मंगलवार, 28 दिसंबर 2010

छत्तीसगढ़ अब गो-क्रांति की दिशा में

http://epaper.naidunia.com/नई दुनिया, रायपुर के२९-१२-२०१० के अंक में मेरा लेख देखें. गो-क्रांति को अलग तरीके से समझने की कोशिश की है.

रविवार, 19 दिसंबर 2010

छत्तीसगढ़ की डायरी

मगरमच्छों को भी पकड़ो.....
महिला पटवारी को रिश्वत की सजा
पिछले दिनों भ्रष्टाचार विरोधी दस्ते ने एक महिला सरपंच को रिश्वतखोरी के आरोप में रंगे हाथों पकड़ा और जेल भेज दिया। जो रिश्वत लेता है, उसे सजा मिलनी ही चाहिए। मगर सवाल यही है कि बारह हजार रुपये रिश्वत लेनी वाली महिला सरपंच तो पकड़ में आ गई, वे लोग कब पकड़ में आएंगे,जो करोडों की रिश्वत लेते हैं और कभी पकड़े ही नहीं जाते। पिछले कुछ वर्षों में अनेक लोग पकड़े गये मगर वे शातिर लोग अपने-अपने प्रभावों का इस्तेमाल करके बेदाग निकल गए। करप्शन ब्यूरो को बधाई कि वह अच्छा काम कर रहा है। रिश्वतखोरों को सजा मिलनी ही चाहिए। मगर जनता को और अच्छा तब लगेगा,जब वह मछलियों के शिकार के साथ-साथ मगरमच्छों को भी पकड़े। छत्तीसगढ़ में भ्रष्टाचारी मगरमच्छ बढ़ते ही जा रहे हैं ।
कुछ की लालबत्ती जली तो कुछ की बुझी...
आखिर वही हुआ, जिसका अनुमान था। सरकार ने कुछ आयोगों, बोर्डों, निगम-मंडलों के अध्यक्षों की नियक्तियाँ कर दीं। इस बार कुछ पुराने लोगों का पत्ता साफ हो गया तो कुछ नये चेहरों को मौका मिला। पिछली बार कुछ लोगों के खिलाफ शिकायतें भी मिली थीं। इसलिए उन्हें दुबारा मौका नहीं मिला। तो कुछ लोगों को संगठन के काम के लिए उपयुुक्त समझा गया। इस बार पार्टी ने समझदारी से काम लिया। इसीलिए पूरी समर्पण के साथ पार्टी के लिए दिन-रात एक करने वाले कुछ नेताओं को मौका दिया गया। ये वे लोग हैं, जिनके बारे में हर बार यही कयास लगाये जाते थे, कि इन्हें राज्यमंत्री का दर्जा दिया जाएगा, लेकिन इनके चाहने वाले हर बार निराश होते थे, लेकिन इस बार पार्टा ने कोई चूक नहीं की। खरसिया, अंबिकापुर, धमतरी, बालोद, अभनपुर जैसे सुदूर इलाके में रहने वाले जुझारू लोगों को राज्यमंत्री का दर्जा दे दिया गया। इससे उनके समर्थकों में उत्साह बढ़ा है। इसका लाभ पार्टी को ही मिलेगा। और इधर जिन लोगों को लालबत्ती नहीं मिल सकी है, उनका भी कहीं न कहीं उपयोग किया ही जाएगा। वैसे अभी भी कुछ और नियुक्तियाँ शेष हैं। यानी पार्टी के लिए समर्पित कुछ और जुझारू लोगों को प्रतिसाद मिलने वाला है। किसको क्या मिलेगा, यह तो भविष्य के गर्भ में है लेकिन अभी जिस तरह से कुछ लोगों को लालबत्ती का तोहफा दिया गया है, उसे देख कर लोगों का अनुमान है, कि दूसरे चरण में भी सुपात्रों का चयन होगा।
नक्सली के आत्मसमर्पण का अर्थ
पिछले दिनों बस्तर के एक नक्सली सोनसाय रावड़े ने पुलिस के सामने आत्मसमर्पण कर दिया। यह समर्पण इस बात को दर्शाता है,कि अब नक्सलियों के बीच में काम करने वाले संवेदनशील लोगों की मानसिकता में बदलाव आने लगा है। आना ही चाहिए। पिछले कुछ महीने से बस्तर के लोग नक्सलियों की हिंसक गतिविधियों के विरुद्ध सड़कों पर उतर कर प्रदर्शन करते रहे हैं। हिंसा किसी भी समस्या का समाधान नहीं है। समर्पण करने वाले सोनसाय ने भी यही माना है। अब वह चाहता है कि वह युवकों को सही दिशा दे और कोशिश करेगा कि वे राष्ट्र की मुख्यधारा से जुड़े न कि नक्सलियों के भरमाने में आएँ। प्रशासन ने सोनसाय के प्रति पूरी सहानुभूति दिखाई है। उसके पुनर्वास के लिए जितनी भी कोशिश हो सके, होनी चाहिए और यह भी ध्यान में रखा जाना चाहिए, कि उसे पूरी तरह संरक्षण मिले। समर्पण के बाद जाहिर है नक्सली सोनसाय के शत्रु हो जाएंगे। यह सब जानते हुए भी सोनसाय ने खतरा उठाया है, इसलिए वह नि:संदेह बधाई का पात्र है।
आदिवासियों को आरक्षण
भाजपा सरकार इस वक्त फूँक-फूँक कर कदम रख रही है। जनता का दिल जीतने के अनेक उपायों में एक नया उपक्रम है आदिवासियों को तेईस प्रतिशत आरक्षण। आदिवासियों को बेहतर सुविधाएँ, अनुकूल अवसर देने का यही समय है। ऐसे वक्त में जबकि नक्सली आदिवासियों के हित के नाम पर उनका और दूसरे लोगों का लहू बहाने का काम कर रहे हैं, सरकार ने आदिवासियों को यह बता दिया है, कि यह सरकार उनकी चिंता करती है। आदिवासियों को उनकी जनसंख्या के अनुपात में आरक्षण देने की व्यवस्था से समाज के लोग भी खुश हैं। अब समय आ गया है, कि आदिवासी समाज को समाज की सक्रियधारा से जोड़ा जाए। उनकी शिक्षा,स्वास्थ्य, पेयजल जैसे बुनियादी मुद्दों के साथ उन्हें रोजगार के भी सम्मानजनक अवसर मिलेंगे, तभी उनका समग्र विकास होगा।
विकलांगों के बारे में सोचने की जरूरत
समाज में सकलांगों के बारे में सोचा ही जाता है। उनके लिए अनेक योजनाएं भी बनती है। लेकिन समाज में ऐसी संस्थाएँ इक्का-दुक्का ही हैं, जो विकलांगों के बारे में गंभीरतापूर्वक सोचती हैं। छत्तीसगढ़ की इकलौती संस्था अखिल भारतीय विकलांग चेतना परिषद इस दिशा में गंभीरता के साथ काम कर रही है। पिछले दिनों संस्था ने साहित्यकारों को विकलांगों के बारे में लिखने के लिए प्रेरित किया था। अब वे हर साल की तरह विकलांग युवक-युवतियों की शादी की तैयारी कर रहे हैं।26 दिसंबर को रायपुर में परिचय सम्मेलन रखा गया है। 13 फरवरी 2011 को सामूहिक विवाह का आयोजन किया जाएगा । सबसे अच्छी बात यह है, कि इस आयोजन में समाज के हर वर्ग के लोग सहयोग करते हैं। मारवाड़ी युवा मंच और ब्राह्मण समाज की कुछ ज्यादा उत्साह के साथ भागीदारी निभाता है। सरकार विवाहित जोड़ों को आर्थिक मदद करती है। समाज और सरकार साथ-साथ चले तो बहुत-सी समस्याएँ हल होती रहेगी।

गुरुवार, 2 दिसंबर 2010

अफसरों पर लगाम: एक सार्थक काम

लोकप्रिय समाचारपत्र नईदुनिया, रायपुर में आजके अंक मे प्रकाशित लेख. अखबार वेब पर भी उपलब्ध है.

शनिवार, 27 नवंबर 2010

छत्तीसगढ़ की डायरी

छत्तीसगढ़ की पुलिस को 
          मनुष्य बनाया जाए....
छत्तीसगढ़ की पुलिस पर एक आम आरोप यह लगाया जाता रहा है, कि वह फर्जी मुठभेड़ करती है और लोगों को किसी न किसी मामले में फँसाकर जेल भेजती रहती है। पुलिस ऐसे लोगों पर अंकुश लगाने की कोशिश करती है, जो अक्सर प्रतिरोध करते हैं। अन्याय के खिलाफ आवाज बुलंद करते हैं। जिंदा कौमों को प्रतिकार करना ही चाहिए। प्रतिकार लोकतंत्र की ताकत है लेकिन अंगरेजों के समय की पुलिस आजाद देश में भी दमनकारी मानसिकता में है। बस्तर में पुलिस ऐसी ही हरकतें कर रही है। पिछले दिनों सीपीआइ ने जगदलपुर में जोरदार रैली निकाली। इसमें हजारों लोग शामिल हुए। इनमें आदिवासियों की संख्या भी कम नहीं थी। यह रैली अन्याय के खिलाफ थी। फिर चाहे अन्याय नक्सली करें, चाहे पुलिसवाले। पिछले दिनों पुलिस एक ग्रामीण को उठा कर ले गई, उसका आज तक पता नहीं। गाँववाले पूछने गए तो उन्हीं को धमकाया जाने लगा। यानी अत्याचार भी करो और दादागीरी भी? इन्हीं सब कारणों से पुलिस के प्रति समाज में घृणा की बावना भरती जा रही है। पुलिस को मनुष्य बनाने की कवायद आखिर कब शुरू होगी?
अपहरण का कारोबार
पूरे छत्तीसगढ़ के परिदृश्य को देखें तो लगता है, हर कहीं अपराध बढ़ता जा रहा है। जब छत्तीसगढिय़ा दुखी हो कर कहने पर मजबूर होता है, कि पुलिस बैठे-बैठे केवल रोटियाँ तोड़ रही है। राजधानी रायपुर से लेकर अंबिकापुर तक फैला है अपहरण का कारोबार। अपहरण और लापता होने की वारदातें बढ़ रही हैं. पिछले दिनों राजधानी में दो छात्र लापता हुए थे, वे आज तक लापता ही हैं। पता नहीं चल रहा कि कहाँ चले गए? अभी हाल ही में फिर दो स्कूली छात्राएँ लापता हो गई हैं। एक लापता किशोर की तो बाद में केवल लाश ही मिली।  पुलिस ने गुमशुदा दस्ता बनाया था। अब तो लगता है,उसे ही खोजने की बारी है कि वह कहाँ है? वैसे लोगों का कहना यही है, कि दस्ता सक्रिय भी हो जाएगा, तो क्या गारंटी है, कि वह सफल होगा। गृहमंत्री के दस्ते का हश्र सब देख रहे हैं। रायपुर में वाहनों में आगजनी और तोड़-फोड़ की वारदातें बढ़ती ही जा रही है। लोग हैरत में हैऔर एक-दूसरे से पूछते हैं, कि आखिर इस पुलिसतंत्र का सामाजिक औचित्य क्या है?
न्यायिक जाँच में दिक्कत क्या?
अंबिकापुर के छात्र ऋतिक का अपहरण हुआ और बाद में उसकी हत्या कर दी गई। इस मुद्दे पर सरगुजा भी बंद रहा। पूरा छत्तीसगढ़ उद्वेलित रहा। स्वाभाविक है,कि काँग्रेस के लिए यह एक अवसर था सरकार की खिंचाई का। काँग्रेस की माँग गलत नहीं है, कि हत्याकांड की न्यायिक जाँच होनी चाहिए। इसमें दिक्कत क्या है। जनभावनाओं का सम्मान होना ही चाहिए। लोगों को दु:ख तब होता है, और गुस्सा भी आता है, जब जनप्रतिनिधि- मंत्री महोदय पुलिस का पक्ष लेते हैं और कहते हैं हत्याकांड के लिए समाज जिम्मेदार है। कई बार लोगों को भी यही लगता है, कि समाज ऐसे लोगों को अपना प्रतिनिधि चुनने का जिम्मेदार है जो जनता के साथ नहीं, पुलिस के साथ खड़े नजर आते हैं : उस पुलिस के साथ जिसका चरित्र क्या है, क्या रहा है, वह सबके सामने है।
कितने करोड़पति अफसर है यहाँ...?
वैसे अब किसी का करोड़पति होना चौंकाने वाली बात नहीं हो सकती क्योंकि किसी का पुराना बड़ा मकान भी अब एकाध करोड़ की कीमत तक पहुँच जाता है, लेकिन छत्तीसगढ़ के अनेक अफसरों के पास से जब मकान-दूकान और नकदी निकलते हैं, तब खबर बनती है, चर्चाएँ होती है। फिर चाहे अफसर रायपुर को हो, बिलासपुर का हो या और कहीं का। पिछले दिनों रायपुर नगरनिगम के एक अधिकारी के पास से करोड़ों की संपत्ति मिली और अब बिलासपुर नगरनिगम का इंजीनियर सपड़ में आया। आखिर ये लोग इतने श्रमवीर कहाँ से हो जाते हैं, कि रातों रात मालामाल हो गए? जाहिर है यह पाप की, हराम की कमाई है। जो सीधे-सीधे लूट के कारण अर्जित की गई ? ऐसे लोगों की संपत्ति हर हाल में राजसात होनी चाहिए। और दोषी लोगों को कड़ा दंड भी मिलना चाहिए। ताकि दूसरे सबक लें। हमारे यहाँ अकसर छापे पड़ते हैं बाद में सब चमत्कारिक रूप से  निर्दोष निकलते हैं। 
अफसरों पर लगाम की फिर कवायद
छत्तीसगढ़ में अफसरी का धंधा मंदा ही नहीं होता। अफसरों का स्वर्ग है यह राज्य। यहाँ अफसर लूटखसोटबी करतेहैं, अन्याय भी करते हैं और नायक बने घूमते हैं। क्योंकि बहुत-से लोग हीनबाव सेग्रस्त रहते हैं। वे अफसरों को कार्यक्रमों में बुलाते हैं, उनका सम्मान करते हैं। अपने स्वार्थ के लिए उन लोगों की प्रतिष्ठा की जाती है, जो किसी लायक नहीं है। जैसे किसी पुलिसवाले का सम्मान इसलिए कर दिया जाता है, कि उसने चोर या हत्यारे को पकड़ लिया। यह तो पुलिस का काम है, इसीलिए तो उसे नौकरी दी गई है। लेकिन नहीं, सबंध गाँठने के लिए उसे सम्मानति किया जाता है। जिसे जिस काम के लिए रखा गया है, उसे उसके काम के एवज में सम्मानति किया जाना अजीब लगता है,लेकिन यह हो रहा है। अब सरकार ने एक पुराने सिविलसेवा (आचरण) अधिनियम 1965 को फिर से लागू करके साफ-साफ निर्देश दिए हंै कि कोई भी अफसर उद्घाटन-शिलान्यास नहीं करेगा। किसी कार्यक्रम में अतिथि नहीं बनेगा। वैसे तीसरी बार यह अधिनियम लागू किया गया है, लेकिन कुछ बेशरम अफसर इसका पालन नहीं करते और आए दिन मंचों पर स्थापित नजर आते रहते हैं।
शिक्षामंत्री के महत्वपूर्ण सुझाव
शिक्षा में भारतीय संस्कृति और राष्ट्रीय एवं मानवीय मूल्यों को बढ़ाने वाले पाठ्यक्रम शामिल किए जाने चाहिए। महापुरुषों के पाठ पढ़ाए जाने चाहिए। प्रदेश के शिक्षा मंत्री बृजमोहन अग्रवाल ने पिछले दिनों दिल्ली में इस आशय के सुझाव दिए। एनसीइआरटी की बैठक में श्री अग्रवाल ने अपने सुझाव रखे। इस बात से कोई इंकार नहीं कर सकता, कि वर्तमान दौर में हम अपनी संस्कृति से दूर होते जा रहे हैं। राष्ट्रीय मूल्य तो जैसे हाशिये पर ही फिंका गए हैं। मानवीय मूल्य भी बेमानी होते जा रहे हैं। स्कूलों में खेलकूद-बागवानी और सांस्कृतिक गतिविधियाँ कम होती जा रही हैं। आज पूरा ध्यान बच्चे के व्यावसायिक कैरियर पर ही केंद्रित है। उसे बेहतर मानव बनाने की बुनियादी चिंता कहीं नजर नहीं आती। बच्चे को अपने पैरों पर खड़ा होना है, उसे अच्छी नौकरी हासिल करनी है। अच्छा व्यवसाय करने लायक बनना है। मगर उसे अच्छा इंसान भी बनना है। इसका पाठ भी पढ़ाया जाना चाहिए।

