मंगलवार, 20 अक्तूबर 2009

सम्मान फिक्सिंग एसोसिएशन...? 
ज़माना फिक्सिंग का है।
वैसे तो री-मिक्सिंग का भी है। क्रिकेट की कोख से निकला फिक्सिंग नामक यह ख़तरनाक  'वायरस' चौतरफा वार कर रहा है। हर कोई शिकार हो रहे हैं इसका। मुझ पर भी इसका असर हुआ है। मैंने भी इस फिक्सिंग से प्रेरणा लेकर एक संस्था बना डाली। नाम रखा- सम्मान फिक्सिंग एसोसिएशन। इसमें मैंने फिक्सिंग शब्द को पर्दे के पीछे ही रखा।
आज हर तरफ सम्मान के भूखे भेडि़ए जीभ लपलपाए खड़े हैं। पैसे देकर सम्मान खरीदने वालों से लेकर अपनी एक अदद आत्मा को बेचकर भी सम्मान पाने के लिए लालायित महान समाज में आप 'सम्मान फिक्सिंग एसोसिएशन' के उज्ज्वल भविष्य की आज सुखद कल्पना कर ही सकते हैं। सो, हमने बना डाली सम्मान फिक्सिंग एसोसिएशन यानी एसएफए। हिंदी में बोले, 'सफिए'। तो इस एस.एफ.ए. उर्फ सफिए की सफलता की कुछ बानगी भी देख लें।
 जैसे भिखारियों की खुशी का ठिकाना नहीं रहता, जब उन्हें पता चलता है, कि कहीं कोई भंडारा हो रहा है। उसी तरह जैसे ही शहर के सम्मान के भूखे भेडिय़ों को पता चला, कि कोई संस्था बनी है, जो सिर्फ सम्मान करती है, तो उनके मन में संस्था के प्रति सम्मान का भाव जागा। कुछ लोग हाँफते-हाँफते हमारे पास पहुँचे।
एक सज्जन मेरे सामने प्रकट भये तो वे हाँफ रहे थे। मैंने चालू टाइप के बिजनेसमेन की तरह उन्हें ठंडा पिलाया ताकि अगले को ठीक ढंग से मूड़ लिया जाये। मैंने व्यावसायिक मुसकान फेंकते हुए पूछा- ''तो आप अपना सम्मान कराना चाहते हैं?''
''जी हाँ, जोर की लगी है। जल्द से जल्द करा दें। कृपा होगी!''
''देखिए, जल्दी का काम शैतान का होता है। हमारी संस्था सम्मान करती है, लेकिन आराम से। हड़बड़ी में सम्मान- सम्मान नहीं, अपमान लगने लगता है।'' मेरी बात सुनकर सज्जन बोले- ''ठीक है, जैसी आपकी मर्जी। लेकिन सम्मान जरा धाँसू होना चाहिए।'' मैंने कुटिल मुसकान बिखरते हुए कहा- ''तुसी चिंता मत करो जी, बड़ा ही धाँसू ही होगा। इतना धाँसू, कि आपके आँसू निकल आएँगे। जितनी शक्कर डालोगे, उतनी ही मिठास पाओगे।''
''क्या मतलब?''
''मतलब ये कि जितना खर्चा करोगे, उतना अच्छा, और उतना स्तरीय सम्मान होगा।''
''थोड़ा खुलासा करें।''
सज्जन की जिज्ञासा पर कोफ्त तो हुई लेकिन अच्छे धंधेबाज की तरह मुझे ही मन मार कर शाँत रहना पड़ा। उल्टे नकली मुसकान का मुखौटा पहने हुए समझाना पड़ा-
 ''देखिए, हम लोग राष्टपति से लेकर महापौर तक के हाथों आपका सम्मान करवा सकते हैं, लेकिन उनके हिसाब से खर्चा भी करना पड़ेगा। अब अगर आप राष्टï्रपति के हाथों सम्मानित होना चाहते हैं, तो उसका रेट सुपर है। देने की अपनी हैसियत हो तो आपको हम अमर कर सकते हैं। आपका जबर्दस्त समान कर डालेंगे। आपका अभिनंदन-पत्र इतना अद्भुत होगा, इतना अद्भुत, कि आप हैरान हो जायेंगे।  हम आपके ऐसे-ऐसे कारनामों का उल्लेख  करेंगे, कि आप खु़द चकरा जाएँगे। याद करते रहे जायेंगे कि ऐसे कारनामे आप ने कब किये थे। बताइये, ऐसा अद्भुत सम्मान समारोह 'अरेंज'  करने के लिए खर्चा भी तो वैसा करना पड़ेगा ना?''
