शनिवार, 26 जून 2010

छ्त्तीसगढ़ की डायरी

छत्तीसगढ़ में नम्बर दो के पैसेवाले नेताओं की बाढ़....
छत्तीसगढ़ में पैसे वाले नेताओं की बाढ़-सी आई है। और लोगबाग कहते हैं,कि यह ठीक भी है। राजनीति अब निर्धनों की चीज भी नहीं रही। बिन पैसा सब सून। अनेक राजनीतिक दलों में धनपतियों की संख्या बढ़ रही है। सामान्य कार्यकर्ता इनके जिंदाबाद में लगा रहता है। इसलिए अब पैसेवाले अनेक नेता धंधे के साथ-साथ राजनीति भी कर रहे हैं। इसका फायदा पार्टी को और बड़े नेताओं को मिलता है। कुछ निर्धन कार्यकर्ताओं का भी भला हो जाता है। बिना फायनेंस के अब कोई काम सधता नहीं। राजनीति भी ऐसा काम है,जहाँ पैसा लगता है। या यूँ कहें कि लोग इन्वेस्ट करते हैं। जैसे धंधे में किया जाता है। पहले राजनीति खाली पेट और खाली जेब से भी होती थी। इसलिए यह जरूरी है, कि अब पेट भरा हो और जेब भी। तब देखिए, कितनी जोरों से नारे लगते हैं। पिछले दिनों लोगों ने यही देखा। राजधानी में जब महंगाई विरोधी रैली निकली तो इसमें अनेक भयंकर धनवान नेता भी शामिल हुए जिनका महंगाई से दूर-दूर तक कोई संबंध नहीं रहा।  इस दृश्य को लोगों ने एक प्रहसन की तरह भी लिया। दुखी जनता का मनोरंजन ऐसी घटनाएँ करती रहती हैं.
छत्तीसगढ़ की शान, ये धनवान...
जी हाँ, छत्तीसगढ़ की शान बनते जा रहे हैं यहाँ के धनवान। और इसमें शामिल हो रहे हैं, यहाँ के प्रशासनिक अफसर, रेलवे के बड़े अफसर, बिल्डरर्स, फायनेंसर, व्यापारी और नेता आदि-आदि। इन सब लोगों के घर लगातार छापे पड़ रहे हैं और करोड़ों की अघोषित संपत्ति सामने आ रही है। अब ग्लोबल मीडिया का दौर है। कोई भी बड़ी खबर देखते ही देखते दूर-दूर तक फैल जाती है। अभी कुछ दिनों से रायपुर में आयकर छापों का सिलसिला जारी है। बाहर रहने वाले लोग छत्तीसगढ़ फोन करके बधाइयाँ दे रहे हैं,कि भाई, छत्तीसगढ़ में तो बड़ी दौलत है। नक्सल समस्या तो खैर अपनी जगह है लेकिन यह धनवालों की भी भरमार है। कौन कहता है, कि छत्तीसगढ़ गरीब है। अमीर धरती में अब अमीर लोग बढ़ रहे हैं। अब बाहर वालों को यह बात कौन समझाए कि यह कमाई उन गरीबों के जेब से ही निकल कर तिजोरियों तक पहुँच रही है, जिसके हिस्से केवल यही एक नारा बचा है-छत्तीसगढिय़ा, सबले बढिय़ा।
नक्सलगीरी के विरुद्ध विकास की लड़ाई
यह बहुत जरूरी है कि विनाश के विरुद्ध विकास का ढाँचा खड़ा किया जाए। बस्तर में नक्सलगीरी के चलते काफी बर्बादी हुई है। जन-धन और अमन-चैन की भयंकर हानि हुई है। इसकी भरपाई बंदूकें कभी भी नहीं कर सकतीं। केवल विकास योजनाएँ और विकास कार्य ही क्षतिपूर्ति कर सकते हैं। योजना आयोग ने अभी हाल ही में नक्सल प्रभावित क्षेत्रों के लिए करोड़ों की विकास योजनाएँ मंजूर की हैं। छत्तीसगढ़ सरकार ने भी बस्तर के लिए जरूरी प्रकल्पों का प्रारूप तैयार कर लिया है। अब विनाश से निपटने के लिए विकास की गंगा बहनी चाहिए। ऐसा करके ही हम नक्सलगीरी का मुँहतोड़ जवाब दे सकते हैं। हिंसा को हिंसा से दबाने की कोशिश अपनी जगह हो सकती है, लेकिन हिंसा और विनाश से मुकाबला करने के लिए विकास योजनाएँ ज्यादा ारगर हो सकती हैं। बस्तर में जिस ईमानदारी के साथ विकास कार्य होनें थे, नहीं हो सके। अब अगर तंत्र जागा है तो उसका स्वागत होना चाहिए।
एकजुट होते आदिवासी...