शनिवार, 30 अक्तूबर 2010

छत्तीसगढ़ की डायरी

राज्यपाल से भी बड़ा हो गया सलमान...? 
हे भगवान्.......
बॉलीवुड के कुख्यातकिस्म के विख्यात अभिनेता सलमान खान को राज्योत्सव में बुलाने की तो खूब आलोचनाएँ होती रहीं, मगर उसके आने के बाद जो कुछ हुआ, वह तो नहले पे दहले जैसी बात हो गई। राज्योत्सव के उद्घाटन के बाद मंच पर सलमान खान को बुलाया गया। दुखद पहलू यह रहा, कि राज्यपाल और मुख्यमंत्री और अन्य जनप्रतिनिधियों को मंच पर बुला कर सलमान का स्वागत करवाया गया। सबने यह दृश्य देखा और चकित रह गए। राज्यपाल एक हीरो का स्वागत करने पर मंच पर जाए, यह राज्यपाल के पद की गरिमा के खिलाफ है। और वो भी ऐसे हीरो का स्वागत करे, जिसका आपराधिक रिकार्ड रहा हो। लोगों ने इसे  सांस्कृतिक भूल कहा, जो हो गई है। लेकिन यह एक सबक है। दस मिनट मंच पर रहा सलमान और व्यवस्था चरमरा गई। युवा दर्शक बेचारे जिस उत्साह के साथ आए थे, उन्हें निराशा हाथ लगी। सलमान ने कोई कार्यक्रम ही पेश नहीं किया। संस्कृति विभाग के निमंत्रण पत्र में उसका ऐसा गुनगान किया गया, कि मत पूछिए। सलमान की चार तस्वीरें कुछ इस अंदाज में छपी हैं गोया वो आकर कोई धमाल करने वाला है। सलमान की तस्वीरें  छापने से संस्कृति विभाग का पुलिसियापन ही जाहिर हुआ है। खैर, जो होना था, सो हो गया: भविष्य में इस विभाग की गरिमा का ख्याल रखा जाना चाहिए।
कमीशनखोरी से दुखी भाजपाई
भाजपा की सरकार है मगर भाजपा के कार्यकर्ता शासन-प्रशासन में व्याप्त कमीशनखोरी से दुखी हैं। पिछले दिनों राजधानी में भाजयुमो का सम्मेलन सम्पन्न हुआ। इसमें राष्ट्रीय अध्यक्ष अनुराग ठाकुर पधारे। सम्मेलन में मुख्यनमंत्री डॉ. रमन सिंह भी थे। यहाँ अनेक कार्यकर्ताओं ने अपनी पीड़ा सामने रखी और यह आरोप लगाया कि जनप्रतिनिधि विकास के लिए दिए जाने वाले पैसों में कमीशनखोरी करते हैं। राज्य में बढ़ रही शराबखोरी पर भी चर्चा हुई। अनुराग ठाकुर ने कहा, ऐसे गलत लोगों को बेनकाब करना चाहिए। सबको यह संकल्प करना चाहिए कि वे चुनाव ने शराब बाँटेंगे और न पीएंगे। मुख्यमंत्री इस प्रवृत्ति की निंदा करते हुए दो टूक कहा,कि ठेकेदारी करने वाले नेताओं को जनता रिजेक्ट कर देती है। सम्मेलन के माध्यम से वैचारिक मंथन हुआ। अब वे नेता सावधान हो जाएँगे जो कमीशनखोरी में लिप्त रहते हैं। और जिनकी तरफ इशारा किया जा रहा था।
दस्ता बना सिरदर्द...
हमारे गृहमंत्री ईमानदार हैं। कुछ करना चाहते हैं। मगर उनके दाएँ-बाएँ रहने वाले लोग उनकी छवि धूमिल करने के पीछे पड़ गए हैं। उन्होंने शराबखारी, जुआ-सट्टा आदि सामाजिक बुराइयों से निपटने के लिए एक दस्ता बना दिया, लेकिन अब यह दस्ता सिरदर्द साबित हो रहा है। इस दस्ते पर मारपीट-गुंडागर्दी, वसूली आदि के गंभीर आरोप लग रहे हैं। खरोरा में इस दस्ते ने जो गुंडागर्दी की, उसके खिलाफ तो भाजपा के ही जुझारू विधायक देवजी पटेल ने मोर्चा खोल दिया था। अब सांसद चंदूलाल साहू भी सामने आ गए हैं। इसके अलावा भी कुछ भाजपाई सामने आ कर दस्ते की हरकतों का विरोध कर रहे हैं। बेहतर तो यही होगा, कि गृहमंत्री वर्तमान दस्ते को भंग करे और साफ-सुथरी छवि वाले लोगों को जोड़ कर फिर नया दस्ता बनाए।
करोड़ों की कमाईवाला वन अधिकारी
जब लोग कहते हैं कि जंगल कट रहे हैं, वहाँ निर्माण कार्य में घपले होते हैं, तो लोग गलत नहीं कहते। मनेंद्रगढ़ में भारतीय वन सेवा के अधिकारी रजक के खिलाफ करोड़ों के घोटाले के आरोप लगे। उसकी जाँच भी हुई। अधिकारी अपनी सफाई में कुछ ठीक-ठाक नहीं कह पाए, इसलिए सरकार ने उन्हें निलंबित कर दिया है। ऐसे अनेक अधिकारी है, जिनके कारण छत्तीसगढ़ की वन संपदा नष्ट हो रही है। पिछले कुछ दिनों से अनेक भ्रष्ट अधिकारी सरकार के निशाने पर आ रहे हैं। अगर यही रफ्तार रही तो उम्मीद की जा सकती है, कि भ्रष्टाचार पर रोक लगेगी। बशर्ते अधिकारी सुधर जाएँ।
घूसखोरी के खिलाफ हेल्पलाइन...
एक दशक हो गए अपने राज्य को बने, लेकिन विकास के साथ-साथ भ्रष्टाचार भी लगातार फलता-फूलता रहा है। विकास एक कदम चलता है और भ्रष्टाचार दस कदम आगे बढ़ जाता है। कई अफसर लाल हो गए हैं। इनसे कैसे निपटा जाए, यह बड़ी समस्या है। लेकिन इस दिशा में अब पहल हो रही है। लड़कियों से छेडख़ानी को रोकने के लिए सरकार ने एक हेल्पलाइन शुरू की है। कुछ टेलीफोन नंबर दिए हैं, जिस पर लड़कियाँ फोन करती हैं और दोषी को पकड़ा जाता है। अब रिश्वतखोरी को पकड़ाने के लिए भी हेल्पलाइन शुरू कर दी गई है। लोगों को इसका उपयोग करना चाहिए और जो रिश्वतखोर हैं, भ्रष्ट हैं, उनकी जानकारी इन नंबरों पर देनी ही चाहिए। आप भी नोट कर लें ये नंबर- 800, 110180 और 01124651000। हो सकता है, कभी काम ही आएं।
बच के रहें नकली मिठाइयों से...
अगले हफ्ते दीपावली है। इस अवसर पर आप मिठाइयाँ खरीदेंगे। लोगबाग आप को खिलाएँगे भी, मगर सावधान रहने की जरूरत है। पैसे कमाने की धुन में अनैतिक हो चुके कुछ लोग त्योहारों के मौकों पर नकली खोवा बनाते हैं। इसकी बनी मिठाइयाँ खाकर आदमी की जान भी जा सकती है। जहरीली चीजें धीरे-धीरे असर दिखाती हैं। मगर मौत के सौदागरों को इससे कोई मतलब नहीं। वे तो यह मान कर चलते हैं, कि ईश्वर के सामने हाथ जोड़ेंगे और पाप खत्म हो जाएँगे। ऐसे पापी पूरे छत्तीसगढ़ में छाए हुए हैं। वे राजधानी में भी हैं, रायगढ़ में भी हैं, अंबिकापुर में भी है तो बस्तर में भी। कहीं भी मिल जाएँगे मिलावटखोर। सावधान तो हमें रहना है। बेहतर हो कि घर पर मिठाइयाँ बनाएँ। खुद भी खाएँ और पड़ोसियों को भी खिलाएँ।
अरुंधति का पुतला फूँका
अरुंधति राय एक लेखिका है। अब वह सामाजिक कार्यकर्ता है। लेकिन वह कुछ ज्यादा ही उत्साह में आ जाती है। नक्सलियों का खुलेआम समर्थन करती ही है। अब वह इसलिए चर्चा में है कि उसने पिछले दिनों कह दिया, कि कश्मीर भारत का अंग नहीं है। अब यह बयान देशद्रोह से कम नहीं है। लेकिन अरुंधति काकुछ नहीं हुआ। हमारे देश में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का भयंकर दुरुपयोग होता है। होता रहा है। कायदे से अरुंधति पर देशद्रोह का मुकदमा चलना चाहिए, मगर नहीं चला। लेकिन इस देश में लोग अभी मुर्दा नहीं हुए हैं। राजधानी में भी लोग जिंदा हैं। इसलिए अभाविप ने अरुंधति राय का पुतला दहन कर अपना आक्रोश व्यक्त किया। कहीं तो कोई प्रतिक्रिया हुई,यह बड़ी बात है। 

बुधवार, 27 अक्तूबर 2010

छत्तीसगढ़ की डायरी

हद है....सलमान के स्वागत में सरकार...?
 

छत्तीसगढ़  में २६ अक्टूबर से राज्योत्सव शुरू हो गया है. १ नवम्बर २००० को नया राज्य बना था. यह दसवां वर्ष है. उत्सव १ नवम्बर तक चलेगा. लेकिन कल उद्घाटन के ठीक बाद मंच पर जो नज़ारा दिखा, उसे देख कर उन लोगो को गहरी निराशा हुई, जो चीज़ों को, जीवन को गंभीरता से लेते है. बालीवुड के एक नायक सलमान खान का जिस तरह मंच पर पहुँच  कर राज्यपाल, मुख्यमंत्री समेत अन्य मंत्रियों और अफसरों ने सोत्साह स्वागत किया, उसे देख कम से कम मेरे जैसे नागरिक की आँखे तो शर्म से झुक ही गई. औरों की भी झुकी होंगी, क्योंकि सलमान का ऐसा कद नहीं है, कि उसके स्वागत के लिये राज्यपाल और मुख्मंत्री मंच पर जाये. ये हो सकता है, कि सलमान खान राजपाल और मुख्यमंत्री का स्वागत करता. मगर यहाँ तो उल्टी गंगा बह रही थी. सलमान खान भी अपनी किस्मत को सराह रहा होगा  कि अच्छा राज्य मिला, जो उसे इतनामहत्व दे रहा है.
आखिर सलमान खान का अवदान क्या है? चंद औसत दर्जे की फिल्में..? क्यों उसे इतना महत्त्व दिया गया? इसलिए कि वह उसकी देहयष्टि आकर्षक है? इसलिए कि वह काले हिरनों का शिकार कराने में माहिर है, या फिर इसलिए कि वह गाडी चलता है और लोगों को कुचल देता है? किस कारण एक सरकार सलमान कहाँ का स्वागत कराने उमड़ पडी? इसका कारण खोजा जाना चाहिए. बहुत पुरानी बात नहीं है, जब सलमान को काले हिरन के अविध शिकार के लिये गिरफ्तार कर के जेल मे ठूंसा  गया था. नशे की हालत में कार चला कर लोगों को कुचलने का आरोपी भी यही (खल) नायक है. अनेक किस्से है, इस हीरो के. किसी से मारपीट करना, हीरोइनों के साथ 'स्कैंडल' गाली -गलौज  करना आदि-आदि  ऐसे व्यक्ति का  राज्योत्सव के मंच पर महानायक बता कर स्वागत करना यह बताता है कि राज्य मे ऐसे कुछ सलाहकार है, जो सांसकृतिक शून्यता के शिकार हो चुके है. ठीक है, कि सलमान को एक निजी कंपनी ने बुलाया था. मगर राज्यपाल और मुख्यमंत्री द्वारा उसका पुष्पगुच्छ से स्वागत करना, किसी भी कोण से सही नहीं ठहराया जा सकता. नई पीढ़ी के युवकों मे किसी हीरो को देखने की दीवानगी स्वाभाविक है, मगर एक सरकार किसी हीरो का स्वागत कराने मंच पर चली आये, यह पहली बार देखा गया. कलाकार का सम्मान होनाचाहिए, मगर उसकी सामाजिक छवि भी तो हो. जो व्यक्ति गंभीर अपराध के मामले में सजायाफ्ता हो, उसके स्वागत मे काम से काम सरकार को तो उतरना ही नहीं चाहिए था. मगर ऐसा हुआ, यह देख कर अनेक लोगों को धक्का लगा. राजपाल और मुख्यमंत्री से यह चूक कैसे हो गई, यह  लोगों की समझ से परे है. बहुत संभव है, उन्हें सलमान खान के अतीत की जानकारी न रही हो. यह काम सलाहकारों का है. पता नहीं उनको सलाह देने वाले लोग कैसे है. बहुत संभव है, कि उन लोगों को भी यह पता न रहा हो, कि सलमान खान गंभीर अपराध के सिलसिले में जेल कि हवा खा चुका है.
लोग पुरानी घटनाओं को जल्दी भूल जाते है.  दरअसल  रजत-परदे की चमक ही ऐसी है,कि इसमें दिखाने वाला खलनायक भी नायक लगता है. सलमान की  नई फिल्म ''दबंग'' आई है. जिसमें उसने  भ्रष्ट पुलिस अधिकारी का किरदार  निभाया है. फिल्म  'मुन्नी ' बदनाम हुई...'' जैसे गाने के कारण खूब चली. इस फिल्म कि लोकप्रियता ने सलमान को ज्यादा लोकप्रिय बना दिया. इस देश का दर्शक भी अब खलनायक को ही नायक समझाने की भूल कर रहा है. जो भी  हो, मै तो सलमान को खुशकिस्मत मानता हूँ, कि महानायक की तरह उसका छत्तीसगढ़ में पूरी सरकार ने स्वागत किया. इस छत्तीसगढ़ में इन दिनों वैसे भी पुलिस वाले दबंगई दिखा रहे है. लोग ठीक कह रहे है, कि अगर बालीवुड़ के ही किसी नायक को बुलाना था, तो ऐसे किसी कलाकार को बुलाते, जिसकी सामाजिक छवि भी ठीकठाक हो. कई नाम हो सकते है. मगर अब किसी ने सलमान की तगड़ी ''मार्केटिंग'' कर ही दी तो दूसरा नाम सामने कैसे आ सकता था. मगर सलमान का स्वागत करके सरकार की  छवि धूमिल ही हुई है, इसमें दो राय नहीं हो सकती. लोग इस घटना को चमत्कार की  तरह ले रहे है,कि एक सरकार एक विवादस्पद फ़िल्मी नायक के स्वागत मे उपस्थित हो गई.