सज्जन इस बार कुछ सहमे। मेरी बात सुनकर कहने लगे- ''लगता है राष्टपति के हाथों सम्मान मेरे बजट में नहीं आ पायेगा। वैसे आपके रेट क्या-क्या हैं?''
मैंने अलग-अलग शख्सियतों से सम्मान के रेट वाली सूची पेश कर दी। उनके तो होश उड़ गये। बोले-
''आपकी सूची को देखकर हाथ-पाँव फूल रहे हैं। महापौर के हाथों से सम्मान का भी जो रेट आपने रखा है, उसे तक मैं दे पाने में असमर्थ हूँ। ग्यारह हजार रूपया होता तो मैं अपना सम्मान समारोह खु़द 'अरेंज' कर लेता। कुछ और कम कीजिये न!''
मैं भड़क गया- ''आप सम्मान करवाने आये हैं, कि सब्जी-भाजी खरीदने? हमारा 'रेट' फिक्स है। अगर आपको परता पड़ता है, तो बोलिये वरना किसी और दूकान में 'ट्राई' कीजिये। नमस्कार। जयहिंद।''
मुझे उखड़ा देखकर सज्जन सकपकाये। वह बोले- ''नहीं-नहीं, ऐसी बात नहीं है जी। किसी न किसी के हाथों तो सम्मान करवाऊँ गा ही। अच्छा, ये तो बताइए, कि अगर मैं किसी पार्षद के हाथों अपना सम्मान करवाना चाहूँ, तो उसका रेट क्या है?''
मैंने खीझ कर कहा- ''देखिये, हमारी संस्था एसएफए केवल महापौर के स्तर का सम्मान समारोह अरेंज करती है। पार्षदों, भूतपूर्व पार्षदों या फिर किसी भी भूतपूर्व के हाथों सम्मान करवाने का काम हमारी कोई ब्राँच नहीं करती है। हाँ, हमने एक संस्था को अपनी फ्रेंचाइज़ी दी हुई है। आप उनके पास चले जाएँ। वहाँ आपको परता पड़ सकता है। मैं समझ सकता हूँ आपकी माली हालत। आप सम्मान भी पाना चाहते हैं और आपकी आर्थिक स्थिति भी उतनी अच्छी नहीं इसलिए आप एस.एफ.ए. की ब्राँच से सम्पर्क करें। वहाँ आपको मिस्टर झंडू पंचारिश्ट जी मिलेंगे। उनको आप अपना बजट बता दें। वे आपकी पूरी मदद करेंगे।''
सम्मान-क्षुधा से ग्रस्त सज्जन खुशी-खुशी चले गए। मैं अपने भावी कार्यक्रमों को अंतिम रूप देने में भिड़ गया।
'सम्मान फिक्सिंग एसोसिएशन' की आड़ में लोगों को 'टोपियाँ' पहनाने की योजना में मैं पूरी तन्मयता से लगा हुआ था। मैं ऐसे लोगों की तलाश कर रहा था, जो सम्मान रूपी प्यास को शांत करने के लिए एक अदद संस्था रूपी जल की तलाश में भटकते हुए मिल जाते हैं। ये लोग जीवन भर यहीच्च करते हैं। सम्मान पाने लायक कुछ भी न कर पाने के बावजूद कहीं-न-कहीं से सम्मान का 'पपलू' फिट कर ही लेते हैं। कुछ लोग चाय-पान-दारू, सिगरेट-फिगरेट आदि पर खर्च करते हैं। इन खर्चे में सम्मान खर्च भी जोड़ लेते हैं। जो चाय-पान की तरह सम्मान करवाना भी एक व्यसन हो। ऐसे लोग पैसे खर्च करते हैं और सम्मान झोंकते हैं। अगर किसी दूसरे सुपात्र का सम्मान भी करवाना हो, तो उसकी राशि भी दे देते हैं। ऐसे लोगों की सूची तैयार करने के साथ-साथ मैं एक-दो ऐसी 'दुरात्माओं' की तलाश में भी था, जो सम्मान-फम्मान की राजनीति से दूर रहकर चुपचाप अपना काम करते रहते हैं। ऐसे लोग एक तो सम्मान के लिए राजी नहीं होते, और मान लो कभी-कभार राजी हो भी गए तो सम्मान करवाने का पैसा देते नहीं, उल्टे ले लेते हैं। ऐसे ख़तरनाक टाइप के लोगों को 'सम्मान फिक्सिंग एसोसिएशन'  दूर से ही नमस्ते करता है। फिर भी संस्था की छवि बनाने के लिए ऐसे नासपीटों को भी ढूँढऩा पड़ता है।