आदिवासी अब अपनी महत्ता, अपनी ताकत को समझने लगे हैं इसलिए कभी गोष्ठी करके, कभी सम्मेलन कर के तो कभी रैली निकाल कर अपनी एकजुटता और ताकत का भी प्रदर्शन कर रहे हैं। बहुत हो गया आदिवासियों के साथ दोयम दर्जे का व्यवहार। अब विकास की धारा के साथ बहने का समय आ गया है। आदिवासी भी बेचैन है। बस्तर में उद्योग लगाए जा रहे हैं, लेकिन वहाँ के आदिवासियों के पुनर्वास की दिशा में कोई ध्यान नहीं दिया जाता। यह एक बड़ी समस्या है। उद्योगपतियों की नजर भी आदिवासी क्षेत्रों में लगी रहती है। वे मान कर चलते हैं, कि वहाँ के लोगों को ेबहला-फुसला कर उद्योग लगाए जा सकते हैं। कुछ मामलों में वे सफल भी हुए हैं, लेकिन अब नहीं हो पाएँगे। इसी को बताने आदिवासी एकजुट हो रहे हैं। इसे अच्छे संकेत के रूप में ही देखा जाना चाहिए।
औद्योगिक अशांति का विकल्प
पिछले दिनों राजधानी के पास एक कारखाने में एक मजदूर की मृत्यु हो गई। यह स्वाभाविक था,कि वहाँ कार्यरत कर्मियों में गुस्सा आता। उनके एक साथी की लापरवाही केकारण मौत हो गई। उन्होंने तोडफ़ोड़ कर के भारी नुकसान पहुँचाया। हालांकि  यह नहीं होना चाहिए था। शांति के साथ मुआवजे और अन्य माँगें रखी जा सकती थीं। लेकिन कई बार आक्रोश का फायदा कुछ गलत तत्व उठा लेते हैं। फिर भी उद्योगपतियों को सावधानियाँ बरतनी चाहिए। कारखाने में हादसे के बाद कारखाने के मालिक ने कुछ सकारात्मक निर्णय किए, उससे अच्छा संकेत गया है। मृत व्यक्ति के परविार को मुआवजे के साथ-साथ पत्नी को आजीवन पेंशन और बच्चे को नौकरी देने की घोषणा सराहनीय है। निजी क्षेत्रों में इसी तरह के निर्णय लिए जाने चाहिए। औद्योगिक अशांति से निपटने का एक यही विक्लप है जिसकी अब शुरूआत हुई है। श्रमिकों की एकजुटता और समाजिक दबाव के कारण भी ऐसा हुआ है।
फिर गौमाता की बात..
यह स्तंभकार अकसर गो माता की दुर्दशा पर लिखता ही रहा है क्योंकि मीडिया वातावरण बनाने का काम करता है। गाय कोअगर हम माँ का दर्जा देते हैं तो उसके साथ वैसा कुछ व्यवहार करके भी दिखाना चाहिए। यह सुखद संकेत है कि प्रदेश के राज्यपाल भी गौ माता की चिंता करते हुए उसकी सेवा की अपील कर रहे हैं। पिछले दिनों राज्यपाल महोदय एक धार्मिक कार्यक्रम में गए और वहाँ उपस्थित श्रद्धालुओं से यही अपील की कि गौ माता की रक्षा करें। उसे भरपूर चारा-सानी दे। राज्यपाल की अपील सामयिक है। गौपालक दूध बेचकर कमाई में तो काफी आगे रहता है मगर गाय की देखरेख वह शहर के भरोसे छोड़ देता है। यही कारण है कि बहुत-सी गायें राजधानी में इधर-उधर भटकती नजर आती हैं। किसी न किसी मुक्कड़ में गायें कचरे को खंगालती मिल जाएँगी। गो पालक को पता नहीं शर्म आती है, कि नहीं, मगर राज्यपाल महोदय को दुख जरूर हुआ, इसीलिए उनको अपील करनी पड़ी।

शुक्रवार, 18 जून 2010

छ्त्तीसगढ़ की डायरी

समाजसेवियों का नक्सल-प्रेम ?
