आदिवासियों के चरण अब कौन पखारेगा? गिरीश पंकज राजपरिवार में जन्म लेने के बावजूद बेहद सहज-सरल इंसान के रूप में लोकप्रिय रहे सांसद दिलीपसिंह जू देव अब हमारे बीच नहीं हैं। उनका चला जाना एक ऐसे शख्स का जाना है जो आदिवासी समाज के बीच एक मसीहा की तरह था। उनका ऑपरेशन घर वापसी तो अद्भुत था। आदिवासी समाज के अनेक लोग जो किसी कारण ईसाई बन चुके थे, उन्हें उनकी दुनिया में वापस लाने की कोशिश करते थे। आदिवासियों के चरण पखारते थे, जल को माथे से लगाते थे। यह कोई छोटी-मोटी घटना नहीं थी। कोई नाटक नहीं था, यह उनके दिल की आवाज थी और एक कर्तव्य की तरह उसे निभाते थे। अंतिम सांस तक वे इसी मुहिम में लगे रहे। उनके जाने के बाद अब यही सवाल सबके सामने हैं कि अब उनकी परम्परा को कौन आगे ले जाएगा? यानी अब आदिवासियों के चरण कौन पखारेगा? छत्तीसगढ़ में धर्मांतरण का जहर तेजी से फैल रहा है। इसे रोकने के लिए वनवासी कल्याण आश्रम जैसी संस्थाओं ने अपने रचनात्मक कार्यों से काफी हद तक नियंत्रित किया, मगर जूदेव अपने स्तर पर आदिवासियों की घर वापसी महिम चलाया करते थे। और इसके पीछे उनकी कोई ऐसी मंशा नहीं थी कि वे अपनी छवि चमकाते। वे तो निर्मल मन के साथ इस अभियान के सेनानी थे। वे चाहते थे कि धर्मांतरण का जहर खत्म हों और आदिवासी अपनी जड़ों से जुड़े रहें। उनके इस अभियान से कुछ लोग बेचैन रहा करते थे, मगर उन्होंने किसी की परवाह नहीं की। और कह सकते हैं कि इस पथ पर वे अकेले चलते रहे। आदिवासियों को उनकी दुनिया में वापस लाने के अलावा उनकी अपनी दबंग छवि थी। वे राजनीति के लोकप्रिय नायक थे। और उनका होना राजनीतिक सफलता की गारंटी थी। लोग सन् 1988 को खरसिया उप चुनाव नहीं भूल सकते, जब जू देव जी ने मध्यप्रदेश के तत्कालिक मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह को जबर्दस्त टक्कर दी थी। पूरी कांग्रेस परेशान थी। पशोपेश में थी कि क्या होगा? कांग्रेसी घबराए हुए थे। कांग्रेस के साथ उस वक्त सत्ता थी। अर्जुन सिंह चुनाव तो जीते मगर विजय जुलूस निकला था दिलीपसिंह जू देव का। यह बहुत बड़ी बात है। ऐसा बहुत कम होता है। कांग्रेस जीत कर भी हारी-सी लग रही थी और जू देव हार कर भी जीत का जश्न मना रहे थे। उस वक्त यह नारा लगा था- राजा नहीं फकीर, छत्तीसगढ़ का वीर है। ऐसे थे जू देव। यही जू देव थे, जिन्होंने प्रदेश विधानसभा के पिछले चुनावमें डंके की चोट पर ऐलान कर दिया था कि अगर इस चुनाव में कांग्रेस सत्ता में आई तो मैं अपनी मूँछें मुड़वा दूँगा। यह कोई छोटा-मोटा ऐलान नहीं था। यह अपनी अस्मिता को चुनौती थी। अपने जीवन भर की साख को दाँव पर लगा देने जैसा था। लेकिन जूदेव को पक्का विश्वास था कि भाजपा जीतेगी। जरूर जीतेगी। और ऐसा ही हुआ। प्रदेश की जनता ने जू देव की प्रतिज्ञा का मान रखा और भाजपा की सरकार बनी। कांग्रेसी मुगालते में थे कि जू देव को मूँछें कटवानी पड़ेगी, लेकिन ईश्वर की कृपा से