मैं इन्हीं कामों में भिड़ा था कि एक महानुभाव पधारे। मैं मन ही मन हँसा- मुर्गी फसली ले फसली। प्रकट में धीर-गंभीर चेहरे के साथ बोला- ''हूँ, कहिए, क्या कर सकता हूँ मैं आपके लिए?''
''सम्मान, और क्या'' महानुभाव थोड़ा अक्खड़ टाइप के सम्मानार्थी लगे, ''आपके पास कोई किसलिए आता है? सम्मान फिक्सिंग करवाने के लिए ही न?''
''जी हाँ, जी हाँ। बिल्कुल ठीक फरमाया आपने।'' मैंने अपनी हँसी को दबाते हुए कहा, ''कहिए कब, किसके हाथों सम्मान करवाना चाहते हैं आप?''
''मुख्यमंत्री के हाथों।'' महानुभाव बोले, ''मुख्यमंत्री आते हैं तो अखबारों में समाचार विस्तार के साथ छपता है।''
आदमी चालू टाइप का लगा। इस पट्ठे को तो सारी तिकड़म मालूम है। मैंने मन ही मन सोचा।
''वो सब तो ठीक है, लेकिन काफी पैसे खर्च करने होंगे।' मैंने कहा, ''मुख्यमंत्री के पास जाना होगा, उनसे टाइम फिक्स करना पड़ेगा। फिर कार्यक्रम की तैयारी, भीड़ जुटाने की चिंता, स्मृति-चिन्ह, शाल आदि में खर्चा। सोच लीजिए पचासेक हजार का खर्चा तो आ ही जाएगा।''
''बस?' महानुभाव बोले, ''पचास हजार तो बड़ी छोटी रकम है। मैं एक लाख तक खर्च करने के मूड में था। खैर, पैसे बचे। अच्छा ये बताइए, भीड़ तो अच्छी-खासी जमा होगी न? मुझे भीड़ चाहिए। पिछली बार एक संस्था को पैसे दिये थे। सालों के कार्यक्रम में दस लोग भी जमा नहीं हुए थे और मेरा दस हजार खर्च हो गया था।''
मैंने कुशल व्यवसायी की तरह कहा, ''आप चिंता मत कीजिए। अगर हमारे कार्यक्रम में मुख्यमंत्री आ गए तो देख लेना, जिस हाल में कार्यक्रम करेंगे, वह खचाखच भरा रहेगा।''
''हाल सौ दो सौ लोगों वाला तो नहीं होगा?''
''अरे नहीं साहब, कम से कम दो हजार लोगों की क्षमता वाला होगा। अच्छा, ये तो बताइए अभिनंदन का प्रारूप आप देंगे कि हम लोग तैयार करा लें।''
''जैसी आपकी मर्जी।'' महानुभाव बोले, ''वैसे आप लोग करें तो अच्छा रहेगा। मुझे पता चला है, कि आपके अभिनंदन पत्र बड़े धाँसू किस्म के रहते हैं। जो काम कभी किए ही नहीं गए, उन्हें भी आप कारनामों की सूची में जोड़ देते हैं। आप ही तैयार कीजिए। ऐसा शानदार अभिनंदन-पत्र तैयार करें, कि मुख्यमंत्री खुश होकर मुझे किसी मंडल या निगम का अध्यक्ष ही बना दें।''
''मतलब सम्मान को आप सीढ़ी बनाना चाहते हैं।'' महानुभाव हँस पड़े, बोले- ''आप तो काफी समझदार प्राणी हैं, लेकिन ये तो बताइए, कि क्या मुख्यमंत्री 'सम्मान फिक्सिंग एसोसिएशन' के बैनर तले आने को राजी हो जाएँगे?''