नक्सलियों के पक्ष में हो जाना एक तरह का बौद्धिक फैशन-सा बन गया है। दिल्ली से लेकर रायपुर तक पहुत से बुद्धिजीवियों ने नक्सलियों के प्रति बड़ी सहानुभूति दिखाई देती हैं। इसका एक कारण यह है कि बुद्धिजीवी सामाजिक परिवर्तन चाहता है और नक्सली भी। लेकिन नक्सलियों का रास्ता हिंसक है इसलिए उनको समाज की मान्यता नहीं मिल पा रही। बुद्धिजीवी सीधे-सीधे नक्सल-समर्थक नहीं हो सकता इसलिए वह अप्रत्यक्ष रूप से खेल करता है। पिछले दिनों दिल्ली में रह कर सामाजिक कार्य करने वाले एक स्वामी रायपुर आए और जेल में बंद एक नक्सली नेता से मिले। इसके कुछ दिन पहले भी ये स्वामी रायपुर की एक शांति सभा में भाषण दे रहे थे। बीच एक उन्होंने एक लाइन यह भी बोली कि आपरेशन ग्रीनहंट बंद होना चाहिए। तभी लोगों का माथा ठनका था। यह ठीक है कि क्यों आदिवासी मरे या नक्सली भी क्यों मरें। सब जीवित रहें, लेकिन इस वक्त जो नक्सलीआम लोगों की निर्मम हत्याएँ कर रहे हैं, तब कोई समाजसेवी आपरेशन ग्रीन हंट बंद करने की बात करता है, तो समझ में आ जाता है, कि यह शख्स हिंसा के पक्ष में खड़ा है। 
पुलिस-बैठकों में राजनीतिक हस्तक्षेप...?
जी हाँ, इन दिनों इस बात को लेकर बहस हो रही है, कि पुलिस वाले जो बैठकें करते हैं, उनमें जनप्रतिनिधियों को बुलाया जाना चाहिए कि नहीं। गृह मंत्री ने पुलिस को आदेश दिया है, कि उनकी बैठकों में निर्वाचित जनप्रतिनिधियों को शामिल किया जाना चाहिए। इनके सुझाव से अपराधों पर नियंत्रण हो सकता है। गृहमंत्री ठीक फरमाते हैं। पुलिस पर दबाव बना रहे, वरना वह निरंकुश हो सकती है। इस दृष्टि से यह बहुत जरूरी है। लेकिन बहस तब शुरू होती है, जब हमंारे कुछ जनप्रतिनिधि अपने अधिकारों का दुुरुपयोग करने की कोशिशें करते हैं। अपराधियों को छुड़वाने की कोशिश एक बड़ा अपराध है। सब नहीं करते लेकिन कुछ नेता ऐसा करते हैं। बस, पुलिस इनकी आड़ में यह प्रचारित करती है, कि हम पर दबाव बनाया जाता है। पुलिस पर दबाव बना ही रहना चाहिए ताकि वह गलत काम न कर सके। लोकतंत्र में पुलिस पर लाके का अंकुश जरूरी है। किसी के साथ अन्याय न हो सके। इस दृष्टि से यह जरूरी है, कि पुलिस और राजनीति का तालमेल बना रहे। पुलिस स्वच्छ सामाजिक छवि के कार्यकर्ताओं को भी अपने साथ जोड़े ताकि उसे दिशा-निर्देश मिलता रहे।
आदिवासी अस्मिता की एकजुटता..
पिछले दिनों राजधानी में आदिवासियों का एक बड़ा सम्मेलन हुआ। किसने कराया, कितने लोग पहुँचे, किसके गुट का था यह सम्मेलन यह कुछ लोगों के लिए चर्चा का हो सकता है,लेकिन यह चर्चा इस बात की होगी कि अब आदिवासी अस्मिता जाग उठी है। खैर, जगी तो पहले भी थी, लेकिन अब वह हस्तक्षेप की स्थिति में भी है। सम्मेलन में पाँचवीं अनुसूची को लागू करने पर जोर दिया गया तो आदिवासियों के लिए आरक्षण बढ़ाने की मांग भी उठी। नक्सल प्रभावित क्षेत्रों से हजारों की संख्या में आदिवासी गायब है, इनका अता-पता नहीं चल रहा है। इस पर भी चिंता व्यक्त की गई। कुल मिला कर आदिवासियों ने अपने विरुद्ध हो रहे व्यवहार को लेकर नाराजगी भी व्यक्त की। यह सिलसिला जारी रहे और आदिवासी समाज राजनीतिज्ञों की हाथ की कठपुतली न बन कर अपने अधिकार के लिए इसी तरह आवाज बुलंद करते रहेतो आदिवासियों का कोई शोषण नहीं कर सकेगा
बस्तर में एक और सत्याग्रह...