शनिवार, 9 अक्तूबर 2010

छत्तीसगढ़ की डायरी

बस्तर : उम्मीद कायम है..
नक्सलवाद के विरुद्ध बस्तर में जिस तरह लोग लामबंद होते रहे हैं, उसे देख कर यह विश्वास दृढ़ होता है, कि अन्याय के विरुद्ध जीवत प्रतिकार का सिलसिला जारी है। सलवाजुडूम भले ही अब बंद हो गया हो मगर शांति के लिए लोग फिर भी एक जुट हो रहे हैं। पिछले दिनों बस्तर में बीजापुर और जगदलपुर में शांति के लिए सैकड़ों लोग जमा हुए और यह संकल्प दुहाराया कि जब तक बस्तर में शांति बहाल नहीं हो जाती, लोग हिंसा के विरुद्ध खड़े होते रहेंगे। गाँधी जयंती के दिन लोगों के मन में बड़ा उत्साह था। डर यही है कि यह उत्साह समय के साथ ठंडा न पड़ जाए। नक्सलियों के विरुद्ध पुलिस और दूसरे जवान अपने तरह से लड़ रहे हैं। लेकिन जनता कोभी साथ देना है।  उन्हें घबराना ही नहीं है। जगदलपुर में एक संस्था बनी है बस्तर शांति एवं विकास संघर्ष परिषद। इस संस्था के गठन के दिन मुख्य वक्ता के रूप में मैं शामिल हुआ था। वहाँ जमा सैकड़ों लोगों के उत्साह को देख कर लगा कि अभी भी उम्मीद कायम है। और रहनी चाहिए।
जोगी का आशावाद
पूर्व मुख्यमंत्री अजीत जोगी को मानना पड़ेगा। एक मायने में वे सबके प्रेरणास्रोत है। शारीरिक दुर्घटना केकारण और कोई होता तो वह हताश हो गया होता । मगर जोगीजी उत्साह सेबरे रहते हैं। और आए दिन सरकार के नाक में दम किए रहते हैं। लोग घबराए रहते हैं, कि पता नहीं, कब क्या हो जाए। अभी पिछले दिनों जोगी जी ने कह दिया कि भाजपा के बारह विधायक उनके संपर्क में हैं। ये विधायक बेहद नाराज हैं क्योंकि इनकी उपेक्षा हो रही है। जोगी जी का संकेत यही है कि सरकार उनकी मुट्ठी में है। जब चाहे निपटा सकते हैं। जोगीजी के इस बयान से लोग सकते में हैं। जोगी जी यह भी कह रहे हैं कि वे बहुत कुछ कर सकते हैं, मगर जब तक हाइकमान तैयार नहीं होगा, वे कुछ नहीं करेंगे। और यह तय है कि हाईकमान ऐसा कुछ नहीं चाहेगा, कि सरकार गिरे। मतलब केवल हवाहवाई बात है। फिर भी जोगी जी के इस बयान से भाजपा में सुरसुरी तो जरूर छूटी होगी और यह भी देखा जा रहा होगा, कि वे बारह विधायक हैं कौन। हैं भी या नहीं?
राहुल का बचकाना बयान
राहुल गाँधी अब बच्चे नहीं रहे। वे सांसद भी बन गए हैं। इसलिए संभल कर बोलना चाहिए। वे पिछले दिनों कह गए किस संघ और सिमी एक जैसे हैं। कहाँ राष्ट्रविरोधी संस्था सिमी और कहाँ राष्ट्रवाद के लिए जीने-मरने वाली संस्था संघ। संघ कट्टर हो सकता है, लेकिन वह सिमी जैसा आतंकवादी नहीं है। राहुल को किसी ने गलत फीड कर दिया होगा। बेचारे ने कह दिया। स्वाभाविक है कि उनका पुतला जला। राजधानी ही नहीं अनके जगह। बिना सोच-समझे बोलने के कारण ही हमारे यहाँ विवाद पैदा होते हैं। राहुल का बयान कुछ ऐसा ही है जैसे कोई हत्यारे और पंडित को एक ही श्रेणी में रख दे।
प्रतीकों में भी हो सकती है बलि
कुछेक धर्मस्थलों में पशुबलि दी जाती है। पूरा प्रांगण लहूलहान न•ार आने लगता है। जो लोग बलि के पक्ष में होते हैं, उन्हें बुरा नहीं लगता मगर बहुत से ऐसे लोग भी होते हैं,जो खून देख कर ही घबरा जाते हैं। हमारा समाज हिंसा विरोधी रहा है। लेकिन धार्मिक परंपरा के नाम पर हिंसा के मामले में मौन हो जाता है। जबकि लोगों को इसका विरोध करना ही चाहिए। सभ्य समाज में हिंसा के लिए कोई जगह नहीं है। अगर किसी की धार्मिक मान्यता है तो उसका रूप बदला जा सकता है। प्रतीकों में बलि ली जा सकती है। नारियल को भी लो प्रतीक बनाते रहे हैं। ईश्वर कभी भी बलि से प्रसन्न नहीं हो सकता। वह त्याग को पसंद करता है। करुणा से वह खुश होता है। सुशिक्षित आम लोगों को यह समझाया जा सकता है। मिल-जुल कर एक वातावरण बनाने की कोशिश करनी चाहिए।
शोर पर ऐतराज
हमारे यहाँ धार्मिकता की भी ऐसी उग्रता देखने में आती है कि मत पूछिए। धर्म-कर्म में लगे बहुत से लोग कई बार अभद्रता की हद से गुजर जाते हैं। लाउडस्पीकर बजाकर आसपास के लोगों को परेशान कर देते हैं। आजकल हर घर में पढऩे-लिखने वाले बच्चे होते हैं। पढ़ाई का कितना दबाव रहता है, यह किसी से छिपा नहीं। जब घर के बाहर फुलसाउंड में लाउडस्पीकर बजता है तो बच्चे पढ़ नहीं पाते। बहुत से लोग शोर के कारण तनावग्रस्त भी हो जाते हैं। अगर ऐसे समय में कोई पीडि़त व्यक्ति आयोजकों के पास जाए तो वे अन्यथा लेते हैं और लडऩे पर उतारू हो जाते हैं। तब लगता है, कि यह कैसी धार्मिकता है जो दूसरों का दिल दुखा कर ईश्वर को खुश करना चाहती है। जबकि ईश्वर तो लोगों के दिलों में भी रहता है। अब लोग आस्था कम और प्रदर्शन में ज्यादा विश्वास करने लगे हैं। इसीलिए वे केवल अपनी सुविधा का ध्यान रखते हैं, दूसरों का नहीं।
फिर वही शराब....
छत्तीसगढ़ इस वक्त नक्सलवाद के साथ-साथ नशावाद से भी पीडि़त है। ऐसा कोई गाँव या शहर नहीं होगा,जहाँ शराब के कारण हिंसक स्थितियाँ न बनती हों। आपस में मारपीट, वैमनस्यता के पीछे शराब भी एक बड़ा कारण है। हालत यह भी होती है कि शराब के कारण घर-परिवारों में मौतें भी होने लगी हैं। पिछले दिनों आरंग क्षेत्र की कुछ जागरूक महिलाएँ रायपुर आईं और शराब बंदी के लिए प्रदर्शन करके लौट गईं। इनमें एक ऐसी महिला भी शामिल थी, जिसके पति की मौत शराब पीने के कारण हुई। अनेक मौतें केवल शराब केकारण हुई हैं। फिर भी शराबखोरी पर अंकुश नहीं लग रहा। प्रशासन को केवल आय चाहिए। शराबविरोधी आंदोलन को चालाकी के साथ दबा दिया जाता है। लेकिन ऐसा करके प्रशासन खुद अपराध कर रहा है। शायद उसे इस बात का अहसास ही नहीं है। गनीमत है कि छत्तीसगढ़ मुर्दा नहीं है। यहाँ शराब के विरुद्ध लोग एकजुट होते रहते हैं। आज नहीं तो कल हो सकता है कोई ऐसी व्यवस्था आए जो शराबबंदी के खिलाफ ईमानदारी से कोई निर्णय ले।

रविवार, 26 सितंबर 2010

छत्तीसगढ़ की डायरी

छत्तीसगढ़ ; घपलेबाज अफसरों की संख्या बढ़ रही
छत्तीसगढ़ के बारे में यही कहा जाता है कि यह बाहर से आए अफसरों का स्वर्ग है। और यह दीख भी रहा है। आजकल हर दूसरे-तीसरे दिन किसी न किसी अफसर के यहाँ छापा पड़ रहा है। काफी माल बरामद हो रहा है। छोटे से छोटा अफसर भी करोडों में खेल रहा है। क्या आईएएस और क्या डिप्टी कलेक्टर, हर कोई नोट कलेक्ट कर रहा है। तरह-तरह के घोटाले हो रहे हैं। सबसे मज़े की बात यह है कि लोग पकड़ में तो आते हैं, अखबारों के माध्यम से इनकी मिट्टीपलीद  भी होती है, लेकिन चिकने घड़ों को कोई फर्क नहीं पड़ता। और सच्चाई भी यही है, कि छापे के बाद कुछ दिन तक हलचल रहती है। बाद में मामला शांत हो जाता है। तबाही के कहीं कोई निशान ही नजर नहीं आते। कितने ही मामले गिनाए जा सकते हैं। यही सब देख कर तो बाकी अफसरों के भी हौसले बुलंद हैं, कि डटकर करो कमाई। किसी का बाल भी बाँका नहीं होगा। कमाल हो रहा है, कमाल हो रहा है। अफसर तो अफसर, अब बाबू भी लाल हो रहा है। लोग समझ रहै हैं कि छत्तीसगढ़ खुशहाल हो रहा है।  
 छत्तीसगढ़ की पुलिस इतनी कमजोर नहीं....
नक्सल समस्या एक अंधेरी रात में तब्दील हो चुकी है, ऐसा लगता है। ऐसा कोई दिन नहीं,जब कोई वारदात न हो। वहाँ रहने वाले लोगों को दहशत के साये में जीना पड़ता है। पुलिस वाले वहाँ जाना नहीं चाहते तो उनको प्रशासनिक डंडा दिखाया जाता है। खैर, काम तो करना ही पड़ेगा। जो पुलिसवाले वहाँ जाने से बचते हैं, उन्हें समझ लेना चाहिए कि खतरा कहाँ नहीं है। जीवन ही खतरे का नाम है और पुलिस में जो आता है, वह खतरों का खिलाड़ी बन जाता है। वरदी का मतलब है कि सिर पर कफन बाँध कर निकल पड़े हैं। सुविधाएँ यहाँ नहीं है। यहाँ संघर्ष है। चुनौतियाँ हैं। नक्सलवाद सबसे बड़ी चुनौती है। उससे भागने का मतलब है हम यह बता रहे हैं कि हम कायर है। जबकि वरदी वहीं पहनता है जो हिम्मती होता है। अगर पुलिस वाले नक्सल प्रभावित क्षेत्रों में जाने से घबराएंगे तो नक्सलियों के हौसले तो और बढ़ेंगे। इसलिए हिम्मत से काम लें और नक्सलियों से लोहा लें। छत्तीसगढ़ की पुलिस कमजोर नहीं, बहादुर है। यह संदेश पूरे देश तक जाना चाहिए।
नक्सल -अंधेरा: कब होगी सुबह?
वैसे पुलिस के जवानों को बहादुरी का सबक तो सिखाना आसान है, लेकिन यथार्थ यही है, कि वहाँ सरकार नाकाम-सी हो रही है। अभी सात जवानों का अपहरण किया गया । तीन को तो हत्या ही कर दी गई। चार अभी बंधक हैं। यह सब नक्सली आतंकवाद को दर्शाने का एक तरीका है। बंधक बने लोगों के परिजन किन मानसिक दौरों से गुजर रहे हैं, यह उनके बयानों से समझा जा सकता है। वे लोग नक्सलियों से अनुरोध कर रहे हैं, कि हमारे घर वालों को छोड़ दो तो वे लोग पुलिस की नौकरी ही छोड़ देंगे। उनकी जान बख्श दो। आदि-आदि। छोटे-छोटे बच्चे अपील कर रहे हैं लेकिन क्या नक्सली कुछ रहम करेंगे? अगर वे रहम करना जान लें तो नक्सली ही क्यों रहते? आम लोगों की समझ में नहीं आ रहा है कि आखिर इस रात की सुबह कब होगी। लेकिन धैर्य रखना ही होगा। क्योंकि सुबह अवश्य आएगी। शांति का सूरज चमकेगा ही।
ओ आँखवाले डॉक्टर, देखकर काम करो
हद है लापरवाही की। पिछले दिनों विश्रामपुर की एक तीन वर्षीय बच्ची की आँख में चोट लगी तो परिजनों ने अंबिकापुर के डाक्टर को दिखाया। डॉक्टर ने कुछ उपचार किया और आँख पर पट्टी    बाँध दी। दो दिन बाद छुट्टी भी दे दी। मगर आँख में दर्द बना रहा। बाद में पता चला कि अंबिकापुर के डॉक्टर ने तो बच्ची की आँख ही निकाल दी और डुप्लीकेट आँख लगा दी है। बच्ची की आँख में दर्द रहने लगा तो घर वाले बच्ची को लेकर रायपुर आए। एक जाने-माने डॉक्टर को दिखाया तब मामला सामने आया। घर वालों ने गैरजिम्मेदार डॉक्टर के खिलाफ विश्रामपुर थाने में रिपोर्ट लिखाई है। अब डॉक्टर महोदय सफाई में कह रहे हैं, कि घर वालों के कहने पर बच्ची की आँख निकाली थी। घर वालों की सहमति अगर थी तो घर वालों ने थाने में रिपोर्ट ही क्यों लिखाई? मामला गंभीर है। भयंकर किस्म की आपराधिक लापरवाही का है। डॉक्टर की लापरवाही केकारण एक नन्ही बच्ची की एक आँख चली गई, इसका दर्द बच्ची और उसके परिजन ही समझ सकते हैं।
वाह रे गांजा-तस्कर सरपंच....?
सरपंच मतलब गाँव का प्रधान ..राजा। लेकिन बहुत-से गाँवों में सरपंचों की लापरवाही और लालच के कारण शराब और तरह-तरह की नशाखोरी फल-फूल रही है। गाँव के गाँव तबाह हो रहे हैं। पिछले दिनों रायपुर जिले के सुदूर गाँव का एक सरपंच गांजा-तस्करी में लिप्ट मिला। दूसरे लोग तो पकड़े गए मगर सरपंच पुलिस की गिरफ्त में आने के पहले ही वह फरार हो गया। लेकिन इससे एक बात तो साफ हो गई कि सरपंच की शह में गाँजे का कारोबार चल रहा था। एक सरपंच पकड़ा गया। अभी कुछ पकड़ सेबाहर हैं। अनेक गाँव आज नशे के केंद्र बनते जा रहे हैं। पचं-सरपंचों की सहमति के चलते शराब दूकाने खुल रही है।
पुस्तक-मेले की परम्परा विकसित हो
बिलासपुर में पुुस्तक मेला शुरु हो गया है। 3 अक्टूबर तक चलेगा। रायपुर में लगने वाला है। लेकिन अनुभव यही आया है कि इन पुस्तक मेलों में बहुत अधिक खरीदी नहीं होती। ये पुस्तक मेले में केवल दर्शनीय बन कर रहा जाते हैं। लोग पुस्तकों के पास तो आते हैं। मगर बाजार से गुजरा हूँ खरीदार नहीं हूँ  जैसी पंक्ति को सार्र्थक करते हुए निकल लेते हैं। जबकि अन्य राज्यों में होने वाले पुस्तक मेलों के बारे में सुन-पढ़ कर बड़ा आश्चर्य होता है, कि वहाँ साधारण से साधारण आदमी अच्छी खरीदारी करता है। छत्तीसगढ़ में पुस्तक-मेले की संस्कृति अभी बन रही है। यह शुरुआत है। यह सिलसिला चलता रहेगा तो भविष्य में पुस्तकें भी खरीदी जाएँगी। अभी तो सरकारी खरीदी भर होती है। वह भी इसलिए कि कुछ अफसरों को खासा कमीशन मिल जाता है। वे लाल हो जाते हैं। फिर भी इन पुस्तक मेलों का दिल से स्वागत होना चाहिए और छत्तीसगढ़ के दूरदराज स्थानों में रहने वाले कभी रायपुर-बिलासपुर जाएं तो मेलों तक भी जाकर कुछ न कुछ पुस्तकें जरूर खरीदें।

शनिवार, 4 सितंबर 2010

हाय, ये बलात्कारी शिक्षक

हाय, ये बलात्कारी शिक्षक.................
शिक्षक दिवस के दिन लोग शिक्षकों की पूजा करते हैं, उनका सम्मान करते हैं। शिक्षक होते भी इस लायक हैं कि उनका आदर किया जाए, लेकिन कभी-कभी कुछ शिक्षक सकलकर्मी यानी कुकर्मी भी निकल जाते हैं। जिनसे उम्मीद करते हैं, कि वे संस्कार देंगे, वे पट्ठे बलात्कार करते हुए पकड़े जाते हैं। भिलाई के ज्ञानदीप स्कूल में एक अज्ञानी शिक्षक का मामला प्रकाश में आया है। यह नीच शिक्षक पाँचवीं कक्षा की एक छात्रा को अपनी वासना का शिकार बनाना चाहता था। उस पर मामला दर्ज हो गया है। अब तो उसे स्कूल से हटा भी दिया गया होगा। दुख की बात यह है कि कुछ शिक्षक गलती से शिक्षा के पेशे में आ जाते हैं। दरअसल उन्हें होना था अपराधी, बनना था माफिया मगर अध्यापक बन गए। मगर मानसिकता वहीं की वही। क्या करें? ऐसे घटिया शिक्षकों के कारण पूरी बिरादरी बदनाम होती है। सचमुच, एक मछली सारे तालाब को गंदा कर देती है। ऐसे शिक्षकों को आजीवन जेल में ही सड़ाना चाहिए, ताकि उन्हें हर पल अपनी गलती का अहसास होता रहे।
लहू का रंग एक है....