ऐसा नहीं हुआ। जू देव ने भी कुछ सोच कर यह ऐलान किया था। उन्हें पता था कि प्रदेश में उनकी कितनी साख है। आज कितने लोग हैं जो अपनी मूँछें दाँव पर लगा सकते हैं? जू देव से हम पत्रकारों की मुलाकातें कभी-कभी होती थीं। उनको सहज व्यवहार मुझे हैरत में डाल देता था। बिंदास हो कर वे लोगों से मिलते थे। हँस कर बतियाते थे। और जरूरत पडऩे पर हर तरह की मदद भी किया करते थे। छत्तीसगढ़ में कुछ राज परिवार अभी भी सक्रिय हैं। लेकिन जू देव परिवार की जन भागीदारी सबसे जुदा रही। सिर्फ इसलिए कि उनमें वो राजसी तेवर नहीं थे, जो अक्सर राजपरिवार के लोगों में नजर आते हैं। जशपुर का उनका महल एक घर की तरह सबके लिए खुला रहता था। हमारे कुछ मित्र बताते हैं कि जब भी वे जशपुर जाते थे, तो जू देव जी के घर पर ही रुकते थे। जू देव भी उनका दिल खोल कर स्वागत किया करते थे। उनके जीवन में कुछ ऐसे भी अवसर आए जब उन्हें अग्नि परीक्षाओं से भी गुजरना पड़ा, मगर सब से अनोखी बात यह रही कि वे खरे निकले। हताश नहीं हुए। उनका हौसला बरकरार रहा। और सबसे बड़ी बात यह रही कि जनता के बीच उनकी छवि सदाबहार रही। ऐसे उदाहरण बिरले ही मिलते हैं। हम कह सकते हैं कि जू देव उस शख्सियत का नाम रहा जो पदों से परे हो कर एक व्यक्ति के रूप में हमेशा ही शिखर पर रहा। वे पद पर रहे न रहे, एक व्यक्ति के रूप में हमेशा ही चर्चित रहे। जू देव जी के हमेशा-हमेशा के लिए चले जाने के बाद उनसे जुड़े अनेक संस्मरण लोगों के जेहन में कौंध रहे होंगे। लेकिन मैं रह-रह कर यही सोच रहा हूँ कि क्या घर वापसी चलाने वाला महान मुहिम आगे भी जारी रह सकेगा क्या? आदिवासी बंधुओं के पैर धोना और उन्हें ईसाइयत से मुक्त कराने का महत्वाकांक्षी अभियान चला कर राज परिवार के एक व्यक्ति ने अपने को लोक नायक बना दिया था। उनके महाप्रस्थान के बाद लोग यही उम्मीद करते हैं कि उनके परिवार के लोग आपरेशन घर वापसी को जारी रखेंगे। जू देव ऐसे समय में चले गए जब चुनाव होने हैं। पिछले चुनाव में जू देव ने अपनी मूँछें दाँव पर लगा दी थीं, इस बार वे नहीं रहेंगे, मगर उनकी याद रहेगी। उनके काम रहेंगे। उनका मूँछें एंठने वाला अंदाज उनकी खास छवि को दर्शाने वाला था। अब वे हमारे बीच नहीं हैं मगर उनकी अनेक छवियाँ छत्तीसगढ़ वासियों के दिलोदिमाग में सुरक्षित रहेंगी।
बुधवार, 21 अगस्त 2013
मंगलवार, 11 जून 2013
विद्याचरण शुक्ल - एक अधूरे सपने की अकाल मृत्यु
विद्याचरण शुक्ल - एक अधूरे सपने की अकाल मृत्यु
गिरीश पंकज