गाँधीजी ने आजादी की लड़ाई के दौरान जो प्रयोग किए, वे आज तक अपना असर दिखा रहे हैं। इनमें एक है सत्याग्रह। 19 जून से अमित जोगी अपना सत्याग्रह शुरू कर रहे हैं। अमित पूर्व मुख्यमंत्री अजीत जोगी के पुत्र हैं। इस अभियान से अमित की छवि को निखर सकती है। वे बस्तर की बदहाली के विरुद्ध सत्याग्रह शुरु कर रहे हैं। 19 जून महत्वपूर्ण तारीख है। सौ साल पहले आज ही के दिन महान सेनानी और मसीहा गुंडाधूर के धूमकाल ने आदिवासी अस्मिता को बचाने  के लिए इतिहास रचा था। अमित और उनके एक सौ आठ साथी पच्चीस जून तक दंतेवाड़ा से सुकुमा तक पद यात्रा करेंगे और लोगों से मिल कर नक्सलवाद एवं अन्य समस्याओं के विरुद्ध लोकजागरण का काम करेंगे। यह एक रचनात्मक एवं साहसिक पहल है। ऐसे दौर में जब नक्सलवाद का आतंक है, बस्तर में पदयात्रा करना निसंदेह सराहनीय पहल है।
गायों की तस्करी रोकना जरूरी
छत्तीसगढ़ में गो वध पर रोक है। यहाँ कोई कसाईखाना भी नहीं है। यहाँ गौ सेवा आयोग भी कार्यरत है। फिर भी चोरी-छिपे कुछ शातिर लोग गायों की तस्करी करते रहते हैं। आज भी गायों की तस्करी जारी है। लोग ज्यादा चालाक हो गए हैं। वे पत्थलगाँव और जशपुर आदि क्षेत्रों से गायों को चराते हुए राँची तक ले जाते हैं। फिर ये गायें कसाइयों को सौंप दी जाती हैं। इसलिए यह जरूरी है, कि रायगढ़ जिले की पुलिस और वहाँ काम करने वाले गौ भक्त सतर्क हो कर देखें कि गाय चराने के नाम पर गायों को कहाँ ले जाया जा रहा है। गायों को ट्रक में ले जाने से शक हो जाता है और गायें जब्त कर ली जाती हैं इसलिए गो माफियाओं ने एक रास्ता निकाला है, कि वे गायें चराते हुए सीमा पार कर जाते हैं। भले ही गाय भूखी-प्यासी रहे, उनको क्या फर्क पड़ता है। इसलिए यह जरूरी है कि राज्य की सीमा पर वनोपज की जाँच की तरह यह जाँच भी होनी चाहिए कि जो गायें दूसरी ओर ले जाई जा रही है, वे चराने के लिए ले जाई जा रही है, काटने के लिए।
स्वाद के मारे मनुष्य बेचारे...
स्वाद जो न कराए थोड़ा है। स्वाद के चक्कर में लोग गाय, बकरी, सुअर, मुर्गी, तीतर-बटेर, चूहा और न जाने क्या-क्या हजम कर जाते हैं। अब तो राजधानी के कुछ होटलों में जीव-जंतुओं को व्यंजनों की तरह परोसा जा रहा है। लोग-भाग अब केंकड़े भी स्वाद से खाने लगे हैं। दरअसल मनुष्य प्रयोगधर्मी है। उसे शाकाहार खाते-खाते बोरियत होने लगती है, तो वह मांसाहार की ओर लपकता है। और अपनी फितरत भूल कर माँसाहार चाव से करता है। मानव की इसी कमी का फायदा उठा कर होटल वाले भी एक कदम आगे बढ़ जाते हैं और केकड़े को भी एक डिश की तरह प्रचारित करके परोस देते हैं। बहुत से लोग नाक-भौं सिकोड़ सकते हैं, कि ये भी क्या डिश है। लेकिन नहीं, इस नए दौर में यह भी एक डिश है। इसे खाने के लिए लोग घर का स्वादिष्ट खाना छोड़ कर होटलों या ढाबों की ओर भागते हैं।

शनिवार, 12 जून 2010

छ्त्तीसगढ़ की डायरी

सेना के हवाले नहीं होगा बस्तर
बस्तर और अन्य राज्यों के लिए सेना के इस्तेमाल को लेकर आखिर दिल्ली में सहमति नहीं बन पाई। यह निर्णय किया गया, कि पुलिस और अर्ध सैनिक बलों को प्रशिक्षण दिया जाएगा। इस निर्णय की सराहना ही की जानी चाहिए, क्योंकि सेना को बस्तर कोसेना के हवाले करने के बाद जो कुछ होता, वह भी अपने किस्म की एक नई समस्या ही हो जाती, जिसे लेकर अभी पूर्वोत्तर के कुछ राज्य जूझ रहे हैं। दरअसल सेना जब किसी अभियान में उतरती है, तो वह यह नहीं सोचती कि कम से कम नुकसान हो। उसका लक्ष्य तो होता है वह शत्रु, जिसको खलास करने के लिए वह आगे बढ़ती है। फिर रास्ते में कोई दोस्त आया, कि सामान्यजन आए, उससे कोई फर्क नहीं पड़ता: सबका सफाया होता रहता है। इसलिए सेना के इस्तेमाल के पहले सौ बार सोचना चाहिए। बस्तर के लोग राहत की साँस ले रहे हैं, कि सैन्य कार्रवाई टल गई। अब पुलिस बल और अर्ध सैन्यबल प्रशिक्षित हो कर नक्सलियों से मुकाबला करे और बस्तर की शांति बहाल करने के धर्म का निर्वाह करें। यह हमारा आंतरिक मामला है, जिससे निपटने में हमारी पुलिस सक्षम है, लेकिन वह पहले दृढ़ संकल्पित तो हो।
अफसरों के आगे मंत्रियों की नहीं चलती?