पिछले दिनों फिर एक घटना प्रकाश में आई, कि एक घायल नक्सली को एक जवान ने अपना खून दिया। यानी उसकी जान ही बचाई। खून देने वाले जवान ने साबित कर दिया, कि मानवता सबसे ऊपर है। वह चाहता तोकून न भी देता। उन नक्सलियोंं को खून क्यों दें, जो बेकसूरों का खून बहाते हैं। यह निर्मम व्यावहारिक सोच है, मगर नैतिकता या जीवन-मूल्य यही कहते हैं, कि मानवता की रक्षा की जाए। हो सकता है, जवान के खून देने के बाद नक्सलियों का मन पसीजे।  वे सोचने पर विवश हों, कि जिनको हम मार डालते हैं, उनके ही लोग हमारे साथी की जान बचाने के लिए रक्तदान करते हैं। लहू का रंग एक हैं। मगर जब लहू की सोच हिंसक हो जाए, तो क्या किया जा सकता है। जवान ने अपना लहू दे कर पुण्य का काम किया है। उसका अभिनंदन होना चाहिए।
सबक है यह पुलिस के लिए..
पुलिस का मतलब यह नहीं है, कि किसी के साथ भी मनमानी कर ली जाए। डंडा हाथ में आने के बाद कुछ लोग रावणत्व के शिकार हो जाते हैं। लेकिन वे भूल जाते हैं, कि लोकतंत्र में कानून नाम की कोई चीज भी है। पुलिसवालों को कानून की रक्षा के लिए डंडा दिया जाता है, लेकिन भाई लोग उस डंडे से किसी का भी सिर फोडऩे लगते हैं। आरपीएफ के प्रभारी समेत सात पुलिस कर्मियों के विरुद्ध कड़ी कार्रवाई का आदेश दिया गया है। हुआ यह कि किसी मामले में एक व्यक्ति को जेल हो गई थी, लेकिन पुलिस चालान नहीं पेश कर पाई। व्यक्ति को जमानत पर रिहा कर दिया गया। लेकिन पुलिस उसे फिर पकड़ कर ले गई। उसे मारा-पीटा। प्रताडि़त किया। मामले की गंभीरता को देखते हुए प्रथम श्रेणी न्यायिक मजिस्ट्रट ने मामला दर्ज करने का आदेश दे दिया। शिकार करने वाले लोग खुद शिकार हो गए। प्रताडि़त व्यक्ति को,उसके परिवार को तब संतोष मिलेगा, जब दोषी पुलिस वालों को कड़ी सजा मिलेगी। और मिलेगी ही क्योंकि न्याय के घर देर है, अंधेर नहीं।
छत्तीसगढ़ में घसपैठिए....?
छत्तीसगढ़ ही क्या, पूरा भारत घुसपैठियों का घर बनता जा रहा है। यह एक बड़ी समस्या है, फिलहाल अगर छत्तीसगढ़ की बात करें, तो यहाँ भी बांग्लादेश और पाकिस्तान के लोग घसुपैठ की कोशिश करते रहते हैं। अपने देश से वीजा बना कर आते हैं और भारत में ही रह जाते हैं। क्योंकि यहाँ सुख-शांति है। आराम से अपना धंधा कर सकते हैं। अपने यहाँ भ्रष्टाचार इतना है कि थोड़े से पैसे मिलने के बाद संबंधित अधिकारी किसी भी किस्म का प्रमाणपत्र दे सकता है। ऐसा ही एक पाकिस्तानी भवनदास सचदेव दस -बारह से रायपुर में रह रहा था। मकान भी खरीद लिया था। अपना व्यवसाय भी कर रहा था। अचानक पोल खुली। पुलिस ने पाक नागरिक केविरुद्ध चार सौ बीसी का मामला दर्ज कर लिया। इसके बाद ही यही सोचा जा रहा है, कि ेेसे न जाने कितने लोग यहाँ होंगे। रायपुर ही नहीं, आसपास भी ऐसे विदेशी होंगे, जो चुपचाप रह रहे हैं। एक अभियान चलना चाहिए, ताकि संद्ग्धि लोग पकड़ में आ सकें।
स्वर्ग है राजधानी सेक्स-माफिया के लिए....
छत्तीसगढ़ में भू माफिया, शराब माफिया, उद्योग माफिया आदि-आदि सक्रिय हैं। एक और माफिया तेजी के साथ पैर पसार रहा है। यह है सेक्स-माफिया। यह माफिया बाहर से लड़कियाँ बुलवाता है और यहाँ के रईसजादों को सप्लाई करता है। ये रईस लोग रायपुर के ही नहीं होते। छत्तीसगढ़ के कोने-कोने से यहाँ आते हैं। पिछले दिनों ऐसे ही एक सेक्स रैकेट का भाँडा फूटा। जम्मू और दिल्ली की लड़कियों के साथ छत्तीसगढ़ के ही दो युवक पकड़ में आए। दलाल फरार हो गया।  पकड़ी गई लड़कियों के पास से अनेक बड़े शहरों की हवाई टिकटे मिली। यानी ये चलती-फिरती देह-मशीनें थी। आज यहाँ तो कल वहाँ। कोई बड़ी बात नहीं, कि ये धनलोलुप लड़कियाँ अपने अभिभावकों से छल करके घूमती रहती हैं। पकड़ में आने पर इनके माता-पिता लज्जित होते हैं। लेकिन आज पैसे कमाने की हवस के कारण पतन इतनी तेजी से फैला है कि कई लोग इस पतन को अपने मौलिक अधिकार की तरह देखने लगे हैं।
गाय मूक है मगर उसकी आँखें बोलती हैं
जन्माष्टमी धूमधाम से मनी। कुछ लोगों ने गायोंकी भी पूजा की। गौ माता की जय के नारे भी लगाए। लेकिन उसी दिन पूरे शहर में दिन के समय और रात को लावारिस-सी गायें घूमती रहीं। इधर-उधर बैठी भी मिलीं। जो गायें सड़कों पर यूँ ही बदहाल घूम रही थीं। उनके पालक भी गौ माता जिंदाबाद के नारे लगा रहे थे। हमारे यहाँ अजीब मानसिकता है। गायों का भरपूर दोहन करेंगे मगर उसकी देखभाल करने में कंजूसी करने लगेंगे। उसे चारा नहीं खिलाएंगे। उसकी सेवा नहीं करेंगे। केवल प्रणाम करेंगे, बस। गोया ऐसा करने से गौ माता प्रसन्न हो जाएगी। गाय मूक प्राणी है मगर उसकी आँखें बोलती हैं। जरा गौर से देखो। उसके आँसू भी बहते हैं।  उसे गोपालक गौर से देखे महसूस करे। जब वह गाय का दूध पीये या उसे बेच कर, उसमें पानी मिला कर कुछ कमाई करे, तो ध्यान रखे कि गाय को कुछ खिलाना-पिलाना भी है। उसे सड़कों पर मत छोड़ो। उसे मैदान में चरने भेजो।

शनिवार, 14 अगस्त 2010

एक 'देश' में 'दो-दो'देश ...?

'एक' देश में 'दो-दो' देश ...?

दो-दो देश? जी हाँ, एक तरफ ''भारत'' है, या कहें कि ''हिन्दुस्तान'' है, तो दूसरी तरफ है ''इंडिया''. 
देश के वर्तमान हालात देख कर कई बार महसूस होता है, कि क्या इस देश में आजादी को बहुत हल्के-से लिया जाने लगा है? क्या नागरिक और क्या व्यवस्था, हर कहीं राष्ट्र की गरिमा का ख्याल रखने जैसी कोई बात नहीं आती। सरकारें देश को निजी कारोबारियों की तरह चला रही हैं तो नागरिक अपने स्वार्थ में पड़कर देश का नुकसान करने पर तुले हैं। ऐसे विषम समय में देश की हालत पर सोचने और एक बार फिर देश को नवजागरण की दिशा में ले जाने वाली रचनात्मक ताकतों के पक्ष में वातावरण बनाने की जरूरत है।
आजादी के साठ दशक बीत जाने के बावजूद देश आज भी देश के गाँव और और आदिवासी इलाके विकास की रौशनी से महरूम हैं: वंचित हैं। कहीं बिजली नहीं, कहीं, सड़क नहीं, कहीं पाठशालाएँ नहीं। कहीं स्वास्थ्य सुविधाएँ नहीं। यह कैसा नया भारत हैं, जहाँ शहरों में मॉल पर मॉल बनते चले जाएँ और गाँव बदहाल दर बदहाल होते चले जाएँ? दो तरह का समाज बनाते जा रहे हैं हम। एक गरीबों का, एक अमीरों का। शहरों की हालत देखता हूँ तो हैरत होती हैं। यहाँ दो तरह के स्कूल विकसित हो चुके हैं। एक गरीबों के स्कूल हैं, तो दूसरी तरफ अमीरों के स्कूल हैं। और स्कूल भी कैसे, गोया वे सितारा होटल हों। वातानुकूलित। जो बच्चे कभी मिट्टी से जुड़कर अध्ययन करते थे, स्वस्थ रहते थेे। खुली हवा में साँस लेते थे, आज कमजोर शरीर के स्वामी बन रहे हैं। अमीरी का ऐसा भद्दा दिखावा हो रहा है, कि मत पूछिए। यही कारण है, कि समाज में हिंसा की प्रवृत्ति बढ़ रही है। शहरों में आपराधिक घटनाएँ कई गुना बढ़ी हैं। आदिवासी इलाकों में नक्सलवाद जैसी नई बीमारी का उदय हो चुका है। इससे मुक्ति पाने के लिए ईमानदार प्रयास नहीं हो रहे हैं। इस रोग के पीछे गरीबी, बदहाली, असमानता और विकास के प्रति बेरुखी ही मुख्य कारण है। अगर हम सब इस दिशा में सोचें और कदम उठाएँ तो एक खुशहाल भारत को विकसित करने में कोई दिक्कत नहीं होगी। लेकिन अब इस दिशा में सोचने वाले लोग हाशिये पर हैं। आईना दिखाने वाले चिंतकों को सरकार विरोधी समझने की भी भूल कर दी जाती है। मेरा तो छोटा-सा अनुभव यही है।
आज भी गाँव और आदिवासी इलाके विकास की मुख्यधारा से कटे लगते हैं। जैसे वे बेचारे बाढ़ से घिरे हुए टापू हों। जहाँ, बदहाली है,भूख है, प्यास है। विकास के नाम पर जहाँ केवल एक हड़पनीति है। सारा विकास शहरें के हिस्से आया और गाँवें को हमने अछूत की तरह देखा। उसे हमने चुनाव के समय ही नमन किया। यानी कि हमने उसे केवल ठगने का ही काम किया। यही कारण है कि आज एक तरफ इंडिया है, जो पूर्णत: विकसित दिखता है, अँगरेजी  बोलता है, अश्लील या ऊटपटाँग कपड़े पहनता है। मॉलों में जीता है : मालामाल है। आदर्श-नैतिकता जहाँ कोई मुद्दा नहीं हैं। वहीं दूसरी तरफ एक अदद हिंदुस्तान है, भारत है, जो प्रतीक्षा कर रहा है, कि कब विकास की किरण आएगी, और उसका अँधेरा भागेगा। अँधेरे को यहाँ व्याख्यायित करने की जरूरत नहीं है। अँधेरा एक ऐसा रूपक है, जो अनेकार्थ उपस्थित करता है। आज अगर गाँवों में या आदिवासी इलाकों से हिंसा की लपटें निकल रही हैं, तो उसके पीछे शोषण ही रहा है। यह अलग बात है, कि इन लपटों में कुछ शातिर हवाएँ भी शरीक कर राष्ट्र को जानबूझकर क्षति पहुँचाने की कोशिशें कर रही हैं। इसलिए अब यह बेहद जरूरी है कि तमाम तरह के खतरे उठाते हुए और उससे निपटने की तैयारी के साथ हम अपने विकास के एजेंडे में गाँवे और वनांचलों को शामिल करें। यह बात समझ ली जानी चाहिए कि गाँव और वनांचलों का विकास ही राष्ट्र का सच्चा विकास है। बिना इसके विकास पूर्णत: एकांगी है, बेमानी है। 
देश के सामने महँगाई भी एक बड़ा मुद्दा है। कह सकते हैं, कि महँगाई की डायन खा रही है, और भ्रष्टाचार का दैत्य हमें परेशान कर रहा है। शिक्षा और स्वास्थ्य भी कम अहम मुद्दा नहीं है। गाँवों का विकास अब तक अलक्षित-सा है। न जाने क्यूँ हमने गाँव पर समुचित ध्यान ही नहीं दिया। वैसे अब नई पंचवर्षीयोजना में गाँवों तक इंटरनेट पहुँचाने का लक्ष्य तो बन गया है, लेकिन उदुख की बात यही है, कि गावों को विकास की मुख्यधारा से जोडऩे के लिए किए जाने वाले उपाय भ्रष्टाचार की चपेट में आ जाते हैं। दिल्ली में होने वाले कॉमनवेल्थ खेलों की तैयारियों जो भ्रष्टाचारी-खेल हो रहा है, वह किसी से छिपा नहीं है। भारत ही नहीं, पूरी दुनिया में भारत के लोगों का एक चेहरा सामने आया है। निर्माण के नाम पर भ्रष्टाचार एक जैसे सांस्कृतिक परम्परा-सी बन गई है। पूरे महादेश में यह रोग फैला हुआ है। एक ओर भ्रष्ट अफसर और नेता मालामाल हो रहे हैं, वहीं, देश की आम जनता गरीबी का दंश भोगने पर विवश है। दिल्ली से लेकर बस्तर तक विकास की गंगा को गटर-गंगा बनानेवाले चंद लोग ही होते हैं। अगर हमारे देश में अफसर और नेता ईमानदार हो जाएँ तो यह देश स्वर्ग बन सकता है। लेकिन अब कोई इस दिशा में सोचता नहीं। सबको यही लगता है, कि जब तक कुरसी है,कमाई कर लो और निकल लो। देश की स्वतंत्रता के सामने यह एक बड़ी चुनौती ही है कि जिनके हाथों में हमने विकास की बागडोर सौंपी है, वे दिशाहीन घोड़े की तरह भाग रहे हैं। देश को चारा या कहें, कि पिज्जा -बर्गर या चाउमीन समझ कर हजम तो कर रहे हैं। देश को अपना घर समझ कर उसे सँवारने की कोई कोशिश नहीं हो रही। यही कारण है कि देश में भ्रष्टाचार बढ़ा है। घर भरने की पाशविक मनोवृत्ति के कारण देश हाशिये पर चला गया है। अपना घर-परिवार, अपना भारी-भरकम बैंक-बैलेंस, महँगी कारें, अत्याधुनिक बँगले आदि की ललक ने लोगों को हद दर्जे का अपराधी बना दिया है। इस फितरत के शिकार दिखने वाली जमात को आसानी से पहचाना जा सकता है। मजे की बात है कि ये खलनायक ही हमारे नायक बने हुए हैं। राजनीति और समाज के दूसरे घटक भी भ्रष्ट हो कर विकास करने में विश्वास करते हैं। नतीजा सामने है कि इस समय देश में भ्रष्टाचार सबसे बड़े खेल के रूप में उभरा है। हमारा देश ओलंपिक खेलों में भले ही फिसड्डी रहे, लेकिन वह भ्रष्टाचार में नंबर वन रहने की पूरी कोशिश करता है। यही कारण है, कि विकासशील भारत भ्रष्टाचार का काला साया मंडरा रहा है। इसलिए आज हम देखें तो हमारे सामने भ्रष्टाचार एक राष्ट्रीय मुद्दा है। जैसे हम नक्सलवाद या आतंकवाद को देश की बड़ी समस्या मानते हैं, उसी तरह भ्रष्टाचार भी उससे कहीं ज्यादा बड़ी समस्या है। बाजारवाद एक दूसरे किस्म की समस्या है। इसकी चपेट में हमारी नैतिकता आ गई है। यह एक दूसरा मसला है,जिस पर फिर कभी लिखूँगा। फिलहाल चौंसठवें स्वतंत्रता दिवस पर अगर देश के सामने उभरने वाले कुछ मुद्दों की बात करें तो इस वक्त भ्रष्टाचार सबसे बड़ा मुद्दा है। इससे मु्क्ति के बगैर देश का सच्चा विकास असंभव है। विकास तोएक प्रक्रिया है। वह होगी ही, लेकिन नैतिकता, ईमानदारी, समर्पण,त्याग, या फिर कहें, कि राष्ट्रप्रेम  के बगैर किसी देश सुव्यवस्थित और स्थायी विकास संभव नहीं हो सकता। मेरा कवि-मन अपने भावें को निष्कर्षत: इन पंक्तियों में अभिव्यक्त करना चाहता है, कि-
मेहनतकश भारत तो दिनभर खटकर मेहनत करता है
मगर इंडिया शोषक बनकर यहाँ हुकूमत करता है।
जब तक एक देश में दो-दो देश यहाँ विकसाएँगे,
हिंसा के दानव को हम सब, कभी रोक ना पाएँगे।
वक्त आ गया है सब मिलकर भारत का उत्थान करें।
जहाँ समर्पण, त्याग खिले, उस बगिया का निर्माण करें।