25 मई को बस्तर में हुए भयावह नक्सली हमले में घायल हुए विद्याचरण शुक्ल आखिर सबको छोड़ कर चले गए। उनके साथ ही चला गया एक इतिहास जिसे खुद विद्या भैया ने लिखा था। चौरासी साल के इस बुजुर्ग को कभी लोगों ने वयोवृद्ध नहीं कहा। लोग उन्हें 'विद्या भैया' ही कहते थे। । उनके साथ बुजुर्गों की नहीं, युवकों की भीड़ नज़र आती थी क्योंकि ये युवा विद्याचरण शुक्ल में युवकोचित गुण देखते थे और सबको यही लगता था कि उनके नेतृत्व में छत्तीसगढ़ में काँग्रेस का नवजीवन मिल सकता है। इसीलिए जब नक्सली हमले में प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष समेत अनेक महत्वपूर्ण नेता मारे गए तो घायल शुक्ल में लोग एक आशा की किरण देख रहे थे कि शुक्ल ठीक हो कर वापस लौटेंगे और कांग्रेस में प्राण फूँकेंगे लेकिन ऐसा संभव न हो सका और जीवन-मृत्यु के बीच संघर्ष करते हुए अंतत: वे नहीं रहे।
नक्सली हमले में एक छत्तीसगढ़ का एक ऐसा कांग्रेसी नेता चला गया जिसने राष्ट्रीय राजनीति में अपनी जगह बनाई। नौ बार सांसद रह चुके शुक्ल अनेक बार केंद्रीय मंत्री रहे। आपातकाल के दौरान वे सूचना एवं प्रसारण मंत्री थे। उनका वह कार्यकाल भी 'अनेक कारणों' से याद किया जाता है। संजय गांधी के वे खास मित्र थे लेकिन पिछले दिनों उन्होंने यह स्वीकार भी किया था कि वे संजय गांधी के जबरन परिवार नियोजन करने के अति उत्साहपूर्ण फैसले के विरुद्ध भी थे। कांग्रेस के वे सिपाही थे मगर राजीव गांधी जब प्रधानमंत्री बने उस दौरान उनके कुछ मतभेद भी उभरे । बाद में उन्हें कांग्रेस भी छोडऩी पड़ी। वे एनसीपी से जुड़े, फिर भाजपा में भी शामिल हुए लेकिन अंतत: वे कांग्रेस में वापसी लौटे और अपनी भूल पर खेद व्यक्त किया।
छत्तीसगढ़ में इस वर्ष चुनाव होने हैं। श्री शुक्ल कांग्रेस की परिवर्तन यात्रा में बढ़-चढ़ कर हिस्सा ले रहे थे। उनका उत्साह देखते हू बनता था. उनके जोश को देख कर युवा कांग्रेसियों में भी जोश आ गया था। यही कारण है कि जब 25 मई को बस्तर में परिवर्तन यात्रा निकली तो भारी संख्या में कार्यकर्ता शामिल हुए नक्सली खौफ की किसी ने परवाह नहीं की । विद्या भैया से लोगों ने आग्रह किया कि आप लम्बी यात्रा न करें मगर उन्होंने कहना नहीं माना। और एक बड़े नक्सली हमले में बुरी तरह घायल हुए। उन्हें तीन गोलियाँ लगीं। उन्हें फौरन मेदांता (गुडग़ांव)में भर्ती किया गया। लेकिन जो होना था, वही हुआ। बुरी तरह घायल यह नेता छत्तीसगढ़ कांग्रेस की मझधार में छोड़ कर चला गया।
श्री शुक्ल के जाने के बाद अब स्वाभाविक है कि लोग उन दिनों को याद करेंगे जब शुक्ल ने अपने पिता पं. रविशंकर शुक्ल की विरासत को आगे बढ़ा कर इतिहास रचा। 2 अगस्त 1929 को रायपुर में जन्में शुक्ल ने नागपुर के मौरिस कालेज से स्नातक की पढ़ाई पूरी की। आजादी की लड़ाई में भाग ले कर जेल यात्राएँ भी की। उन्होंने अपनी शिकार कंपनी भी बनाई थी। लेकिन इस काम में उनका मन नहीं रमा तो पिता की परम्परा को आगे बढ़ाते हुए राजनीति में सक्रिय हुए और 1957 में महासमुंद लोकसभा क्षेत्र से चुनाव लड़कर सबसे कम उम्र के सांसद बनने का गौरव हासिल किया। पिता मध्यप्रदेश के प्रथम मुख्यमंत्री थे। इसीलिए जब सन 2000 में छत्तीसगढ़ राज्य बना तो यह माना जा रहा था कि शुक्ल ही मुख्यमंत्री बनेंगे लेकिन हाईकमान में कुछ ऐसे समीकरण बैठाए गए कि अजीत जोगी को कमान सौप दी गई। तब विद्याचरण शुक्ल के लोग इस कदर बौखलाए कि उस वक्त शुक्ल के बंगले से बाहर निकलते वक्त दिग्विजय सिंह की पिटाई भी कर दी गई । उनके कपड़े फाड़ दिए गए थे।