आए दिन ऐसी बातें सामने आती रहती हैं। भुक्तभोगी यही चर्चा करते हैं, कि मंत्री ने कह दिया, आदेश कर दिया, लेकिन अफसर ने काम को लटका दिया। बेशक यह सब लोकतंत्र की सेहत के लिए अच्छे लक्षण नहीं हैं। लोग जनप्रतिनिधियों के पास जाते हैं। अपने काम के लिए उनका आदेश ले कर इधर-उधर भटकते रहते हैं, लेकिन महीनों बीत जाने के बाद भी काम नहीं होता। अफसर नियम-कायदे में उलझा देते हैं। जबकि लोकतंत्र में मंत्री का आदेश ही कई बार नियम के रूप में दर्ज हो जाता है। लेकिन यह भी सच है कि जब जनप्रतिनिधि को कोई काम टालना होता है, तो वह अफसरों से साँठगाँठ करके आमजन को बुदधू बनाने का खेल करते हैं। नेता-अफसर एक-दूसरे पर आरोप लगा कर जनता को ठगने का काम करते रहते हैं। यह एक तरह का अपराध है,लेकिन यह अपराध निरंतर जारी है... क्योंकि अंतत: अफसर ही मंत्री पर... भारी है। लोग प्रतीक्षारत है, कि ये शातिर अफसर हल्के पड़ेंगे।
लुटेरे समान की रखवारी करेंगे ...?
सरकार जब पर्यावरण के संरक्षण के लिए उद्योपतियों से अपील करती नजर आती है, तो लोगों को यही लगता है, कि कोई लुटेरों से यह कहे कि भाई, हमारे सामान की हिफाजत करना। जो कारखाने हमारे पर्यावरण की हत्या कर रहे हैं, उनसे अपील करने से बात नहीं बन सकती। उनसे तो निर्देशित और दंडित करने की भाषा ही बोलनी होगी। आज रायपुर,बिलासपुर, कोरबा से लेकर रायगढ़ तक औद्योगीकरण का भयंकर असर देखा जा रहा है। इन इलाकों के साथ अन्य क्षेत्रों में भी पेड़ साफ हो गए, नदियाँ प्रदूषित हो रही हैं। इसलिए अब यह कड़े आदेश जारी हों कि उद्योगपति अपने आसपास पेड़ों की भरमार करे। पेड़ लगाए और उसे संरक्षित करने की जिम्मेदारी ले। वरना यहाँ पर्यावरण अभियान एक फैशन की तरह चलता है। लोग फोटू-शोटू खिंचवा कर अपने कर्तव्य की इतिश्री करने में माहिर हैं।
समाजसेवा के पाखंड को भोगते हुए
समाजसेवा जब दिखावे और अपनी सामाजिक छवि चमकाने का सबब बन जाती है, तब ऐसा ही होता है। दो साल के शिशु के शव को उसके गंतव्य तक पहुँचाने के लिए कोई एंबुलेंस नहीं मिलती क्योंकि शिशु के परिजन के पास पर्याप्त पैसे नहीं होते। पिछले दिनों राजधानी में ऐसा ही हुआ। अंबेडकर अस्पताल में इलाज हेतु लाया गया एक शिशु मर गया। उसे गाँव ले जाना था, लेकिन माता-पिता के पास पाँच रुपए किलोमीटर दर से एंबुलेंस को देने के लिए पैसे ही नहीं थे। आखिर बेचारे बस से ले गए। यह नियम विरुद्ध था, फिर भी करना पड़ा। सामाजिक संस्थाओं का यह दायित्व है कि जब उन्होंने एंबुलेंस सेवा शुरू की है, तो ऐसी स्थिति आने पर वे नि:शुल्क सेवा दें। वरना अपने आप को समाजसेवी कहने का ढोंग न करें। वे साफ-साफ कहें,कि समाजसेवा हमाराधंधा है। जिसे परता पड़े वो आए, वरना नमस्ते... 