शनिवार, 24 जुलाई 2010

छत्तीसगढ़ की डायरी

अब खेलों में राजनीति नहीं होगी ?
अब ऐसा मान कर चला जा रहा है, कि छत्तीसगढ़ में खेलों के मामले में कोई राजनीति नहीं होगी। यहाँ का ओलंपिक संघ अपने अच्छे कामों के लिए चर्चित भले न रहा हो, गुटबाजी के लिए जरूर कुख्यात रहा है। पदाधिकारी ही एक-दूसरे पर खुलेआम आरोप लगाते रहे हैं। हार कर संघ के लोगों ने तय किया कि अब इस संघ का अध्यक्ष मुख्यमंत्री को ही बना दिया जाए। मान-मनौवल के बाद मुख्यमंत्री राजी हो गए। अब उम्मीद की जाती है, कि सब कुछ ठीकठाक हो जाएगा। संघ के आजीवन संरक्षण विद्याचरण शुक्ल हैं। राजनीति के पुराने खिलाड़ी। उम्मीद की जा सकती है, कि विपरीत विचारधारा वाले दो दिग्गज मिलजुल कर छत्तीसगढ़ की खेल -संस्क ृति को शिखर तक ले जाएँगे। राजनीति में राजनीति उर्फ पॉलिट्किस होती रहती है तो कोई बात नहीं, कम से कम ओलंपिक संघ में यानी खेल में राजनीति न हो। सब यही कामना कर रहे हैं। डॉ. रमन सिंह आ गए हैं, तो यह बात पक्की है, कि वे खेल के मामले में राजनीति से ऊपर उठ कर ही सोचेंगे। वे ऐसा करते भी रहे हैं। उन्हें साफ भी किया है कि वे जितना हो सकेगा, बेहतर करने की कोशिश करेंगे।
क्या बात है, स्वागत है नड्डा जी का
छत्तीसगढ़ में नड्डा यहाँ के लोगों का प्रिय व्यंजन रहा है। चाय के साथ वाय के रूप में नड्डा खाने का प्रचलन रहा है। इसीलिए जब भाजपा ने जगतप्रसाद जी नड्डा को छत्तीसगढ़ का प्रभारी बनाया तो यहाँ के लोगों ने उनका अतिरिक्त उत्साह के साथ स्वागत किया है। लोग यह मान कर चल रहे हैं, कि उनके आने से भाजपा की लोकप्रियता में इजाफा होगा। जैसा पता चला है, कि व सिद्धांतवादी हैं। मिलनसार हैं। उनके प्रभारी बनने से पार्टी को लाभ ही मिलेगा। नड्डा जी यहाँ बहुत जल्दी ही लोकप्रिय हो जाएंगे, क्योंकि उनका सरनेम यहाँ वर्षों से लोकप्रिय है। स्वाद के लिए लोग यहाँ नड्डे का स्वाद चखते रहे हैं। अब भाजपा को नए प्रभारी मिलने के कारण संगठन की दृष्टि से नया स्वाद मिलेगा, पार्टी के लोगों को इसकी आशा है। छत्तीसगढ़ की दो भाजपा नेत्रियों को चंड़ीगढ़ और उत्तरप्रदेश का प्रभार मिला है। इससे एक बात यह भी साफ हुई है, कि यहाँ की स्त्री-शक्ति पर भाजपा ने भरोसा किया है। यह बड़ी बात है।
आखिर हो ही गए निलंबित?
यानी संस्पेंड। जी हाँ, स्वास्थ्य विभाग के एक अधिकारी है डॉ. आदिले। उन पर आरोप है, कि उन्होंने जगदलपुर मेडिकल कॉलेज में अपनी लड़की की भर्ती फर्जी तरीके से कराई थी। बहुत दिन से मामला सुर्खियों में था। लोगों को आश्चर्य हो रहा था, कि अब तक इनका निलंबन क्यों नहीं हुआ। लेकिन देर आयद दुरुस्त आयद। आखिर हो ही गए निलंबित। मतलब यह कि गलत काम करने की सजा मिलती ही है। भले ही विलंब हो जाए। अब यह मुहावरा भी गढ़ा जा सकता है, कि सरकार के घर देर हैं अंधेर नहीं। वैसे यहाँ कुछ  सरकारी अफसर ऐसे हैं, जो भर्ती के मामलों में गोलमाल करते रहे हैं। पिछले दिनों फर्जी जाति प्रमाण पत्र के भी कुछ मामले सामने आए। अभी एक पार्षद भी इस लपेटे में आ चुके हैं। उनका हश्र क्या होगा, यह बाद में तय होगा ही।
छेड़ख़ानी की तो खैर नहीं....
राजधानी में जब से नए कप्तान ने कार्यभार संभाला है, पुलिस कुछ ही चुस्त-दुरुस्त न•ार आ रही है। यातायात व्यवस्था कुछ सुधरती तो दीख रही है। अगर यही हाल रहा तो सड़कों पर चलने से तनाव बढऩा कुछ कम हो जाएगा। अब ऐसा हो तो अच्छा है, वरना रायपुर में यह कहावत अकसर चरितार्थ होती है, कि चार दिन की चांदनी फिर अंधेरी रात। खैर, अभी जो हो रहा है, उससे शहर सुधर ही रहा है। पिछले दिनों पुलिस ने स्कूलों के प्राचार्यों, समाजसेवियों और जनप्रतिनिधियों की बैठक की और कानून-व्यवस्था की स्थिति बहाल रखने के लिए क्या किया जाए, इस पर चर्चा भी हुई। राजधानी में छेडख़ानी की बढ़ती समस्या पर भी गंभीरता से विचार हुआ। हेल्पलाइन भी शुरू की गई है। उसका नंबर है-1091। उम्मीद की जा सकती है, कि राजधानी की लड़कियाँ, महिलाएँ इस नंबर को कंठस्थ कर लेंगी और जब कभी कोई उन्हें परेशान करने की कोशिश करे, इस नंबर पर शिकायत करके उसको सबक सिखाएँगी। शातिर लोगों के हौसले भी कुछ पस्त तो होंगे ही।
शराब से बड़ा लगाव है ...?
राजधानी में लोग आंदोलन करके शराब दूकानें बंद करवाते हैं मगर होता यह है, कि कुछ दिन बाद वही ढाक के वही तीन पात। यानी दूकानें फिर खुल जाती हैं। अभी पिछले दिनों टिकरापारा में स्कूल के सामने चल रही शराब दूकान को आंदोलन करने के बाद बंद कर दिया गया था। लोग खुश थे कि चलो, स्कूली बच्चों को शराबियों से मुक्ति मिली। लेकिन कुछ दिन बाद शराब दूकान फिर शुरू हो गई? यह बेशर्मी की हद है। इस बेशर्मी के विरु द्ध पार्षद एवं नागरिकों को फिर सड़क पर उतरना पढ़ा। समझ में नहीं आता, कि जब यह पता चल गया है, कि लोग शराब दूकान नहीं चाहते तो ठेकेदार ऐसी गुस्ताखी करता ही क्यों है? क्या उसे किसी का संरक्षण मिल जाता है। परदे के पीछे की कहानी साफ नहीं हो पाती। बहरहाल, स्वागत उस नागरिक चेतना का है जो मरी नहीं है। अन्याय के खिलाफ खड़ा होने का साहस ही हमें मनुष्य बनाए रखता है।
वाह, पैंतीलीस पुस्तकालय खुलेंगे....
यह एक अच्छी खबर है। सर्व शिक्षा अभियान के तहत प्रदेश के स्कूलों में अब पुस्तकालय खुलेंगे। पैंतालीस हजार स्कूलों में पुस्तकालय? सोचिए, क्या मंजर होगा। बच्चों को पाठ्य पुस्तक के बाहर भी झाँकने को सुअवसर मिलेगा। आज हिंदी में स्तरीय बाल साहित्य की कोई कमी नहीं लेकिन वह बच्चों तक पहुँच नहीं पा रहा है।  लेकिन पर स्कूल में अगर एक पुस्तकालय खुल जाए तो बाल साहित्य की कमी पूरी हो सकती है। लेकिन इसके लिए एक सावधानी भी बरतने की जरूरत है। बाल साहित्य के नाम पर बहुत कुछ कचरा साहित्य भी परोसा जाता है। इसलिए यह जरूरी है, कि खरीदी के लिए अच्छे जानकार बाल साहित्यकारों की एक टीम भी बनानी चाहिए। उनकी अनुशंसा के आधार पर ही बाल साहित्य खरीदना चाहिए। खैर, ऐसा होगा या नहीं, यह तो नहीं कहा जा सकता, लेकिन पुस्तकालय खुलने से बच्चों तक कुछ न कुछ सत्साहित्य तो पहुँचेगा ही। इस निर्णयके लिए शिक्षा विभाग की जितनी तारीफ की जाए कम है। 

गुरुवार, 22 जुलाई 2010

ब्लाँग आँफ द मंथ...पुरस्कार

इस साल के मार्च ,अप्रैल और मई के लिए ब्लाँग आँफ द मंथ का पुरस्कार छीटेँ और बौछारेँ ,ग्यान दर्पण ,गिरीश पंकज को

हर महीने  की तरह इस बार भी ब्लाँग आँफ द मंथ के पुरस्कारो की घोषणा कर दी  गयी है । ब्लाँगर साथियो को उत्साहित करने के लिये पिछले साल शुरू  किये गये इस पुरस्कार के अन्तर्गत महीने  के सर्वश्रेठ ब्लाँग को चुनकर उन्हे पुरस्कृत किया जाता है । ईटिप्स ब्लाँग टीम आप लोगो की तरह ही कोई कमाई नही करती , अब तक हिन्दी टिप्स ब्लाग ,सलीम खान के ब्लाग ,उङनतश्तरी ,प्रोपर्टी संसार ,बेचैनी ब्लाग ,छम्मक छल्लो ब्लाग इत्यादि को ये पुरस्कार दिया जा चुका है । हमने ब्लाँग चयन के लिये एक समिति "BLOG OF THE MONTH FOUNDATION" बनाई है जो इस कार्य को बखूबी कर रही है । हम न तो कोई लाभ कमाते हैँ और ना ही पुरस्कार स्वरुप कोई राशि किसी को दी  जाती है ।
मार्च-2010 के लिये यह आनलाँईन पुरस्कार आपके अपने पसंदीदा ब्लाँग "छीटेँ और बोछारेँ" को दिया जा रहा है।
वहीँ अप्रैल-2010 के लिये यह पुरस्कार आपके अपने चहेते ब्लाँग "ग्यान दर्पण" को दिया जा रहा है । इसके सानदार लेखोँ और ब्लाँग जगत मे सक्रीय भागीदारी के लिये ग्यान दर्पण को यह पुरस्कार दिया जा रहा है ।
वहीँ मई-2010 के लिये यह पुरस्कार छत्तीसगढ के प्रमुख साहित्यकार गिरीश पंकज जी के दो ब्लागोँ "गिरीश पंकज","सदभावना दर्पण" को सामूहिक रुप से दिया जा रहा
है



ईटिप्स ब्लाँग टीम की खबर 

सोमवार, 19 जुलाई 2010

शोक समाचार


जगदीश उपासने को पितृशोक 
इंडिया टुडे के कार्यकारी सम्पादक जगदीश उपासने एवं भारतीय जनता पार्टी छत्तीसगढ़ के प्रदेश उपाध्यक्ष  सच्चिदानंद उपासने के पिता श्री दत्तात्रय उपासने (वर्ष 87) का सोमवार को रायपुर में निधन हो गया। वे प्रख्यात समाज सेवी थे, स्व. उपासने की धर्मपत्नी श्रीमती रजनीताई उपासने रायपुर शहर से विधायक भी रही हैं। उपासने परिवार का राजनीति एवं समाज सेवा में काफी योगदान रहा है। परिवार के मुखिया के नाते स्व. उपासने ने आपात काल का वह दौर भी झेला था, जब उनके परिवार के अधिकतर सदस्य जेल में डाल दिए गए थे। भाजपा परिवार में भी उनका अभिभावक जैसा सम्मान था। यही कारण है कि जब स्व. उपासने ने स्थानीय अस्पताल में अंतिम सांस ली उस समय मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह भी वहां उपस्थित थे। वे अपने पीछे भरापूरा परिवार छोड़ गये हैं। स्व. उपासने का अंतिम संस्कार शाम 4 बजे मारवाड़ी श्मशान घाट, रायपुर में किया।
संजय द्विवेदी द्वारा प्रेषित खबर.

शुक्रवार, 16 जुलाई 2010

द्वितीय प्रमोद वर्मा स्मृति आलोचना सम्मान

प्रमोद वर्मा स्मृति आलोचना सम्मान 

मधुरेश और ज्योतिष जोशी को

रायपुर । द्वितीय प्रमोद वर्मा स्मृति आलोचना सम्मान से प्रतिष्ठित कथाआलोचक मधुरेश और युवा आलोचक ज्योतिष जोशी को सम्मानित किया जायेगा । यह सम्मान उन्हें 31 जुलाई, प्रेमचंद जयंती के दिन रायपुर, छत्तीसगढ़ में आयोजित द्वितीय अखिल भारतीय प्रमोद वर्मा स्मृति समारोह में प्रदान किया जायेगा । उक्त अवसर पर शताब्दी पुरुष द्वय अज्ञेय और शमशेर पर राष्ट्रीय संगोष्ठी का भी आयोजन किया गया है । यह सम्मान हिन्दी आलोचना की परंपरा में मौलिक और प्रभावशाली आलोचना दृष्टि को प्रोत्साहित करने के लिए 2 आलोचकों को दिया जाता है। संस्थान द्वारा राष्ट्रीय स्तर पर देश के दो आलोचकों को सम्मान स्वरूप क्रमश- 21 एवं 11 हज़ार रुपये नगद, प्रशस्ति पत्र, प्रतीक चिन्ह एवं प्रमोद वर्मा के समग्र प्रदान कर सम्मानित किया जाता है । इसमें एक सम्मान युवा आलोचक के लिए निर्धारित है ।
चयन समिति के संयोजक जयप्रकाश मानस ने अपनी विज्ञप्ति में बताया है कि इस उच्च स्तरीय निर्णायक मंडल के श्री केदार नाथ सिंह, डॉ. धनंजय वर्मा, डॉ. विश्वनाथ प्रसाद तिवारी, विजय बहादुर सिंह और विश्वरंजन ने एकमत से वर्ष 2010 के लिए दोनों आलोचकों का चयन किया है । ज्ञातव्य हो कि मुक्तिबोध, हरिशंकर परसाई और श्रीकांत वर्मा के समकालीन आलोचक, कवि, नाटककार और शिक्षाविद् प्रमोद वर्मा की स्मृति में गठित संस्थान द्वारा स्थापित प्रथम आलोचना सम्मान से गत वर्ष श्रीभगवान सिंह और कृष्ण मोहन को नवाज़ा गया था ।
बरेली निवासी मधुरेश वरिष्ठ और पूर्णकालिक कथाआलोचक हैं जिन्होंने पिछले 35 वर्षों से हिन्दी कहानी और उपन्यासों पर उल्लेखनीय कार्य किया है । उनकी प्रमुख चर्चित-प्रशंसित कृतियाँ है - आज की कहानी : विचार और प्रतिक्रिया, सिलसिला : समकालीन कहानी की पहचान', हिन्दी आलोचना का विकास, हिन्दी कहानी का विकास, हिन्दी उपन्यास का विकास, मैला आँचल का महत्व, नयी कहानी : पुनर्विचार, नयी कहानी : पुनर्विचार में आंदोलन और पृष्ठभूमि, कहानीकार जैनेन्द्र कुमार : पुनर्विचार, उपन्यास का विकास और हिन्दी उपन्यास : सार्थक की पहचान, देवकीनंदन खत्री (मोनोग्राफ), रांगेय राघव (मोनोग्राफ), यशपाल (मोनोग्राफ), यशपाल : रचनात्मक पुनर्वास की एक कोशिश , अश्क के पत्र, फणीश्वरनाथ रेणु और मार्क्सवादी आलोचना आदि । डॉ. ज्योतिष जोषी युवा पीढ़ी में पिछले डेढ़ दशक से अपनी मौलिक साहित्य, कला और संस्कृति आलोचना के क्षेत्र में उल्लेखनीय कार्य करते हुए अपनी प्रखर उपस्थिति से सबका ध्यान आकृष्ट किया है । मूलतः गोपालगंज बिहार निवासी श्री जोशी की प्रमुख कृतियाँ हैं – आलोचना की छवियाँ, विमर्श और विवेचना, जैनेन्द्र और नैतिकता, साहित्यिक पत्रकारिता, पुरखों का पक्ष, उपन्यास की समकालीनता, नैमिचंद जैन, कृति आकृति, रूपंकर, भारतीय कला के हस्ताक्षर, सोनबरसा, संस्कृति विचार, सम्यक, जैनेन्द्र संचयिता, विधा की उपलब्धिःत्यागपत्र व भारतीय कला चिंतन (संपादन) ।


मंगलवार, 13 जुलाई 2010

प्रमोद वर्मा आलोचना सम्मान हेतु प्रविष्टियाँ आमंत्रित

प्रमोद वर्मा आलोचना सम्मान हेतु प्रविष्टियाँ आमंत्रित
मुक्तिबोध, परसाई और श्रीकांत वर्मा के समकालीन तथा हिन्दी के वरिष्ठ आलोचक, कवि, नाटककार, विचारक और शिक्षाविद् श्री प्रमोद वर्मा की स्मृति को अक्षुण्ण बनाये रखने के लिए प्रमोद वर्मा स्मृति संस्थान द्वारा वर्ष 2009 से दो राष्ट्रीय स्तर के पुरस्कार प्रारंभ किये गये हैं । यह सम्मान हिन्दी आलोचना की परंपरा में मौलिक और प्रभावशाली आलोचना दृष्टि को प्रोत्साहित करने के लिए 3 आलोचकों को दिया जाता है। वर्ष2010-11 के सम्मान हेतु निम्नानुसार प्रविष्टियाँ आमंत्रित हैः-

प्रमोद वर्मा आलोचना सम्मान-
इस सम्मान के अंतर्गत 40 वर्ष से अधिक आयु वाले आलोचक की ऐसी मौलिक आलोचनात्मक कृति जो पिछले पाँच वर्षों में प्रकाशित हुई हो, पर विचार किया जायेगा । सम्मान के अंतर्गत अप्रकाशित पांडुलिपि भी स्वीकार किये जायेंगे । पुरस्कार स्वरूप चयनित आलोचक को संस्थान द्वारा आयोजित राष्ट्र स्तरीय समारोह में 21 हज़ार रुपये नगद, प्रशस्ति पत्र, प्रतीक चिन्ह आदि से सम्मानित किया जायेगा।