छतीसगढ़ के पहले मुख्यमंत्री न बन पाने का मलाल श्री शुक्ल को हमेशा रहा। यही कारण था कि वे नाराज हो कर भाजपा में शामिल हो गए थे। भाजपा की टिकट पर उन्होंने लोकसभा का चुनाव भी लड़ा मगर पराजित हुए। बाद में उन्होंने कांग्रेस का दामन थामा और नक्सली हमले में घायल होने तक कांग्रेस के एक सशक्त सिपाही के रूप में शामिल रहे। इस बार छत्तीसगढ़ में विधानसभा चुनाव होने हैं और यह मान कर चला जा रहा था कि इस बार अगर कांग्रेस सत्ता में आई तो श्री शुक्ल ही मुख्यमंत्री होंगे। लेकिन ये सारी कल्पनाएँ धरी की धरी रह गईं और श्री शुक्ल अपने अधूरे सपनों के साथ विदा हो गए। कभी उन्होंने प्रधानमंत्री बनने का सपना भी देखा था। उसके लिए व्यापक स्तर पर तैयारी भी हो रही थी लेकिन वह योजना भी कारगर नहीं हो पाई और शुक्ल कांग्रेस से विदा हो गए। जीवन में हर सपने पूरे नहीं होते। शुक्ल के सपने भी अधूरे रहे लेकिन आज जब वे अतीत की अनेक गलतियों को भूल कर जीवन के सांध्यकाल में एक बार फिर सक्रिय हो गए तो लोगों ने उन्हें जिजीविषा से भरे नायक के रूप में ही देखा। कल क्या होगा, यह किसने देखा है, लेकिन विद्याचरण शुक्ल एक बार फिर परिवर्तन यात्रा में शरीक हो कर कार्यकर्ताओं में जोश भर रहे थे। कार्यकर्ता उनमें अपना भविष्य तलाश कर रहे थे। लेकिन काल अपने हिसाब से पटकथा लिख रहा था।
अब शुक्ल सचमुच एक 'इतिहास पुरुष' बन गए हैं। नक्सली हिंसा में शहीद लोगों में वे भी शुमार हो गए हैं। उनके जो स्वप्न अधूरे रहे, वे अधूरे ही रह जाएँगे मगर अब उनका मूल्यांकन बिल्कुल अलग तरीके से किया जाएगा। वे छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री नहीं बन सके मगर राष्ट्रीय राजनीति में लम्बी पारी खेलने के कारण उनका केंद्रीय मंत्री वाला कार्यकाल लोग याद करेंगे जिसके कारण उन्होंने छत्तीसगढ़ को गढऩे का काम किया। इस राज्य को देश के साथ कदम से कदम मिला कर चलने के लायक बनाया। छत्तीसगढ़ राज्य तो तेरह साल पहले बना लेकिन बहुत पहले से ही छत्तीगढ़ को शुक्ल बंधुओं ने बहुत कुछ दिया। विद्याचरण शुक्ल के बड़े भाई श्यामाचरण शुक्ल ने जल संकट से मुक्त किया, तो विद्याचरण शुक्ल ने टेलीविजन, रेडियो, हवाई अड्डे समेत अनके केंद्रीय योजनाओं का सीधा लाभ छत्तीसगढ़ को दिलवाया। दिल्ली में रहते हुए वे हमेशा छत्तीसगढ़ के लोगों के बारे में सोचते रहे, छत्तीसगढ़ के विकास के लिए अनेक परियोजनाओं के लिए संघर्षरत रहे। उनके इस योगदान को छत्तीसगढ़ भूल नहीं पाएगा। कभी उनके साथ जुड़ कर कुछ अपराधी किस्म के लोगभी 'तर' गए थे. इस का मलाल श्री शुक्ल को भी था कि उन्होंने कुछ लोगों को पहचानने में बहुत देर कर दी। उनके आसपास स्वार्थ के लिए घेरेबंदी करके बैठे लोगों ने उनके राजनीतिक जीवन को नुकसान पहुँचाया। यही कारण है कि जो सज्जन लोग थे, वे उनसे दूर होते चले गए। ये सारी विसंगतियाँ शुक्ल समय रहते समझ नहीं पाए और 'बहुत देर' देर हो गई। फिर भी वे एक बार फिर साहस के साथ खड़े होने की कोशिश में थे। पुराने अपराधी किस्म के लोगों से दूर हो कर वे नई पीढ़ी के साथ तालमेल बना कर एक नई यात्रा पर निकले थे।
