादरी यानी अफसरों की जम कर खिचाई की है. यह व्यंग्य वे अक्सर मंचों से भी सुनाया करते थे. यह उनका हिट व्यंग्य था. साहित्य में घुस पैठ करने  वाले शातिर अफसरों पर लिखे गए मेरे उपन्यास ''माफिया'' की उन्होंने तहेदिल से तारीफ़ की थी. जब बे मिले तो मुस्कराते हुए कहा था-पढ़ लिया भाई आपका उपन्यास..जो लिखा है, बिल्कुल सही लिखा है'' ऐसी  उदारता कितने लोगो के पास रह गयी है?
जब्बारभाई बहुआयामी रचनाकार  थे. नयी कविता और व्यंग्य दोनों ही विधाओं को वे साध चुके थे और ग़ज़ल को साधने की दिशा में तेज़ी के साथ बढ़ रहे थे. ग़ज़ल लेखन में भी उनकी गहरी रूचि थी. उन्होंने अनेक  श्रेष्ठ शेर कहे. कुछ अभी मुझे याद आ रहे है. इन्हें पढ़ कर ही सुधी पाठक समझ जायेंगे कि शेरोशाइरी में उनका मेयार क्या था. देखिये
गली से, गुलों से, नजारों से बातें
मै करने चला हूँ बहारों से बातें
खुदा मुझको परवाज़ दे मै करूंगा
ज़मी के सितम पर सितारों से बाते
जुबा कटते हो तो मगर याद रखना
मै करता रहूँगा इशारों से बातें
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मन में मेरे अदालत जिंदा है
क्या करुँ अन्दर छिपा परिंदा ज़िन्दा है..
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ज़िन्दगी के  हर लम्हे  का मज़ा लीजिये
यहाँ पर टेंशन की जेल में
उम्र कैद की  सजा लीजिये....
अभी अचानक ये पंक्तियाँ ज़ेहन में कौंध गयी. इन रचनाओं से ही हम समझ सकते है कि वे कितनी गहरे के साथ चिंतन करते थे. मुझको वे बहुत चाहते थे. इसका एक मात्र कारण यह थाई कि मैं भी उनकी तरह व्यंग्य लिखता हूँ और ग़ज़ले  कहता हूँ,  मेरे प्रति उनकी भावना क्या थी इसे समझाने के लिए एक उदहारण पर्याप्त है कि, जब मैंने सांप्रदायिक सद्भावना विषयक एक ग़ज़ल कही तो इसे उन्होंने नए वर्ष पर भेजे जाने वाले अपने ग्रीटिंग कार्ड पर छाप दिया था. मेरा नाम भी उन्होंने दिया था, जबकि ऐसी सदाशयता लोग दिखते ही नहीं. अपने ग्रीटिंग कार्ड पर किसी दूसरे अन्तरंग मित्र लेखक का शेर देना और उसका नाम भी, यह आजकल के एक दुर्लभ उदाहरण के रूप में दर्ज किया जाना चाहिए.  ऐसी सदाशयता जब्बार भाई ही दिखा सकते थे, क्योंकि वे अफसर भर नहीं थे, वे एक संवेदनशील लेखक भी थे. जो केवल अफसर होते है, वे अक्सर मनुष्यता से काफी नीचे गिर जाते है. साहित्य उन्हें मनुष्य बनाये रखता  है.  साम्प्रदायिकता के खिलाफ भी उन्होंने अनेक शेर कहे. उनका एक बहुचर्चित शेर है, कुछ शब्द भूल रहा हूँ. भाव कुछ इस तरह है, कि -
 नफ़रत फ़ैलाने वालों के साथ देश सारा नहीं है
नफ़रत इस देश की मुख्यधारा नहीं है.
जब्बार ढाकवाला अगर संवेदनशील मनुष्य की तरह लेखकों के बीच आते थे तो इसके पीछे उनके लेखकीय संस्कार ही थे.  अभी उनको बहुत कुछ लिखना था. वे इसकी तैयारी भी कर रहे थे. पिछले दिनों जब उनसे फोन पर बात हुई तो उन्होंने  बताया था कि वे एक नयी पुस्तक पर काम कर रहे है. उसका शीर्षक भी उन्होंने बताया था- ''ज़िंदगी के हर लम्हे का मज़ा लीजिये''  मुझे पता नहीं कि इस किताब  की अभी क्या स्थिति है लेकिन इतना तो कह सकता हूँ कि वे जब तक जीए, सृजन कर के  ज़िन्दगी का मज़ा लेते रहे. वे अब हमारे बीच नहीं है, लेकिन अपने रचनात्मक वैविध्य के साथ हमेशा बने रहेंगे. उनका अचानक चला  जाना हम लोगों को गहरी उदासी में डाल गया है.इनमे उनके मित्र है, लेखक बिरादरी है, प्रशासनिक सहयोगी भी होंगे. वे आज जीवित होते तो भी यही सब बातें मैं  कहता, या कही लिखना होता तो भी यही  बाते दुहराता,.क्योंकि वे ऐसे तथाकथित लेखक नहीं थे, जिनकी जीते जी तो आलोचना होती है, और उनके न रहने पर लोग तारीफों के पुल बाँध देते है. आज अगर मैं उन पर कुछ लिख रहा हूँ तो सिर्फ इसलिए कि वे अफसरियत का चोला उतार कर ही हम मित्रो के बीच आते थे. इसीलिए ही वे मुझे प्रिय थे क्योकि वे अंतिम साँस लेने तक भी मनुष्य बने रहे.
यह तो तय है कि बस्तर के आदिवासी भाईयों की ही तरह किसी भी किस्म के उदास गीत जब्बार ढाकवाला के पास नहीं थे, लेकिन उनका इंतकाल हमें गहरे उदास गीतों से भर गया है. अब केवल यादे है और इन्ही यादों और चंद रचनात्मक धरोहरों के सहारे हम सब को यह जीवन बिताना पड़ेगा.
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2 Comments:

बाल भवन जबलपुर said...

ज़ब्बार साहब के बारे में जितना कहा जाये कम है जी . आपने उनकी सारी सारभूत जीवनी दर्ज़ कर दी सच ऐसे ही थे वे अफ़सरियत का गुरूर उनको छू भी पाया था छूता भी कैसे वे अफ़सरियत के गुरूर से बहुत उंचे थे. यकीनन वे एक ज़बर्दस्त व्यक्तित्व के मालिक थे.न तो साहित्यकार के रूप में गाल बजाते फ़िरते न ही अफ़सर की रूप में अकारण गुर्राते थे ये खबर सभी को है. सच परमात्मा ने हमसे एक सार्थक लेखक छीन लिया...

शरद कोकास said...

भोपाल से मित्र सुरेश स्वप्निल का मेसेज आया जब्बार भाई नही रहे । मैने तुरंत फोन लगाया । खबर सच थी । लेकिन अब भी यकीन नही हो रहा है । दुर्ग मे एक कार्यक्रम मे वे आये थे मै अकेला ही उन्हे लेने स्टेशन गया था । वे जिस तरह गले मिले थे उनका वह गले मिलने का स्पर्श अभी भी ताज़ा है । और उनकी कवितायें .. क्या क्या कहूँ उनक बारे मे । काश यह दुखद हादसा नही होता । अभी रवि श्रीवास्तव का फोन आया कि आ ज उनका अंतिम संस्कार भी रायपुर मे हो गया । मुझे कल के बारे मे खबर थी । अफसोस उनके आखरी दीदार भी नही हो सके ।

सुनिए गिरीश पंकज को