मैंने दाँत निपोरते हुए कहा- ''अरे, हमने कच्ची गोलियाँ नहीं खेली हैं हुजूर। ऐसे बड़े-बड़े नेताओं के पास हम जब जाते हैं तब हमारी संस्था का नाम होता है 'प्रतिभा सम्मान परिषद्Ó। बड़े नेता खुश हो जाते हैं, कि हम प्रतिभाओं को सम्मानित करना चाहते हैं। उन्हें क्या पता कि हम इसकी आड़ में कैसे-कैसे गुल खिला रहे हैं।''
महानुभाव मेरी बातों से प्रभावित हुए। बोले, ''जितनी जल्दी हो सके, सम्मान समारोह आयोजित करें। आत्मा तड़प रही है। महीनों हो गए हैं, प्रायोजित सम्मान पाए। कैसा-कैसा लग रहा है।''
मैंने अपना पुराना जुमला दुहराया- ''देखिए, जल्दबाज़ी शैतान लोग करते हैं। हम अपने बड़े आयोजन आराम से करते हैं। वैसे छोटा-मोटा सम्मान तो कल-परसों ही होने वाला है।''
महानुभाव बोले- ''तो फिलहाल छोटा-मोटा ही कर दें। माहौल तो बना रहे। इसका कितना रेट है?''
''देखिए, फिलहाल हम महापौर के हाथों आपका सम्मान कराएंगे। इसका ग्यारह हजार रेट है।''
''बस, ग्यारह हजार? ये लीजिए।'' महानुभाव ने फौरन ग्यारह हजार का चेक काट दिया।
 मैं उन्हें देखता रह गया।

गिरीश पंकज  

रविवार, 11 अक्तूबर 2009


इन्वेस्ट कम और पुण्य ज्यादा..?

समाजसेवी सेठों को देखता हूँ, तो अकसर बड़ी प्रेरणा मिलती है: चालाकी सीखने की। कुछ धनवान बड़े चालाक होते हैं। इतने चालाक, कि ऊपरवाले को भी गच्चा दे कर अपने लिए स्वर्ग बुक कर लेते हैं।
उस दिन एक धनवान मिल गए। घर के बाहर मिट्टी के बड़े-से कटोरे (सकोरा) में पानी डाल रहे थे। मैंने पूछा-ये किसलिए, तो कहने लगे, प्यासे पक्षियों के लिए। देखिए , कितनी गरमी पड़ रही है।
मैंने चौंकते हुए पूछा- अरे, क्या शहर के सारे नदी-तालाब सूख गए हैं कि चिडिय़ों के पीने लायक जल भी नहीं बचा?
सेठजी बोले- ऐसी बात नहीं। नदी-नाले-तालाब तो बचे हैं, फिर भी सोचता हूँ, कि सकोरे में पानी रख देने से पक्षियों को सुविधा होगी। बेचारे कहाँ-कहाँ भटकते फिरेंगे? यहीं पी लेंगे। मैंने मुसकराते हुए कहा- महोदय, पक्षी अपनी व्यवस्था कर लेते हैं। आज से नहीं, जब से सृष्टिï बनी है, तब से वे अपनी व्यवस्था करते चले रहे हैं। ऊपरवाला उनके दाना-पानी की चिंता कर लेता है। आप तो इनसानों के लिए कुछ करो। लोग पानी के लिए तरस रहे हैं। आप एक प्याऊ की व्यवस्था क्यों नहीं कर देते? तब पक्षी भी आकर प्यास बुझा लिया करेंगे। एक पंथ दो काज हो जाएगा।
ऊँची रकम के रूप में चर्चित सेठ जी मुसकराते हुए बोले- बात तो ठीक है भाया, लेकिन प्याऊ के लिए बड़ी रकम चाहिए। आप तो मुझे चूना लगाने में तुल गए हैं। प्याऊ खोलने में हजारों का खर्च और एक सकोरा खरीदने में पाँच रुपइये का खर्चा? जब दोनों ही स्थितियों में पुण्य मिलता है, तो घाटे का सौदा क्यों करें? पाँच रुपए खर्च कर के ही पुण्य कमाने में क्या बुराई है?