छत्तीसगढ़ में चल रही कांग्रेस की परिवर्तन यात्रा एक तरह से उनके लिए निर्णायक मोड़-सी लग रही थी। लग रहा था कि शायद इस बार शुक्ल अपने उन तेवरों तक पहुँचेंगे जिसके कारण देश की राजनीति में उनकी खास पहचान बनी थी। लेकिन अब ऐसा कुछ नहीं होगा। नफरत में डूबी कुछ गोलियों ने अंतत: एक बूढ़े स्वप्न को साकार होने से रोक दिया। अब केवल यादें हैं। विश्लेषण हैं। शोक है। काश है, किंतु-परंतु है। जो भी हो, विद्याचरण शुक्ल के साथ शुक्ल बंधुओं का वह स्वर्णिम दौर थम गया, जिसके बगैर छत्तीसगढ़ का राजनीतिक इतिहास कभी लिखा ही नहीं जा सकता। और यह भी सच है कि विद्याचरण शुक्ल जैसा राष्ट्रीय स्तर का नेता छत्तीसगढ़ की राजनीति में दोबारा कब पैदा होगा, यह भी विश्वास के साथ नहीं कहा जा सकता।
गिरीश पंकज
25 मई को बस्तर में हुए भयावह नक्सली हमले में घायल हुए विद्याचरण शुक्ल आखिर सबको छोड़ कर चले गए। उनके साथ ही चला गया एक इतिहास जिसे खुद विद्या भैया ने लिखा था। चौरासी साल के इस बुजुर्ग को कभी लोगों ने वयोवृद्ध नहीं कहा। लोग उन्हें 'विद्या भैया' ही कहते थे। । उनके साथ बुजुर्गों की नहीं, युवकों की भीड़ नज़र आती थी क्योंकि ये युवा विद्याचरण शुक्ल में युवकोचित गुण देखते थे और सबको यही लगता था कि उनके नेतृत्व में छत्तीसगढ़ में काँग्रेस का नवजीवन मिल सकता है। इसीलिए जब नक्सली हमले में प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष समेत अनेक महत्वपूर्ण नेता मारे गए तो घायल शुक्ल में लोग एक आशा की किरण देख रहे थे कि शुक्ल ठीक हो कर वापस लौटेंगे और कांग्रेस में प्राण फूँकेंगे लेकिन ऐसा संभव न हो सका और जीवन-मृत्यु के बीच संघर्ष करते हुए अंतत: वे नहीं रहे।
नक्सली हमले में एक छत्तीसगढ़ का एक ऐसा कांग्रेसी नेता चला गया जिसने राष्ट्रीय राजनीति में अपनी जगह बनाई। नौ बार सांसद रह चुके शुक्ल अनेक बार केंद्रीय मंत्री रहे। आपातकाल के दौरान वे सूचना एवं प्रसारण मंत्री थे। उनका वह कार्यकाल भी 'अनेक कारणों' से याद किया जाता है। संजय गांधी के वे खास मित्र थे लेकिन पिछले दिनों उन्होंने यह स्वीकार भी किया था कि वे संजय गांधी के जबरन परिवार नियोजन करने के अति उत्साहपूर्ण फैसले के विरुद्ध भी थे। कांग्रेस के वे सिपाही थे मगर राजीव गांधी जब प्रधानमंत्री बने उस दौरान उनके कुछ मतभेद भी उभरे । बाद में उन्हें कांग्रेस भी छोडऩी पड़ी। वे एनसीपी से जुड़े, फिर भाजपा में भी शामिल हुए लेकिन अंतत: वे कांग्रेस में वापसी लौटे और अपनी भूल पर खेद व्यक्त किया।