जेलों में सत्साहित्य..
गायत्री परिवार देश में युगनिर्माण योजना का काम वर्षों से कर रहा है। उनका नारा सबको अच्छा लगता है-हम बदलेंगे, युग बदलेगा। लोग बदलें या न बदलें, अभियान जारी है। अब गायत्री परिवार ट्रस्ट छत्तीसगढ़ की जेलों में अपना सत्साहित्य पहुँचा रहा है, ताकि वहाँ कैदी इन्हें पढ़ें और अपने जीवन को बेहतर बना कर बाहर निकलें। जेल में कैदी बेहतर बनें और जेल के बाहर रहने वाले अनेक बुराइयों की कैद में रहने वाले सामान्यजन तक भी ऐसे साहित्य को पहुँचाना चाहिए ताकि जेल जाने की नौबत ही क्यों आए। सचमुच इस दौर को भले साहित्य की जरूरत है। फिर चाहे वह लिखित साहित्य हो या फिर टीवी के चैनलों के माध्यम से पहुँचे। जिस तेजी के साथ राजधानी में या छत्तीसगढ़ में अपराध बढ़ रहे हैं, उन्हें देखकर लगता है, कि अब उत्कृष्ट साहित्य के जरिए ही समाज को जागृत किया जा सकता है लेकिन वैसे आधुनिक साहित्य से लोगों को बचाना चाहिए, जो आदमी को आधुनिक बनने के लिए कपड़े उतारने की सलाह देता है।
सुंदरीबाई पर हमें गर्व है..
सरगुजा की सुंदरीबाई ने पूरी दुनिया में अपना और अपने छत्तीसगढ़ का नाम रौशन करने का काम किया है। सुंदरीबाई भित्ति चित्रकला के जरिए छत्तीसगढ़ का नाम रौशन कर रही हैं। अभी उन्होंने फ्रांस में अपनी कला का प्रदर्शन किया। वे जब दीवारों को अपनी कला से जीवंत करती हैं, तो लोग अभिभूत हो जाते हैं। अनेक देशों में सुंदरी ने अपनी कला को पहुँचाया है,लेकिन अफसोस यही है, कि अपनी ही धरती पर उसे पूरा सम्मान नहीं मिला। उनके पहले सोनाबाई ने सरगुजा का सिर ऊँचा किया। उसी परम्परा को सुंदरी आगे बढ़ा रही है। छत्तीसगढ़ में ऐसी अनेक प्रतिभाएँ हैं। इन्हें प्रोत्साहित और संरक्षित करने की जरूरत है। अगर राज्य में ललित कला अकादेमी जैसी संस्था बन जाए तो उसके माध्यम से यहाँ के कलाकारों को आगे बढ़ाया जा सकता है। सुंदरीबाई जैसे लोगों को भरपूर सम्मान (और मानधन भी...) दे कर किसी पद पर बिठाया जाना चाहिए और उनकी देखरेख में भित्तिकला जैसी अनेक कलाओं को लोकव्यापी बनाने की पहल होनी चाहिए। 

शुक्रवार, 4 जून 2010

अरुंधती राय द्वारा खुलेआम हिंसा का समर्थन...?