मैंने सेठ के चिंतन को प्रणाम किया। वाह, क्या आइडिया है सर जी। मैं भी धार्मिक और पुण्यात्मा बनना चाहता हूँ। कुछ और टिप्स दें। सेठ जी ने एक और आइडिया दिया। कहने लगे, मंदिर में एकाध पाव परसादी चढ़ाओ और ईश्वर की तरफ एक-दो रुपए का सिक्का उछाल दो, फिर झोंक लो पुण्य। गरीबों को फल खरीद कर बाँटो। लेकिन ऐसे फल जो एक किलों में ढेर सारे चढ़ जाते हों। मिठाई भी ऐसी खरीदो जो एक किलो में बहुत-सी चढ़ती हो। नारियल और चिंरौंजीदाना भी ठीक रहता है। इन्हें थोड़ा-थोड़ा करके बाँट दो बहुत-से गरीबों में। जितने गरीब, उतनी दुआएँ। स्वर्ग पक्का। जय हो।
लेकिन प्याऊ खोलने से बड़ा स्वर्ग मिल सकता है। मैं प्याऊ पर अटका हुआ था। मेरी बात सुनकर सेठ जी हँसे- स्वर्ग स्वर्ग होता है। मुंबई की तरह। वहाँ छोटा-सा टुकड़ा भी मिल जाए तो बहुत है। प्याऊ खोलने में कितने लफड़े हैं। अपना बजट गड़बड़ा जाएगा। परिवार सड़क पर जाएगा इसलिए चिडिय़ों के पानी का बंदोबस्त करो और पुण्य लूटो। यह सस्ता, सुंदर और टिकाऊ तरीका है। इनसानों या जानवरों के लिए प्याऊ की बात सोचना भी पाप है। हम लोग तो बनिये हैं। यही देखते रहते हैं, कि कम इन्वेस्ट करके अधिक से अधिक इंकम कैसे गेन करें। हमें पक्षियों को पानी पिलाने वाला रास्ता आसान लगा। ऊपर वाला बड़ा दयालु है। पक्षियों को पानी पिलाने के एवज में भी बहुत खुश होगा, शाबाशी देगा और गब्बर सिंह टाइप के लोगों को भी सीधे स्वर्ग बुला लेगा।
सेठ ने मुझे राह दिखा दी। सेठ करोड़पति। प्याऊ खोल सकता है, लेकिन नहीं खोल रहा। फिर भी स्वर्ग जाएगा। मैं फकीरपति, चाह कर भी प्याऊ नहीं खोल सकता लेकिन सेठ की बराबरी तो कर ही सकता हूँ। पक्षियों को पिलाने के लिए पाँच रुपए का सकोरा तो खरीद ही सकता हूँ। अपन भी स्वर्ग जाएंगे। आखिर हमने कौन-सा अपराध किया है? पक्षियों को पानी पिलाएँगे तो पड़ोसी भी सोचेंगे, कि भयंकर दयावान है। इसे कहते हैं, हींग लगे फिटकरी और रंग चोखा। जब कभी मुझे दान-पुन्य का कोई सस्ता, सुंदर और टिकाऊ आइडिया नहीं सूझता, तो किसी सेठ को पकड़ लेता हूँ। हे स्वर्गाभिलाषियो, आप भी सेठों की तरह पुण्य कमाएँ और अपने लिए स्वर्ग-लोक की एडवांस बुकिंग कर लें। बस, पाँच रुपए का तो सवाल है।

-गिरीश पंकज

सुनिए गिरीश पंकज को