छत्तीसगढ़ में इस वर्ष चुनाव होने हैं। श्री शुक्ल कांग्रेस की परिवर्तन यात्रा में बढ़-चढ़ कर हिस्सा ले रहे थे। उनका उत्साह देखते हू बनता था. उनके जोश को देख कर युवा कांग्रेसियों में भी जोश आ गया था। यही कारण है कि जब 25 मई को बस्तर में परिवर्तन यात्रा निकली तो भारी संख्या में कार्यकर्ता शामिल हुए नक्सली खौफ की किसी ने परवाह नहीं की । विद्या भैया से लोगों ने आग्रह किया कि आप लम्बी यात्रा न करें मगर उन्होंने कहना नहीं माना। और एक बड़े नक्सली हमले में बुरी तरह घायल हुए। उन्हें तीन गोलियाँ लगीं। उन्हें फौरन मेदांता (गुडग़ांव)में भर्ती किया गया। लेकिन जो होना था, वही हुआ। बुरी तरह घायल यह नेता छत्तीसगढ़ कांग्रेस की मझधार में छोड़ कर चला गया।
श्री शुक्ल के जाने के बाद अब स्वाभाविक है कि लोग उन दिनों को याद करेंगे जब शुक्ल ने अपने पिता पं. रविशंकर शुक्ल की विरासत को आगे बढ़ा कर इतिहास रचा। 2 अगस्त 1929 को रायपुर में जन्में शुक्ल ने नागपुर के मौरिस कालेज से स्नातक की पढ़ाई पूरी की। आजादी की लड़ाई में भाग ले कर जेल यात्राएँ भी की। उन्होंने अपनी शिकार कंपनी भी बनाई थी। लेकिन इस काम में उनका मन नहीं रमा तो पिता की परम्परा को आगे बढ़ाते हुए राजनीति में सक्रिय हुए और 1957 में महासमुंद लोकसभा क्षेत्र से चुनाव लड़कर सबसे कम उम्र के सांसद बनने का गौरव हासिल किया। पिता मध्यप्रदेश के प्रथम मुख्यमंत्री थे। इसीलिए जब सन 2000 में छत्तीसगढ़ राज्य बना तो यह माना जा रहा था कि शुक्ल ही मुख्यमंत्री बनेंगे लेकिन हाईकमान में कुछ ऐसे समीकरण बैठाए गए कि अजीत जोगी को कमान सौप दी गई। तब विद्याचरण शुक्ल के लोग इस कदर बौखलाए कि उस वक्त शुक्ल के बंगले से बाहर निकलते वक्त दिग्विजय सिंह की पिटाई भी कर दी गई । उनके कपड़े फाड़ दिए गए थे।
छतीसगढ़ के पहले मुख्यमंत्री न बन पाने का मलाल श्री शुक्ल को हमेशा रहा। यही कारण था कि वे नाराज हो कर भाजपा में शामिल हो गए थे। भाजपा की टिकट पर उन्होंने लोकसभा का चुनाव भी लड़ा मगर पराजित हुए। बाद में उन्होंने कांग्रेस का दामन थामा और नक्सली हमले में घायल होने तक कांग्रेस के एक सशक्त सिपाही के रूप में शामिल रहे। इस बार छत्तीसगढ़ में विधानसभा चुनाव होने हैं और यह मान कर चला जा रहा था कि इस बार अगर कांग्रेस सत्ता में आई तो श्री शुक्ल ही मुख्यमंत्री होंगे। लेकिन ये सारी कल्पनाएँ धरी की धरी रह गईं और श्री शुक्ल अपने अधूरे सपनों के साथ विदा हो गए। कभी उन्होंने प्रधानमंत्री बनने का सपना भी देखा था। उसके लिए व्यापक स्तर पर तैयारी भी हो रही थी लेकिन वह योजना भी कारगर नहीं हो पाई और शुक्ल कांग्रेस से विदा हो गए। जीवन में हर सपने पूरे नहीं होते। शुक्ल के सपने भी अधूरे रहे लेकिन आज जब वे अतीत की अनेक गलतियों को भूल कर जीवन के सांध्यकाल में एक बार फिर सक्रिय हो गए तो लोगों ने उन्हें जिजीविषा से भरे नायक के रूप में ही देखा। कल क्या होगा, यह किसने देखा है, लेकिन विद्याचरण शुक्ल एक बार फिर परिवर्तन यात्रा में शरीक हो कर कार्यकर्ताओं में जोश भर रहे थे। कार्यकर्ता उनमें अपना भविष्य तलाश कर रहे थे। लेकिन काल अपने हिसाब से पटकथा लिख रहा था।