प्रमोद वर्मा आलोचना सम्मान (युवा) -
इस सम्मान के अंतर्गत 40 साल से कम आयु वाले युवा आलोचक के ऐसे मौलिक आलोचनात्मक लेखन, प्रकाशित कृति या अप्रकाशित पांडुलिपि पर विचार किया जायेगा जो आलोचना के प्रचलित प्रतिमानों से हटकर एवं प्रभावकारी हो । ऐसे आलोचकों की कृतियाँ पिछले 2 वर्षों के भीतर प्रकाशित हुई हो । सम्मानस्वरूप चयनित आलोचक को संस्थान द्वारा आयोजित राष्ट्र स्तरीय समारोह में 11 हज़ार रुपये नगद, प्रशस्ति पत्र, प्रतीक चिन्ह आदि से सम्मानित किया जायेगा ।

प्रमोद वर्मा आलोचना सम्मान (राज्य स्तरीय) –
इस सम्मान के अंतर्गत छत्तीसगढ़ राज्य के आलोचकों को उनकी मौलिक आलोचनात्मक लेखन, प्रकाशन के लिए सम्मानित किया जायेगा । ऐसे आलोचकों की कृति पिछले एक वर्ष के भीतर प्रकाशित हुई हो । सम्मान चयनित आलोचक को संस्थान द्वारा 7 हज़ार रुपये नगद, प्रशस्ति पत्र, प्रतीक चिन्ह आदि से सम्मानित किया जायेगा ।

निर्णायक मंडल –
श्री केदार नाथ सिंह, श्री गंगाप्रसाद विमल, डॉ. धनंजय वर्मा, श्री विश्वनाथ प्रसाद तिवारी, श्री विश्वरंजन ।
निर्णायक मंडल (राज्य स्तरीय)-  
श्री प्रभात त्रिपाठी, डॉ. बलदेव, डॉ. सुशील त्रिवेदी, श्री गिरीश पंकज, श्री विश्वरंजन

नियमावली –
1.       प्रविष्टि के रूप में प्रकाशित कृति या पांडुलिपि की दो प्रतियाँ भेजना होगा ।
2.       प्रविष्टि के साथ आलोचक का संक्षिप्त बायोडेटा और छायाचित्र भेजना आवश्यक होगा ।
3.       प्रविष्टि कोई प्रकाशक, समीक्षक, प्रशंसक या स्वयं आलोचक भी भेज सकते हैं ।
4.       प्रविष्टि प्राप्त होने की अंतिम तिथि – 30 मार्च, 2011 ।
5.       प्रविष्टि भेजने का पता – जयप्रकाश मानस, कार्यकारी निदेशक, प्रमोद वर्मा स्मृति संस्थान, छगमाशिम, आवासीय परिसर, पेंशनवाड़ा, रायपुर, छत्तीसगढ़ – 492001
6.       अन्य जानकारी के लिए मोबाईल नंबर 94241-82664 या ई-मेल-pandulipipatrika@gmail.com  या हमारी वेबसाइट www.pramodvarma.com से संपर्क कर सकते हैं ।

जयप्रकाश मानस
कार्यकारी निदेशक
                                                 प्रमोद वर्मा स्मृति संस्थान, छत्तीसगढ़
           एफ-3, छगमाशिम, आवासीय परिसर, पेंशनवाड़ा, रायपुर, छत्तीसगढ़-492001

रविवार, 11 जुलाई 2010

छत्तीसगढ़ की डायरी

छत्तीसगढ़ में घोटाले की सड़क...
निर्माण और घोटाले की पक्की दोस्ती होती है। दोनों साथ-साथ रहते हैं। पीते-खाते हैं। खाते-पीते भी है। राज्य बनने  के बाद यह सिलसिला यहाँ कुछ ज्यादा तेज हुआ है। पहले भोपाल के लोग (यानी नेता, अफसर और ठेकेदार की तिकड़ी)खाते-पीते थे, अब रायपुर में लोग खाते-पीते हैं। यही कारण है कि प्रधानमंत्री सड़क योजना के तहत घटिया सड़कें बनती हैं। मिली-जुली कुश्ती होती है। दिल्ली से आने वाला पैसा कुछ लोगों की जेबों में चला जाता है। घटिया सड़क बनाने के आरोप में कुछ ठेकेदारों को तो काली सूची में डाल दिया गया है, मगर कुछ अफसर साफ-साफ बच निकले हैं। खेल के सूत्रधार तो अफसर भी होते हैं। अकेले अफसर कुछ  नहीं कर सकते। हिस्सेदारी की बात गलत नहीं है। अब कहा जा रहा है, कि जो सड़के घटिया बनी हैं, उन्हें फिर बनाया जाएगा। सड़क फोकट में तो बनेगी नहीं, जाहिर है फिर वहीं चक्कर शुरू होगा। नए ठेकेदार सामने आएंगे। और अगर ईमानदारी से देखभाल नहीं की गई तो फिर घटिया सड़कों पर चलना पड़ेगा।
नक्सलियों से निपटने की तैयारी
यह ऐसी तैयारी नहीं है, कि अब सेना धावा बोल देगी। यह तैयारी है बौद्धिक। यह भी जरूरी काम होता है। 14 जुलाई को दिल्ली में नक्सल समस्या से पीडि़त राज्यों के मुख्यमंत्री केंद्र के साथ मिल-बैठ कर विचार करेगें, कि नक्सलियों से कैसे निबटा जाए। क्या सेना की मदद लें, अद्र्धसैनिक बल और बढ़ाएँ या सिपाहियों को और ज्यादा चुस्त करें। जो भी हो, कोई निर्णायक रणनीति बननी ही चाहिए। क्योंकि इधर अती हो रही है। नक्सलियों का एक नेता आजाद मारा गया है, तब से वे और अधिक बौखला गए है। एक दौर था जब जयपक्राश नारायण और विनोबा भावे जैसे महान नेताओं ने डकैतों का आत्म समर्पण करवा दिया था। आज भी यह काम हो सकता है। लेकिन दुख इस बात का है कि अब वैसे महान लोग हैं नहीं। खादी का कुरता पहन कर इधर-उधर डोलने वाले कुछ लोग संदिघ्ध हो गए हैं। कोई विदेशी मदद से अपना एनजीओ चला रहा है, तो कोई नक्सलियों के पक्ष में खड़ा है। बहरहाल, समझ में नहीं आ रहा, कि किया क्या जाए। लेकिन उम्मीद है, कि दिल्ली की बैठक कोई ठोस नतीजे के साथ खत्म होगी।
राजधानी के किशोर अपराधी
राजधानी में आए दिन लूटपाट, उठाईगीरी और हिंसक वारदातें हो रही हैं। कुछ लोग पकड़ में भी आ रहे हैं। दु:खद बात यह है कि बहुत-से मामले में किशोर और बिल्कुल युवा वर्ग के अपराधी सामने आ रहे हैं। अभी पिछले दिनों कुछ युवक पकड़े गए, इनमें एक राजनीतिक दल के सदस्य भी था। यह चिंतास्पद बात है। और ऐसा नहीं कि यह अभी इनकी संख्या बढ़ गई है। पिछले लंबे अरसे से किशोर-युवा ही पकड़ में आ रहे हैं। ये छोटे-मोटे अपराधी आने वाले समय के बड़े अपराधी हैं। सही शिक्षा का अभाव, नैतिक वातावरण की कमी और घर-परिवार का असर इन लड़कों को गुमराह बना ही देता है। इसलिए जरूरी हो जाता है, कि शालाओं में बच्चों के लिए नैतिक शिक्षा के पाठ जरूरी किए जाएं जो, जो अब लगभग समाप्त-से हो गए हैं।
बारिश में शहर
बारिश आती है और शहर के प्रशासन का असली चेहरा सामने आने लगता है। गड्ढे ही गड्ढे हो जाते हैं और इनमें पानी भरने और उसमें लोगों के धँसने का सिलसिला शुरू हो जाता है। गंदगी और उसके कारण होने वाली बीमारियाँ भी बढ़ जाती हैं। प्रशासन बारिश के पहले बड़े-बड़े वादे करता है, लेकिन वह कुछ कर नहीं पाता। और खामियाजा भुगतना पड़ता है सामान्यजन को। बारिश में शहर कई बार टापू-सा लगने लगता है। अनेक कालोनियों में कीचड़ ही कीचड़ नजर आता है। सूखे हुए तालाबों वाला शहर तालाबों में पट जाता है। जिधर देखो, उधर एक तालाब। दुर्घटनाएँ बढ़ती जाती हैं। शहर में बदबू और बीमारियों का साम्राज्य छाया रहता है। इस बार भी यही हो रहा है। महापौर खुद निकल रही है, नालियों से कचरे निकलवा रही है। लेकिन यह भी सच है कि  कोई कहाँ-कहाँ जाए? आम आदमी भी ग•ाब की शै है। नालियों को चोक आदमी ही करता है। घर का, दूकान का सारा कचरा नालियों में ही डालता है। जाहिर है बरसात में नालियाँ बजबजाने लगती हैं। इसलिए नागरिकों का भी दायित्व है कि वह शहर को साफ रखें। वरना भुगतना उन्हीं को है।
गोवंश को बचाने के लिए साधुवाद..
गौ माता भाजपा गोवंश विकास प्रकोष्ठ के सदस्यों को धन्यवाद दे रही है, जिन्होंने सौ से ज्यादा गायों को कटने से बचा लिया। पिछले दिनों राजधानी और आसपास के कुछ शहरों से गो प्रेमियों ने कत्लखानों के लिए लेजाई जा रही गायों को पकड़ लिया। तस्करों को पुलिस के हवाले भी किया। सच बात तो यह है कि गो वंश की तस्करी का सिलसिला जारी है। कभी-कभार गायें पकड़ में आ जाती है, ये अलग बात है। आए दिन गायों की तस्करी होती रहती है।  चोरी-छिपे गायें भी कटती रहती हैं। राजधानी में भी यह अपराध हाता है। गोवंश विकास प्रकोष्ठ के सदस्यों को सतत निगरानी रखनी चाहिए। संदिग्ध इलाकों में घूम-घूम कर जायजा लेना चाहिए। क्योंकि अगर ऐसा नहीं किया गया तो गो वंश कटता ही रहेगा।
लौकी के जूस का डर
पिछले दिनोंदिल्ली के एक वैज्ञानिक की मौत लौकी के जूस पीने से हो गई। रायपुर और छत्तीसगढ़ के लोग भी जागरूक हैं। वे भी लौकी और अन्य फलों के जूस पीते रहते हैं। दिल्ली में हुई मौत के पीछे कारण यह बताया जा रहा है, कि वैज्ञानिक ने जो जूस पीया, वह काफी कड़वा था। वह मर गया और उसकी पत्नी अस्पताल में भरती हो गई। लौकी अगर कड़वी हो तो उसका जूस नहीं पीना चाहिए। दूसरी बात यह भी है, कि आजकल फल-सब्जियों में आक्सीटोसिन का इंजेक्शन भी लगा दिया जाता है। इससेभी स्वास्थ्य को खतरा हो सकता है। राजधानी में बाजार में बिकने वाली सब्जियाँ भी संद्ग्धि नजर आती है। दरअसल पैसे कमाने की हवस के कारण समाज के कुछ लोग इतना नीचे गिर गए हैं, कि उनके लिए नैतिकता जैसे शब्द बेमानी हो गए हैं। अब लोग ही समझदारी से काम लें और किसी भी फल-सब्जी का जूस सेवन करने से पहले उसकी गुणवत्ता परख लें। बेहतर तो यही है कि लोग बागवानी करें और अपनी जरूरत की फल-सब्जियाँ खुद उगाने की दिशा में भी विचार करें।

बुधवार, 7 जुलाई 2010

श्रद्धांजलि...