मैं नक्सलियों और उनकी पैरोकार अरुंधती राय को अब क्या कहूं. दोनो की हरकतों पर रोना ही आता है. पहले नक्सलियों कि बात. इनके कारण पिछले दिनों ज्ञानेश्वरी रेल हादसा हुआ। इस हादसे में छत्तीसगढ़ और अन्य राज्यों के अनेक लोग मारे गए। नक्सलियों ने ट्रेन उड़ाई दी थी। अब कह रहे हैं कि भूल हो गई। माफी दई दो। हम मालगाड़ी को उड़ाना चाहते थे। अब हम खुद ट्रेनों की रक्षा करेंगे। हमें दुख है कि हमारे कारण सैकड़ों लोग मर गए। नक्सलियों की बात सुनकर लोग कह रहे हैं, वाह रे नक्सलियो, तुमने तो बड़ी मासूमियत के साथ खेद व्यक्त कर दिया, लेकिन उन परिवारों की भरपाई कैसे होगी, जिनके परिवार के लोग बेवजह जान गवाँ बैठे? और आखिर ऐसे काम करने ही क्यों जिससे बाद में दुख हो। ये रक्तपात, ये हिंसा,ये ब्लास्ट तुम लोग छोड़ क्यों नहीं देते? और उधर इन लोगों की खैरख्वाह लेखिका अरुंधती राय की हिम्मत देखो। डंके की चोट पर कह रही है, कि मैं नक्सली हिंसा की वकालत करती रहूँगी क्योंकि वर्तमान समय में गाँधीवादी तरीके से समस्याएँ नहीं सुलझ सकती। मुझे भले ही जेल में डाल दो, लेकिन मैं नक्सलियों के साथ हूँ। वाह रे अरुंधती, अकल से पैदल महिला...अगर बुद्धिजीवी भी बुद्धिहीन हो कर हिंसा का साथ देने लगेंगे तो देश का भगवान ही मालिक है। ये कैसा सामाजिक आंदोलन है,जिसमें मासूम बच्चों की भी हत्या कर दी जाती है.
आई पुलिस की जान में जान
रायपुर में पुलिस साइंस काँग्रेस के दो दिवसीय सम्मेलन ने लगता है, पुलिस में नई जान फूँक दी है। सम्मेलन के बहाने यहाँ की पुलिस को राष्ट्रव्यापी सपोट्र्र मिला है। लेकिन ऐसा भी न हो कि राज्य की पुलिस अपनी इस सफलता पर कुप्पा हो जो और केंद्र को ही हड़काने की कोशिश करने लगे। इसे हिम्मत ही कहेंगे न, कि हमारा केंद्रीय गृहमंत्री जो कहते हैं, उसको राज्य की पुलिस गंभीरता से नहीं लेती। राज्य की पुलिस केंद्र को समझा रही है कि वो नक्सली समस्या की गंभीरता को नहीं समझ रहा है। चिदंबर साहब तो हौसला बढ़ाने की कोशिश कर रहे हैं लेकिन यहाँ की पुलिस पहले से ही हौसले में है। अगर यही रफ्तार रही तो केंद्र से हम किस आधार पर मदद माँगेंगे? अकड़ कर बात नहीं हो सकती। केंद्र की अनुशंसाओं को गंभीरतापूर्वक लिया जाना चाहिए, और उन्होंने जो निर्देश दिए हैं, उनके अनुपालन की कोशिश भी होनी चाहिए। जब यह मान लिया गया है, कि नक्सल समस्या राष्ट्रीय समस्या है तो केंद्र की बात सुननी चाहिए। केंद्र के मार्गदर्शन पर चलना ही पड़ेगा। केंद्र तो अब बस्तर में सब एरिया खोलने की मानसिकता भी बना रहा है। ऐसे समय में अगर यहाँ की पुलिस केंद्र को नासमझ करार दे तो यह उचित नहीं।
बाल न बाँका कर सके....
भारतीय प्रशासनिक सेवा के अधिकारियों के बारे में अगर यह बात कही जाए तो गलत न होगा कि अकसर इनका बाल बाँका नहीं होता। भले ही जग बैरी हो जाए। ठीक है कि कभी-कभार ये बेचारे किसी घोटाले में, किसी बड़े भ्रष्टाचार में फँसते न•ार आते हैं, कभी-कभी फँस भी जाते हैं, लेकिन कुछ दिन बाद साफ-साफ बच निकलते हैं। कुछ महीने पहले छत्तीसगढ़ के एक आईएएस अधिकारी बाबूलाल अग्रवाल करोड़ों-अरबों रुपए के भ्रष्टाचार में फँसे, निलंबित भी किए गए लेकिन चार महीने बाद वे बहाल कर दिए गए। तर्क दिया गया कि आयकर विभाग ने पुख्ता दस्तावेज नहीं सौंपे। लोग चर्चा कर रहे हैं, कि आखिर ये पुख्ता दस्तावेज क्या होता है। जो कुछ था, पानी की तरह साफ तो था। कितने सबूत मिले थे। वैसे सरकार कह रही है, कि विभागीय जाँच चलती रहेगी। पता नहीं इस जाँच से इस अधिकारी को कोई आँच आएगी या नहीं लेकिन साँच तो यह है कि इस अधिकारी को राजस्व मंडल का सदस्य बनाया गया है। अब लोग उम्मीद कर रहे हैं कि इनके अनुभव से राज्य के राजस्व में कुछ न कुछ तो इजाफा होगा ही।