अब शुक्ल सचमुच एक 'इतिहास पुरुष' बन गए हैं। नक्सली हिंसा में शहीद लोगों में वे भी शुमार हो गए हैं। उनके जो स्वप्न अधूरे रहे, वे अधूरे ही रह जाएँगे मगर अब उनका मूल्यांकन बिल्कुल अलग तरीके से किया जाएगा। वे छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री नहीं बन सके मगर राष्ट्रीय राजनीति में लम्बी पारी खेलने के कारण उनका केंद्रीय मंत्री वाला कार्यकाल लोग याद करेंगे जिसके कारण उन्होंने छत्तीसगढ़ को गढऩे का काम किया। इस राज्य को देश के साथ कदम से कदम मिला कर चलने के लायक बनाया। छत्तीसगढ़ राज्य तो तेरह साल पहले बना लेकिन बहुत पहले से ही छत्तीगढ़ को शुक्ल बंधुओं ने बहुत कुछ दिया। विद्याचरण शुक्ल के बड़े भाई श्यामाचरण शुक्ल ने जल संकट से मुक्त किया, तो विद्याचरण शुक्ल ने टेलीविजन, रेडियो, हवाई अड्डे समेत अनके केंद्रीय योजनाओं का सीधा लाभ छत्तीसगढ़ को दिलवाया। दिल्ली में रहते हुए वे हमेशा छत्तीसगढ़ के लोगों के बारे में सोचते रहे, छत्तीसगढ़ के विकास के लिए अनेक परियोजनाओं के लिए संघर्षरत रहे। उनके इस योगदान को छत्तीसगढ़ भूल नहीं पाएगा। कभी उनके साथ जुड़ कर कुछ अपराधी किस्म के लोगभी 'तर' गए थे. इस का मलाल श्री शुक्ल को भी था कि उन्होंने कुछ लोगों को पहचानने में बहुत देर कर दी। उनके आसपास स्वार्थ के लिए घेरेबंदी करके बैठे लोगों ने उनके राजनीतिक जीवन को नुकसान पहुँचाया। यही कारण है कि जो सज्जन लोग थे, वे उनसे दूर होते चले गए। ये सारी विसंगतियाँ शुक्ल समय रहते समझ नहीं पाए और 'बहुत देर' देर हो गई। फिर भी वे एक बार फिर साहस के साथ खड़े होने की कोशिश में थे। पुराने अपराधी किस्म के लोगों से दूर हो कर वे नई पीढ़ी के साथ तालमेल बना कर एक नई यात्रा पर निकले थे।
छत्तीसगढ़ में चल रही कांग्रेस की परिवर्तन यात्रा एक तरह से उनके लिए निर्णायक मोड़-सी लग रही थी। लग रहा था कि शायद इस बार शुक्ल अपने उन तेवरों तक पहुँचेंगे जिसके कारण देश की राजनीति में उनकी खास पहचान बनी थी। लेकिन अब ऐसा कुछ नहीं होगा। नफरत में डूबी कुछ गोलियों ने अंतत: एक बूढ़े स्वप्न को साकार होने से रोक दिया। अब केवल यादें हैं। विश्लेषण हैं। शोक है। काश है, किंतु-परंतु है। जो भी हो, विद्याचरण शुक्ल के साथ शुक्ल बंधुओं का वह स्वर्णिम दौर थम गया, जिसके बगैर छत्तीसगढ़ का राजनीतिक इतिहास कभी लिखा ही नहीं जा सकता। और यह भी सच है कि विद्याचरण शुक्ल जैसा राष्ट्रीय स्तर का नेता छत्तीसगढ़ की राजनीति में दोबारा कब पैदा होगा, यह भी विश्वास के साथ नहीं कहा जा सकता।
प्रस्तुतकर्ता girish pankaj पर 6:31 am 0 टिप्पणियाँ
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