रामशंकर अग्निहोत्री , अब ऐसे लोग कहाँ से लायेंगे?                                                                                       
वरिष्ठतम पत्रकार और लेखक रामशंकर अग्निहोत्री जी का अचानक यूं चला जाना हजारों लोगों को दुःख में  डुबो गया. आज (७ जुलाई) सुबह उनका निधन हो गया. संध्या देवेन्द्रनगर स्थित श्मशान घाट में सैकड़ों लोगो ने उन्हें अश्रुपूरित विदाई दी. उनके अंतिम संस्कार में छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री समेत अनेक मंत्री, सांसद एवं विधायक शामिल हुए. उनको अंतिम विदाई देने के लिये मीडिया जगत के भी अनेक नामचीन चेहरे मौजूद थे. 
अभी पाँच दिन पहले की बात है. उनसे मेरी मुलाकात  हुई थी. उन्होंने बताया था, कि  वे राममनोहर लोहिया पर एक पुस्तक सम्पादित कर रहे हैं. मानव अध्ययन शोधपीठ, कुशाभाऊ ठाकरे पत्रकारिता एवं जनसंचार विश्वविद्यालय, रायपुर के अध्यक्ष के रूप में वे गाँधी,लोहिया और पंडित दीनदयाल उपाध्याय जी के विचारों पर एक बड़ा सेमीनार भी करने की तैयारी में थे. उनका उत्साह देख कर हर कोई दंग रह जाता था. वे पचासी साल के हो चुके थे और  बेहद स्वस्थ और फुर्तीले नज़र आते थे. इस अवस्था में भी किसी युवक की तरह सक्रिय रहते थे. मैंने उनका बहुत नाम सुन रखा था. उनके अनेक राष्ट्रवादी लेख भी इधर-उधर पढ़ता रहता था. लेकिन पिछले  कुछ सालों से उनका रायपुर आना-जाना कुछ बढ़ गया था, इसलिए किसी न किसी  कार्यक्रम में उनसे  भेंट हो जाती थी.
मैंने उन्हें हमेशा एक विनम्र एवं नैतिक व्यक्ति के रूप में ही पाया. वे अनुभव की आंच में तप कर खरे हुए थे. अनेक समाचार पत्रों में महत्वपूर्ण जिम्मेदारियां निभाने के बात वे पंडित दीनदयाल उपाध्याय मानव अध्ययन शोधपीठ के अध्यक्ष के रूप में अपनी सेवाएँ दे रहे थे. आज जब विश्वविद्यालय के कुलपति सच्चिदानंद जोशी से उनके बारें में चर्चा होने लगी, तो उन्होंने बताया, कि  वे विश्वविद्यालय में भी बेहद सक्रिय रहते थे. अखबारों में कोई महत्वपूर्ण खबर छपती थी तो वे कटिंग काट कर सन्दर्भ सामग्री के रूप में सहेज कर रखने लिये हमलोगों को दे दिया करते थे. तीन दिन पहले जब अग्निहोत्री जी अस्पताल में भरती हुए तो कृत्रिम साँस  के लिये उन्हें मास्क लगाया गया था. लेकिन जैसे ही कोई व्यक्ति उन्हें देखने पहुंचता, वे मास्क निकलकर भावी कार्यक्रमों के बारे में बात करने लग जाते थे. मुख्यमंत्री डा. रमन सिंग, और संस्कृति मंत्री बृजमोहन अग्रवाल आदि भी  उन्हें देखने पहुंचे. सभी से उन्होंने कहा, कि अब मै स्वस्थ हो कर फिर सक्रिय होना चाहता हूँ. प्रदेश के मंत्री राजेश मूणत ने चर्चा के दौरान मुझे बताया कि, पिछले दिनों उन्होंने लगा कि उनका स्वास्थय  कुछ ज्यादा खराब हो रहा है, तो उन्होंने कहा था, ''मैं भोपाल जाऊँगा चेकअप कराने'', तो राजेश मूणत ने उनसे कहा, था कि ''वहां क्यों जायेंगे. यही आपका बढ़िया इलाज़ हो जाएगा''. इस पर मुसकरा कर चुप हो गए.
अग्निहोत्री जी भाजपा के थिंक टैंक की तरह थे. इसलिए भाजपा के हर छोटे-बड़े नेता से उनके जावन और आत्मीय सम्बन्ध थे. यही कारण है, कि आज जैसे ही उनके निधन का दुखद समाचार मिला, लोग शोक में डूब गए. उन्हें श्रद्धांजलि देने लगभग पूरा मंत्रिमंडल ही डा. राजेंद्र दुबे के निवास पर उमड़ पडा था. रायपुर में उनका कोई निकट का  रिश्तेदार नहीं था. लेकिन जब मै उनको श्रद्धांजलि देने डा. दुबे के निवास पर पहुंचा तो देख कर दंग रह गया, कि अनेक मंत्री और अनेक महत्वपूर्ण भाजपा नेता वहां मौजूद है, और उनके अंतिम संस्कार की  तैयारियों में व्यस्त है. ऐसा बहुत कम होता है, कि किसी के निधन के बाद इतने लोग एकत्र हों, मगर अग्निहोत्री जी इतने महान व्यक्ति थे, कि उनके अंतिम दर्शन के लिये सैकड़ों लोग लालायित थे. भाजपा के लोग तो खैर थे ही, मेरे जैसे अनेक पत्रकार और अन्य  दूसरे लोग भी पहुँच गए थे. भाजपा के लोगो को उन्होंने बहुत कुछ दिया है, लेकिन हम जैसे पत्रकारों को भी उन्होंने बहत कुछ दिया. आज जब पत्रकारिता अपने मूल्य से गिर रही है, तब अग्निहोत्री जी ने समझाया कि विपरीत स्थितियों में भी खड़े रहना पत्रकार  का कर्तव्य है.
अग्निहोत्री जी  ने आपातकाल और रामजन्‍मभूमि आंदोलन से जुडी खबरों को वैश्विक क्षितिज पर प्रसारित करने में उन्‍होंने उल्‍लेखनीय भूमिका निभाई। शायद इसीलिए वे संघ और भाजपा के चहेते थे. विचारधारा से वे भले ही किसी एक वर्ग के चहेते बन गए थे, मगर उनकी राष्ट्रवादी पत्रकारिता के कारण हम जैसे लोग भी उनसे सीखते रहते थे. छोटो को स्नेह देना, उनकई तारीफ करना कोई अग्निहोत्री जी से सीखे. पिछले दिनों एक कार्यक्रम में मैंने ''दासबोध'' के हिंदी अनुवाद के सौ साल होने पर आयोजित कार्यक्रम में अपने विछार व्यक्त किये थे. अग्निहोत्री जी श्रोता के रूप में सामने विराजमान थे.उनके सामने बोलने में संकोच हो रहा था, फिर भी मैंने  अपनी बात कही. कार्यक्रम के बाद उन्होंने मेरी तारीफ करते हए कहा, कि आज ऐसे ही सोच की ज़रुरत है. इसके पहले भी कुछ अवसरों पर आपने मुझे प्रोत्साहित ही किया. बड़े लोग सचमुच बड़े होते है. मगर सामने वाले को अपने बड़प्पन का अहसास  नहीं होने देते.
पाँच दिन पहले जब उन्होंने मुझसे कहा, कि गाँधी, लोहिया, और दीनदयाल जी पर कार्यक्रम करनाहै, तो मैंने कहा, मेरे पास दीनदयाल जी से सम्बंधित जानकारियाँ नहीं है, तो वे फ़ौरन बोले, एक मिनट रुकिए. फिर वे बाहर गए और कर में रखी एक पुस्तक ले आये.यह पुस्तक दीनदयाल उपाध्याय जी पर केन्द्रित थी. उनका एक उपन्यास अम्बेडकर जी पर है. उसकी तारीफ सुनी है. पढ़ नहीं पाया हूँ. अब पढ़ना चाहूँगा, ताकि उनके औपन्यासिक शिल्प  के भी रूबरू हो सकूं. उनकी कुछ कविताये मैंने पढ़ी है. वे देश के नवनिर्माण में बेचैन रहने वाले राष्ट्रवादी लोगों में थे. अपना तन-मन-धान राष्ट्र की सेवा को समर्पित करने के लिये तैयार रहने वाले. वे अक्सर कहा करते थें कि अब अंतिम साँस तक रायपुर  में रह  कर राष्ट्र की सेवा करना चाहता हूँ. उन्होंने अपना वचन निभाया और रायपुर में ही अंतिम  साँस ली. उनके अवदान-सम्मान की बात करुँ तो श्री अग्निहोत्री 1975 से 1977 तक एकीकृत समाचार न्यूज एजेंसी नई दिल्ली (आपातकाल) के उप समाचार संपादक रहे। वर्ष 1978 से 1980 तक उन्होंने हिन्दुस्थान समाचार ( महाराष्ट्र-गुजरात ) मुंबई के क्षेत्रीय व्यवस्थापक रहे । 1981 से 1983 तक हिन्दुस्थान समाचार के विशेष संवाददाता के रूपमें  काठमांडूमें भी रहे।  आप  हिन्दुस्थान समाचार, नई दिल्ली के प्रधान संपादक भी रह चुके थे.  श्री अग्निहोत्री 1986 से 1989 तक पांचजन्य साप्ताहिक, दिल्ली के प्रबंध संपादक भी थे.  1989 से 1990 तक श्री राम कार सेवा समिति, सूचना केन्द्र, नई दिल्ली के निदेशक तथा 1992 में श्री रामजन्म भूमि मीडिया सेंटर, रामकोट, अयोध्या के निर्देशक थे। उन्होंने 1991 से 1998 तक मीडिया फोर फीचर्स लखनऊ का प्रकाशन और संपादन किया। वे 1999 से 2002 तक भारतीय जनता पार्टी के केन्द्रीय मीडिया प्रकोष्ठ, नई दिल्ली में रहे। उन्होंने 2002 से 2004 तक मीडिया वाच का संपादन और प्रकाशन किया।सन् २००८ के लिए माणिकचन्द्र वाजपेयी राष्ट्रीय पत्रकारिता पुरस्कार से सम्‍मानित  रामशंकर 14 अप्रैल, 1926 को मध्य प्रदेश के सिवनी मालवा में जन्मे श्री अग्निहोत्री जी ने  सागर विश्वविद्यालय से  बी.ए. करने के बाद उन्होंने नागपुर विश्वविद्यालय से पत्रकारिता में डिप्लोमा प्राप्त किया।  आप 1949 में अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद, महाकौशल के संगठन मंत्री नियुक्त हुए। वे  दैनिक युगधर्म, नागपुर के सह संपादक रहे। सांध्य दैनिक आकाशवाणी (दिल्ली) केभी आप  संपादक रह चुके थे।  कश्मीर सत्याग्रह में भी उनकी अहम् भूमिका थी।  आप पांचजन्य (मध्य भारत संस्करण) के भी संपादक रहे। मासिक राष्ट्रधर्म, लखनऊ का सम्पादन भी आपने किया । युगवार्ता, फीचर्स सर्विस, नई दिल्ली के संपादक थे। 1970 से 1975 तक आप  हिन्दुस्तान समाचार न्यूज एजेंसी के ब्यूरो प्रमुख रहे। 1971 में आप ने एक और जौहर दिखाया. आपने युद्ध-संवाददाता के रूप में भी कार्य कर अपनी जांबाजी का परिचय दिया था. आप 2004 में हिन्दुस्थान समाचार बहुभाषी संवाद समिति के अध्यक्ष रहे।
एक साहित्यकार  के रूप में उनके अवदान को देखें तो उन्होंने बहुत अधिक रचनाएँ भले ही न की हों,   लेकिन उन्होंने जितना लिखा, उत्कृष्ट ही लिखा. उनका एकमात्र काव्य संग्रह सत्यम एकमेव काफी चर्चित रहा है। अम्बेडकर परकेन्द्रित  उपन्यास ''मसीहा'  को पढ़ चुके लोगो का मानना है, कि किसी व्यक्ति के जीवन पर केन्द्रित ऐसे उपन्यास कम ही देखने में आते है. अनेक  देशों का भ्रमण कर चुके अग्निहोत्री जी को  इन्द्रप्रस्थ साहित्य भारती द्वारा डा. नगेन्द्र पुरस्कार, राष्ट्रीय पत्रकारिता कल्याण न्यास द्वारा स्व. बापूराव लेले स्मृत्ति पत्रकारिता पुरस्कार तथा माधवराव सप्रे स्मृति समाचार पत्र संग्रहालय एवं शोध संस्थान भोपाल द्वारा लाला बलदेव सिंह सम्मान प्रदान किया गया था. श्री अग्निहोत्री एक तरह से एकांत साहित्य साधक थे और एकनिष्ठ पत्रकार थे. उनके अनेक शिष्य आज पत्रकारिता जगत में अपना डंका बजा रहे है. उनके साथ के लोगों के उनके निधन पर गहरा दुःख हुआ. देश के कोने-कोने में उनके चाहने वाले आज फोन कर-कर के सम्बंधित जनों से बातें करते रहे. शवयात्रा में मंत्रीमंडल के अनेक लोग शामिल हुए. श्मशानघाट में मुख्यमंत्री  भी पहुँच गए थे. सब ग़मगीन थे. उन सबके बीच से ऐसा व्यक्ति चला गया  था, जिसके जाने की कोई उम्मीद ही नहीं थी. सब इस बात को लेकर भी दुखी थें कि उनको सही वैचारिक राह अब कौन दिखाएगा. पत्रकारिता की नैतिक मूल्य की परम्परा अब ख़त्म हो रही है, लेकिन जब मै अग्निहोत्री जी को देखता तो सुकून मिलता था, संतोष होता था, कि एक परम्परा अभी ज़िंदा है. आज वे हमारे बीच नहीं है, उनके जाने के बाद चिंता हो रही है, कि अब ऐसे लोग हम कहाँ से लायेंगे, जो बरगद होते हुए भी पौधों को पनपने का मौका देते  थे.

रविवार, 4 जुलाई 2010

छ्त्तीसगढ़ की डायरी

ये है छत्तीसगढ़ की पुलिस की डंडागीरी... 
राजधानी रायपुर में डॉन शब्द से पुलिस इतनी नाराज है कि मत पूछो। इस चक्कर में एक स्कूली छात्र को पीट कर एक पुलिस अधिकारी ने अपनी डंडागीरी दिखाने की शर्मनाक कोशिश कर डाली। पिछले दिनों राजधानी में वाहनों में आग लगने की अनेक घटनाएँ हुईं। ये हरकतें किसी डॉन ग्रुप की हैं। पुलिस के कुछ अति होशियार लोगों ने कुछ लड़कों को पकड़ा और उन्हें डॉन ग्रुप  बताकर जेल भी भिजवा दिया। फिर भी शहर में वाहनों के जलने का सिलसिला चलता रहा। अब पुलिस के एक जिम्मेदार अधिकारी खुद कह रहे हैं, जो लड़के पहले पकड़े गए थे, वे डॉन ग्रुप के नहीं थे। आखिर पुलिस ऐसा करती क्यों है? फर्जी मामले क्यों बनते हैं? पिछले दिनों एक स्कूली छात्र को एक पुलिस अधिकारी ने पकड़ा और डंडे से पीटना शुरू कर दिया। लड़के का कुसूर इतना ही था कि उसकी बाइक पर डॉन लिखा था। लोग इस हादसे से दुखी भी हुए और पुलिस  अफसर की मूर्खता पर हँसे भी। अरे भाई, पहले समझ तो लो। कल को डॉन फिल्म रायपुर में लगेगी तो क्या सिनेमा मालिक की सुटाई शुरू कर दोगे कि डॉन क्यों लगाई? कुछ लोग शरारत कर रहे हैं, तो डॉन शब्द से खुन्नस निकालना कहाँ की बुद्धिमानी है?

नक्सलियों की अंतहीन हरकतें...
बस्तर में लाशें गिनने का काम जारी है। आए दिन नक्सली हत्याएँ कर रहे हैं। वे खुद भी मर रहे हैं। लेकिन वे तो विचारधारा के नाम पर संघर्ष कर रहे हैं। दो मरते हैं सौ को मारते हैं। सिलसिला जारी है। पिछले दिनों सीआरपीएफ के जवानों की हत्या के पीछे उनका तर्क था, कि हमने इसलिए हत्या की, कि  इन लोगों ने कुछ निर्दोष ग्राणीणों की जानें लगी थीं। इस आरोप का कोई सबूत उनके पास नहीं है। अगर कुछ है तो पेश करना चाहिए। इसके पहले भी नक्सलियों ने अनेक हत्याएँ की हैं, उसका क्या कारण बताएँगे? कुल मिलाकर हत्याओं के लिए बहाने चाहिए। लोग तंग आ चुके हैं। इसीलिए अब आमजन मांग करने लगे हैं कि बस्तर में सेना बुलानी चाहिए। वह दिन दुर्भाग्यपूर्ण ही होगा,जब बस्तर में सेना का प्रवेश होगा। सेना आग की तरह फैलेगी और बहुत कुछ नष्ट होगा। नक्सली भी समझ लें कि वे साफ होंगे ही, और बहुत-से आम नागरिक भी चपेट में आ जाएँगे। अब यह बात समझ में भी तो आए, फिलहाल इस आहत समय से हर कोई उबरना चाहता है।
गाय बर्बाद, मटन मार्केट आबाद..?
मटन... आमजीवन में बटन की तरह जरूरी हो गया है। गाय पालने वाले शहर से बाहर भेज दिए गए हैं मगर माँस बेचनेवालों को शहर में सुव्यवस्थित करने की काशिशें हो रही हैं। कुछ अंिहसा प्रेमी इस दृश्य को देख कर चकित हैं। गौ पालन से गंदगी होती है तो क्या माँस के व्यापार से शहर का माहौल शुद्ध हो जाता है? जहाँ माँस कटता है, वहाँ जाकर तो देखें। किस तरह से बदबू फैली रहती है। गंदगी का कैसा आलम रहता है। गाय के गोबर और मूत्र से तो खाद बनती है। गाय आक्सीजन छोड़ती है। वातावरण को शुद्ध बनाने में गाय की बड़ी भूमिका होती है। मगर राजधानी में उल्टा हो रहा है। गायें बाहर भेजी जा रही हैं और शहर में माँस के व्यापार के लिए सुविधाएँ दी जा रही हैं। आखिर क्यों? शायद इसीलिए कि अब माँस खाने और दारू पीने वाले बढ़ रहे हैं और दूध पीने वाले कम होते जा रहे हैं? 
 गजगामिनी की तरह चलते सरकारी काम
सरकारी काम भी नौ दिन चले अढ़ाई कोस की तरह चलते रहते हैं। धीरे-धीरे, हौल-हौले। इसे  ही कहते हैं हाथी-चाल। जो काम समय पर हो सकते हैं, उन्हें लम्बा खींचने के पीछे  एक ही कारण होता है, कमाई...ऊपरी कमाई। जितने दिन काम होता है, उतने दिन तक कमाई का सिलसिला बना रहता है। मिलजुल कर खाने का भी अपना सुख होता है। लेकिन कुछ लोगों के इस सुखार्जन के कारण लोग दुखी हो जाते हैं। शहर में बनने वाले अधिकांश पुल अपने निर्माण की अवधि पार कर चुके हैं। काम चल ही रहा है। लोगों को आना-जाना प्रभावित होता है। लोग आंदोलन करते हैं। धरना देते हैं। लेकिन व्यवस्था को कोई फर्क नहीं पड़ता। वह अपने हिसाब से चलती है। तभी तो वह व्यवस्था है। निर्माण कार्य में लगे लोगों को शहर की सुविधाओं का ख्याल रहना चाहिए, आखिर वे भी नागरिक हैं। लेकिन इतनी बात वे समझ लेते तो लोग परेशान ही क्यों होते?
महँगाई पर घमासान
महँगाई एक मुद्दा है। जिस पर अभी भाजपा गर्म है तो काँग्रेस भी। दोनों तरफ से बयानबाजी चल रही है। अभी भाजपा की सुषमा स्वराज राजधानी आई थीं। उनके नेतृत्व में भाजपा ने धरना दिया। फिर भाकपा का भारत बंद। अब काँग्रेस की छवि का सवाल है तो वह भाजपा पर पिल पड़ी है। उसे भी कुछ कर के दिखाना होगा। इसलिए उनके नेता भाजपा पर आरोप लगा रहे हैं, कि वह धरना-प्रदर्शन करके लाखों रुपए खर्च कर रही है। यह पैसे की बर्बादी है। अरे भाई प्रदेश भर से लोग आएँगे तो क्या उनके लिए कुछ व्यवस्था ही न हो। बरसात का मौसम है। अगर पानी से बचने की व्यवस्था कर ली गई तो इसे फिजूलखर्ची नहीं कहा जा सकता। सच्चाई तो यही है कि काँग्रेसी भी बेचारे असहज महसूस कर रहे हैं। पेट्रोल,डीजल और यहाँ तक कि केरोसीन के भाव बढ़ गए। इसका असर तो हर चीज पर दीख रहा है।  काँगे्रसी बेबस हैं। करें तो क्या करें?
और चलते-चलते..
डीजीपी के बयान से बवाल....
छत्तीसगढ़ के डीजीपी विश्वरंजन कवि भी हैं। लोग यह मान कर चलते हैं, कि वे एक लेखक हैं, तो संतुलित व्यवहार करेंगे। लेकिन नक्सली हिंसा के कारण उनका तनाव कुछ ज्यादा  बढ़ गया है इसलिए उनके बयानों पर असर पडऩे लगा है। फिर भी उन्हें धैर्य से काम लेना चाहिए। ऐसा लोगों का कहना है। आखिर वे पुलिस के मुखिया है। पिछले दिनों उन्होंने सीआरपीएफ वालों के लिए कह दिया कि हम उन्हें चलना थोड़े न सिखाएँगे। फिर मीडियावाले बात करना चाह रहे थे, तो वे बोले, नहीं, मैं पहले सिगरेट पीऊँगा। लोगों को आश्चर्य हुआ कि ये क्या हो रहा है। इसके पहले भी डीजीपी महोदय अपने बयानों के कारण सुर्खियों में रहे हैं। बहरहाल, सीआरपीएफ के खिलाफ डीजीपी के बयान को गृह मंत्रालय ने गंभीरता से लिया है। वह नाराज है। डीजीपी की संवेदनशीलता के अनेक उदाहरण भी हैं लेकिन इस बार उनके एक-दो बयान नकारात्मक नंबर वाले हो गए। उनके चहेते लोग यही चाहते हैं, कि भविष्य में फूँक-फूँकर चलें, संभल-संभल कर बोलें ताकि वे विश्वरंजन ही रहें, लोग उन्हें विवादरंजन न बनाएँ।