गर्भवती गाय की अकाल मौत
गाय की मौत हो जो तो वह कोई खबर नहीं बन पाती। पिछले दिनों एक गर्भवती गाय न्यू पंचशील इलाके में मर गई। सड़क में गहरा अंधेरा था। गाय का दूध पी कर मुटाने वाले गोपालक ने अपनी गाय को यूँ ही आवार घूमने के लिए छोड़ दिया था। खुद तो गाय के लिए चारा-पानी का बंदोबस्त नहीं करते, लोगों की दया पर छोड़ देते हैं। या तो लोग कुछ देदें या गाय कचरे में से कुछ खाने लायक खोज ले। तो ऐसे किसी महान गोपालक की गाय अंधेरे में देख नहीं पायी और एक गहरी नाली में जा गिरी। कुछ लोगोंने उसे जैसे-तैसे बाहर निकाला, लेकिन तब तक बेचारी की हालत खराब हो चुकी थी। उसकी टाँग टूट चुकी थी। उसके पेट का बच्चा भी मर चुका था। कुछ देर बाद गाय भी चल बसी। राजधानी में इन दिनों बहुत-सी गायें रात को घूमती फिरती हैं। अब यह बहुत जरूरी हो गया है कि नगर निगम का रात्रिकालीन उडऩ दस्ता ऐसी गायों को पकड़े और गौ शालाओं में भिजवा दे। और गोपालक से जुर्माने के रूप में मोटी रकम भी वसूले।
भू माफियाओं से बचाओ...
बहुत पहले एक गाना बजता था- मुझे मेरी बीवी से बचाओ। अब रायपुर शहर को गाना पड़ रहा है, मुझे भू माफियाओं से बचाओ। इनका बस चले तो पूरे रायपुर को उजाड़ कर एक नई टाउनशिप ही बसा दें। पेड़ काट दें, तालाब पाट दें। स्कूल गिरा दें। खेल मैदान पर मकान-दूकान या व्यावसायिक परिसर खड़ा करे दें। शॉपिंग मॉल बना दें। लेकिन बेचारों का जोर भी चल नहीं पा रहा है। वैसे कोशिश कर कर के अनेक तालाबों को पाट ही चुके हैं। और अब रायपुर के खो-खोपारा के तालाब को हजम करने की तैयारी कर रहे थे। उन्तीस एकड़ का तालाब सिमट कर नौ एकड़ का रह गया, तब नगर निगम और लोगों की आँखें खुलीं। इसी तरह सूरजबाँधा तालाब पर भी कब्जा करने की साजिश हो रही थी। लोगों की जागरूकता से ये तालाब कब्जामुक्त हुए। जरूरी है कि इन तालाबों का गहरीकरण हो ताकि बरसात में ये लबालब हो सके।
राजधानी में चिपको आंदोलन
मैं सुंदरलाल बहुगुणा के चिपको आंादेलन को याद कर रहा हूँ। उन्होंने टिहरी-गढ़वाल तरफ पेडों को बचाने के लिए चिपको आंदोलन चलाया था। आज भी चला रहे हैं। अब कुछ लोगों ने यहाँ भी चिपकों आंदोलन शुरू किया है। रायपुर और आसपास जिस तेजी के साथ पेड़ कट रहे हैं, उसे देखकर लगता है, कि कुछ लोग पेड़ों से पिछले जनमम् का कोई बदला भँजा रहे हैं। सड़क चौड़ी करनी है तो पेड़ काट दो। अरे भाई, पेड़ों को सलामत रहने दो और पेड़ों के हिसाब से यातायात को एडजस्ट करने की कोशिश करो। अगर नहीं कर सकते और पेड़ काटना बहुत ही जरूरी है तो पेड़ को उठाकर शिफ्ट करने की कोशिश करो। यह भी नहीं कर सकते तो एक पेड़ काटो और बदले में सौ पौधे लगाओ और उसकी देखभाल करो। यह नहीं कर सकते तो घर बैठो। छुट्टी की जाए ऐसे अफसर की, जिसने पेड़ काटे और बदले में हमें धूप दी, गरमी दी। छाँव का एक टुकड़ा भी न दिया। चिपको आंदोलन वालों से आग्रह है कि वे इस आंदोलन से चिपके रहें, वरना होता यह है कि बहुत से आंदोलन शुरू होते हैं और अखबारों में छपने के बाद दम तोड़ देते हैं।

सुनिए गिरीश पंकज को