शनिवार, 26 जून 2010

छ्त्तीसगढ़ की डायरी

छत्तीसगढ़ में नम्बर दो के पैसेवाले नेताओं की बाढ़....
छत्तीसगढ़ में पैसे वाले नेताओं की बाढ़-सी आई है। और लोगबाग कहते हैं,कि यह ठीक भी है। राजनीति अब निर्धनों की चीज भी नहीं रही। बिन पैसा सब सून। अनेक राजनीतिक दलों में धनपतियों की संख्या बढ़ रही है। सामान्य कार्यकर्ता इनके जिंदाबाद में लगा रहता है। इसलिए अब पैसेवाले अनेक नेता धंधे के साथ-साथ राजनीति भी कर रहे हैं। इसका फायदा पार्टी को और बड़े नेताओं को मिलता है। कुछ निर्धन कार्यकर्ताओं का भी भला हो जाता है। बिना फायनेंस के अब कोई काम सधता नहीं। राजनीति भी ऐसा काम है,जहाँ पैसा लगता है। या यूँ कहें कि लोग इन्वेस्ट करते हैं। जैसे धंधे में किया जाता है। पहले राजनीति खाली पेट और खाली जेब से भी होती थी। इसलिए यह जरूरी है, कि अब पेट भरा हो और जेब भी। तब देखिए, कितनी जोरों से नारे लगते हैं। पिछले दिनों लोगों ने यही देखा। राजधानी में जब महंगाई विरोधी रैली निकली तो इसमें अनेक भयंकर धनवान नेता भी शामिल हुए जिनका महंगाई से दूर-दूर तक कोई संबंध नहीं रहा।  इस दृश्य को लोगों ने एक प्रहसन की तरह भी लिया। दुखी जनता का मनोरंजन ऐसी घटनाएँ करती रहती हैं.
छत्तीसगढ़ की शान, ये धनवान...
जी हाँ, छत्तीसगढ़ की शान बनते जा रहे हैं यहाँ के धनवान। और इसमें शामिल हो रहे हैं, यहाँ के प्रशासनिक अफसर, रेलवे के बड़े अफसर, बिल्डरर्स, फायनेंसर, व्यापारी और नेता आदि-आदि। इन सब लोगों के घर लगातार छापे पड़ रहे हैं और करोड़ों की अघोषित संपत्ति सामने आ रही है। अब ग्लोबल मीडिया का दौर है। कोई भी बड़ी खबर देखते ही देखते दूर-दूर तक फैल जाती है। अभी कुछ दिनों से रायपुर में आयकर छापों का सिलसिला जारी है। बाहर रहने वाले लोग छत्तीसगढ़ फोन करके बधाइयाँ दे रहे हैं,कि भाई, छत्तीसगढ़ में तो बड़ी दौलत है। नक्सल समस्या तो खैर अपनी जगह है लेकिन यह धनवालों की भी भरमार है। कौन कहता है, कि छत्तीसगढ़ गरीब है। अमीर धरती में अब अमीर लोग बढ़ रहे हैं। अब बाहर वालों को यह बात कौन समझाए कि यह कमाई उन गरीबों के जेब से ही निकल कर तिजोरियों तक पहुँच रही है, जिसके हिस्से केवल यही एक नारा बचा है-छत्तीसगढिय़ा, सबले बढिय़ा।
नक्सलगीरी के विरुद्ध विकास की लड़ाई
यह बहुत जरूरी है कि विनाश के विरुद्ध विकास का ढाँचा खड़ा किया जाए। बस्तर में नक्सलगीरी के चलते काफी बर्बादी हुई है। जन-धन और अमन-चैन की भयंकर हानि हुई है। इसकी भरपाई बंदूकें कभी भी नहीं कर सकतीं। केवल विकास योजनाएँ और विकास कार्य ही क्षतिपूर्ति कर सकते हैं। योजना आयोग ने अभी हाल ही में नक्सल प्रभावित क्षेत्रों के लिए करोड़ों की विकास योजनाएँ मंजूर की हैं। छत्तीसगढ़ सरकार ने भी बस्तर के लिए जरूरी प्रकल्पों का प्रारूप तैयार कर लिया है। अब विनाश से निपटने के लिए विकास की गंगा बहनी चाहिए। ऐसा करके ही हम नक्सलगीरी का मुँहतोड़ जवाब दे सकते हैं। हिंसा को हिंसा से दबाने की कोशिश अपनी जगह हो सकती है, लेकिन हिंसा और विनाश से मुकाबला करने के लिए विकास योजनाएँ ज्यादा ारगर हो सकती हैं। बस्तर में जिस ईमानदारी के साथ विकास कार्य होनें थे, नहीं हो सके। अब अगर तंत्र जागा है तो उसका स्वागत होना चाहिए।
एकजुट होते आदिवासी...
आदिवासी अब अपनी महत्ता, अपनी ताकत को समझने लगे हैं इसलिए कभी गोष्ठी करके, कभी सम्मेलन कर के तो कभी रैली निकाल कर अपनी एकजुटता और ताकत का भी प्रदर्शन कर रहे हैं। बहुत हो गया आदिवासियों के साथ दोयम दर्जे का व्यवहार। अब विकास की धारा के साथ बहने का समय आ गया है। आदिवासी भी बेचैन है। बस्तर में उद्योग लगाए जा रहे हैं, लेकिन वहाँ के आदिवासियों के पुनर्वास की दिशा में कोई ध्यान नहीं दिया जाता। यह एक बड़ी समस्या है। उद्योगपतियों की नजर भी आदिवासी क्षेत्रों में लगी रहती है। वे मान कर चलते हैं, कि वहाँ के लोगों को ेबहला-फुसला कर उद्योग लगाए जा सकते हैं। कुछ मामलों में वे सफल भी हुए हैं, लेकिन अब नहीं हो पाएँगे। इसी को बताने आदिवासी एकजुट हो रहे हैं। इसे अच्छे संकेत के रूप में ही देखा जाना चाहिए।
औद्योगिक अशांति का विकल्प
पिछले दिनों राजधानी के पास एक कारखाने में एक मजदूर की मृत्यु हो गई। यह स्वाभाविक था,कि वहाँ कार्यरत कर्मियों में गुस्सा आता। उनके एक साथी की लापरवाही केकारण मौत हो गई। उन्होंने तोडफ़ोड़ कर के भारी नुकसान पहुँचाया। हालांकि  यह नहीं होना चाहिए था। शांति के साथ मुआवजे और अन्य माँगें रखी जा सकती थीं। लेकिन कई बार आक्रोश का फायदा कुछ गलत तत्व उठा लेते हैं। फिर भी उद्योगपतियों को सावधानियाँ बरतनी चाहिए। कारखाने में हादसे के बाद कारखाने के मालिक ने कुछ सकारात्मक निर्णय किए, उससे अच्छा संकेत गया है। मृत व्यक्ति के परविार को मुआवजे के साथ-साथ पत्नी को आजीवन पेंशन और बच्चे को नौकरी देने की घोषणा सराहनीय है। निजी क्षेत्रों में इसी तरह के निर्णय लिए जाने चाहिए। औद्योगिक अशांति से निपटने का एक यही विक्लप है जिसकी अब शुरूआत हुई है। श्रमिकों की एकजुटता और समाजिक दबाव के कारण भी ऐसा हुआ है।
फिर गौमाता की बात..
यह स्तंभकार अकसर गो माता की दुर्दशा पर लिखता ही रहा है क्योंकि मीडिया वातावरण बनाने का काम करता है। गाय कोअगर हम माँ का दर्जा देते हैं तो उसके साथ वैसा कुछ व्यवहार करके भी दिखाना चाहिए। यह सुखद संकेत है कि प्रदेश के राज्यपाल भी गौ माता की चिंता करते हुए उसकी सेवा की अपील कर रहे हैं। पिछले दिनों राज्यपाल महोदय एक धार्मिक कार्यक्रम में गए और वहाँ उपस्थित श्रद्धालुओं से यही अपील की कि गौ माता की रक्षा करें। उसे भरपूर चारा-सानी दे। राज्यपाल की अपील सामयिक है। गौपालक दूध बेचकर कमाई में तो काफी आगे रहता है मगर गाय की देखरेख वह शहर के भरोसे छोड़ देता है। यही कारण है कि बहुत-सी गायें राजधानी में इधर-उधर भटकती नजर आती हैं। किसी न किसी मुक्कड़ में गायें कचरे को खंगालती मिल जाएँगी। गो पालक को पता नहीं शर्म आती है, कि नहीं, मगर राज्यपाल महोदय को दुख जरूर हुआ, इसीलिए उनको अपील करनी पड़ी।

शुक्रवार, 18 जून 2010

छ्त्तीसगढ़ की डायरी

समाजसेवियों का नक्सल-प्रेम ?
नक्सलियों के पक्ष में हो जाना एक तरह का बौद्धिक फैशन-सा बन गया है। दिल्ली से लेकर रायपुर तक पहुत से बुद्धिजीवियों ने नक्सलियों के प्रति बड़ी सहानुभूति दिखाई देती हैं। इसका एक कारण यह है कि बुद्धिजीवी सामाजिक परिवर्तन चाहता है और नक्सली भी। लेकिन नक्सलियों का रास्ता हिंसक है इसलिए उनको समाज की मान्यता नहीं मिल पा रही। बुद्धिजीवी सीधे-सीधे नक्सल-समर्थक नहीं हो सकता इसलिए वह अप्रत्यक्ष रूप से खेल करता है। पिछले दिनों दिल्ली में रह कर सामाजिक कार्य करने वाले एक स्वामी रायपुर आए और जेल में बंद एक नक्सली नेता से मिले। इसके कुछ दिन पहले भी ये स्वामी रायपुर की एक शांति सभा में भाषण दे रहे थे। बीच एक उन्होंने एक लाइन यह भी बोली कि आपरेशन ग्रीनहंट बंद होना चाहिए। तभी लोगों का माथा ठनका था। यह ठीक है कि क्यों आदिवासी मरे या नक्सली भी क्यों मरें। सब जीवित रहें, लेकिन इस वक्त जो नक्सलीआम लोगों की निर्मम हत्याएँ कर रहे हैं, तब कोई समाजसेवी आपरेशन ग्रीन हंट बंद करने की बात करता है, तो समझ में आ जाता है, कि यह शख्स हिंसा के पक्ष में खड़ा है। 
पुलिस-बैठकों में राजनीतिक हस्तक्षेप...?
जी हाँ, इन दिनों इस बात को लेकर बहस हो रही है, कि पुलिस वाले जो बैठकें करते हैं, उनमें जनप्रतिनिधियों को बुलाया जाना चाहिए कि नहीं। गृह मंत्री ने पुलिस को आदेश दिया है, कि उनकी बैठकों में निर्वाचित जनप्रतिनिधियों को शामिल किया जाना चाहिए। इनके सुझाव से अपराधों पर नियंत्रण हो सकता है। गृहमंत्री ठीक फरमाते हैं। पुलिस पर दबाव बना रहे, वरना वह निरंकुश हो सकती है। इस दृष्टि से यह बहुत जरूरी है। लेकिन बहस तब शुरू होती है, जब हमंारे कुछ जनप्रतिनिधि अपने अधिकारों का दुुरुपयोग करने की कोशिशें करते हैं। अपराधियों को छुड़वाने की कोशिश एक बड़ा अपराध है। सब नहीं करते लेकिन कुछ नेता ऐसा करते हैं। बस, पुलिस इनकी आड़ में यह प्रचारित करती है, कि हम पर दबाव बनाया जाता है। पुलिस पर दबाव बना ही रहना चाहिए ताकि वह गलत काम न कर सके। लोकतंत्र में पुलिस पर लाके का अंकुश जरूरी है। किसी के साथ अन्याय न हो सके। इस दृष्टि से यह जरूरी है, कि पुलिस और राजनीति का तालमेल बना रहे। पुलिस स्वच्छ सामाजिक छवि के कार्यकर्ताओं को भी अपने साथ जोड़े ताकि उसे दिशा-निर्देश मिलता रहे।
आदिवासी अस्मिता की एकजुटता..
पिछले दिनों राजधानी में आदिवासियों का एक बड़ा सम्मेलन हुआ। किसने कराया, कितने लोग पहुँचे, किसके गुट का था यह सम्मेलन यह कुछ लोगों के लिए चर्चा का हो सकता है,लेकिन यह चर्चा इस बात की होगी कि अब आदिवासी अस्मिता जाग उठी है। खैर, जगी तो पहले भी थी, लेकिन अब वह हस्तक्षेप की स्थिति में भी है। सम्मेलन में पाँचवीं अनुसूची को लागू करने पर जोर दिया गया तो आदिवासियों के लिए आरक्षण बढ़ाने की मांग भी उठी। नक्सल प्रभावित क्षेत्रों से हजारों की संख्या में आदिवासी गायब है, इनका अता-पता नहीं चल रहा है। इस पर भी चिंता व्यक्त की गई। कुल मिला कर आदिवासियों ने अपने विरुद्ध हो रहे व्यवहार को लेकर नाराजगी भी व्यक्त की। यह सिलसिला जारी रहे और आदिवासी समाज राजनीतिज्ञों की हाथ की कठपुतली न बन कर अपने अधिकार के लिए इसी तरह आवाज बुलंद करते रहेतो आदिवासियों का कोई शोषण नहीं कर सकेगा
बस्तर में एक और सत्याग्रह...
गाँधीजी ने आजादी की लड़ाई के दौरान जो प्रयोग किए, वे आज तक अपना असर दिखा रहे हैं। इनमें एक है सत्याग्रह। 19 जून से अमित जोगी अपना सत्याग्रह शुरू कर रहे हैं। अमित पूर्व मुख्यमंत्री अजीत जोगी के पुत्र हैं। इस अभियान से अमित की छवि को निखर सकती है। वे बस्तर की बदहाली के विरुद्ध सत्याग्रह शुरु कर रहे हैं। 19 जून महत्वपूर्ण तारीख है। सौ साल पहले आज ही के दिन महान सेनानी और मसीहा गुंडाधूर के धूमकाल ने आदिवासी अस्मिता को बचाने  के लिए इतिहास रचा था। अमित और उनके एक सौ आठ साथी पच्चीस जून तक दंतेवाड़ा से सुकुमा तक पद यात्रा करेंगे और लोगों से मिल कर नक्सलवाद एवं अन्य समस्याओं के विरुद्ध लोकजागरण का काम करेंगे। यह एक रचनात्मक एवं साहसिक पहल है। ऐसे दौर में जब नक्सलवाद का आतंक है, बस्तर में पदयात्रा करना निसंदेह सराहनीय पहल है।
गायों की तस्करी रोकना जरूरी
छत्तीसगढ़ में गो वध पर रोक है। यहाँ कोई कसाईखाना भी नहीं है। यहाँ गौ सेवा आयोग भी कार्यरत है। फिर भी चोरी-छिपे कुछ शातिर लोग गायों की तस्करी करते रहते हैं। आज भी गायों की तस्करी जारी है। लोग ज्यादा चालाक हो गए हैं। वे पत्थलगाँव और जशपुर आदि क्षेत्रों से गायों को चराते हुए राँची तक ले जाते हैं। फिर ये गायें कसाइयों को सौंप दी जाती हैं। इसलिए यह जरूरी है, कि रायगढ़ जिले की पुलिस और वहाँ काम करने वाले गौ भक्त सतर्क हो कर देखें कि गाय चराने के नाम पर गायों को कहाँ ले जाया जा रहा है। गायों को ट्रक में ले जाने से शक हो जाता है और गायें जब्त कर ली जाती हैं इसलिए गो माफियाओं ने एक रास्ता निकाला है, कि वे गायें चराते हुए सीमा पार कर जाते हैं। भले ही गाय भूखी-प्यासी रहे, उनको क्या फर्क पड़ता है। इसलिए यह जरूरी है कि राज्य की सीमा पर वनोपज की जाँच की तरह यह जाँच भी होनी चाहिए कि जो गायें दूसरी ओर ले जाई जा रही है, वे चराने के लिए ले जाई जा रही है, काटने के लिए।
स्वाद के मारे मनुष्य बेचारे...
स्वाद जो न कराए थोड़ा है। स्वाद के चक्कर में लोग गाय, बकरी, सुअर, मुर्गी, तीतर-बटेर, चूहा और न जाने क्या-क्या हजम कर जाते हैं। अब तो राजधानी के कुछ होटलों में जीव-जंतुओं को व्यंजनों की तरह परोसा जा रहा है। लोग-भाग अब केंकड़े भी स्वाद से खाने लगे हैं। दरअसल मनुष्य प्रयोगधर्मी है। उसे शाकाहार खाते-खाते बोरियत होने लगती है, तो वह मांसाहार की ओर लपकता है। और अपनी फितरत भूल कर माँसाहार चाव से करता है। मानव की इसी कमी का फायदा उठा कर होटल वाले भी एक कदम आगे बढ़ जाते हैं और केकड़े को भी एक डिश की तरह प्रचारित करके परोस देते हैं। बहुत से लोग नाक-भौं सिकोड़ सकते हैं, कि ये भी क्या डिश है। लेकिन नहीं, इस नए दौर में यह भी एक डिश है। इसे खाने के लिए लोग घर का स्वादिष्ट खाना छोड़ कर होटलों या ढाबों की ओर भागते हैं।

सुनिए गिरीश पंकज को