मंगलवार, 6 मई 2025
जय हिन्द
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लेबल: पहलगाम हमला, सेना
मंगलवार, 4 फ़रवरी 2025
यह कैसा लोकतंत्र है.. महाकुंभ में हुई घटना पर
गिरीश पंकज
अभिव्यक्ति की आजादी का गला घोटना इसी को तो कहते हैं. प्रयागराज के महाकुंभ में भगदड़ के कारण कुछ लोगों की मृत्यु हो गई. उस पर एक टीवी चैनल का रिपोर्टर समाचार बना रहा था, तो उसे वहां के कुछ लोगों ने रोकने की कोशिश की. यहां तक कि उसे धक्के मार कर बाहर निकला गया. वह रिपोर्टर मौत के आंकड़ों पर सवाल उठा रहा था और उसे रोका जा रहा था. इस देश में लोकतंत्र है. अभिव्यक्ति की आजादी मिली हुई है. यही तो है अभिव्यक्ति की आजादी कि जो सच है, वह दिखाया जाए. रोज चैनल वाले यह दिखा रहे हैं कि 30 करोड़ आ गए 35 करोड लोगों ने संगम में स्नान कर लिए. इतना प्रमाणिक आंकड़ा आपको रोज मिल रहा है.लेकिन जो लोग भगदड़ में मर गए, उनके आंकड़े प्रशासन क्यों छिपा रहा है. आखिर इतनी पारदर्शिता तो होनी ही चाहिए कि कितने लोग मरे. अगर कोई पत्रकार जानना चाहता है, तो उसे जानने का पूरा अधिकार है.उसे रोकने का मतलब है कि आप कहीं न कहीं कुछ छुपा रहे हैं. यह अपने आप में अपराध है. पत्रकारिता के शाश्वत मूल्यों पर प्रहार है. लेकिन दुर्भाग्य की बात यही है कि हमारे पूरे सिस्टम में कथनी करने का अंतर है. जो सच है, वह दिखाया जाना चाहिए. इसमें किसी को बुरा नहीं लगेगा. क्योंकि यह भगदड़ सहज रूप में उभर कर सामने आई. हालांकि भगदड़ के पीछे एक कारण तो लोगों का धैर्य खो देना भी है. दूसरा कारण यह है कि मेला स्थल में वी वीआईपीयों के लिए एक अलग रास्ता बनाया गया और सामान्य लोगों के लिए दूसरा रास्ता. इस देश में आखिर इतना वर्ग भेद क्यों होता है? क्यों इस देश के चंद लोग वीवीआईपी माने जाते हैं और एक बड़ी आबादी के लोग कीड़े-मकोड़े? अकसर धार्मिक स्थलों में इस तरह का अपराध देखने को मिलता है. मैं कई बार यह नहीं समझ पाता कि अगर वीवीआईपी भगवान के पहले दर्शन कर लेगा तो क्या भगवान उसे कुछ ज्यादा आशीर्वाद प्रदान कर देंगे? ऐसा कुछ नहीं होने वाला. बस उसकी आत्मा को संतुष्टि मिलती है कि वह बड़ा आदमी, नेता या अफसर है. ऐसी विषमता देखकर धर्म स्थलों में लोगों को बहुत गुस्सा आता है. कायदे से तो इस देश में यह वीवी आई पी-संस्कृति ही खत्म होनी चाहिए. भगवान के दर पर क्या राजा, क्या गरीब, सब बराबर हैं . लेकिन यहां भी भेद किया जाता है. इस देश में सच्चा लोकतंत्र तब आएगा, जब एक आम आदमी भी भीड़ में खड़ा हो और उसके ठीक पीछे या आगे राष्ट्रपति या प्रधानमंत्री अथवा मुख्यमंत्री या कोई बड़ा अफसर. सबके लिए समान व्यवस्था होनी चाहिए. हां जो वीवीआई पी हैं,उनकी सुरक्षा के लिए अगल-बगल कमांडो आदि तैनात रहें, इसमें कोई दिक्कत नहीं है. लेकिन उन्हें खड़ा होना चाहिए आम लोगों की कतार में. पर ऐसा होता कहां है. दुनिया के अनेक देशों में प्रधानमंत्री, राष्ट्रपति आदि के लिए बहुत अधिक प्रोटोकॉल का पालन नहीं होता. सामान्य लोगों की तरह ही वे आना-जाना करते हैं. लेकिन हमारे यहां दिक्कत यह है कि सदियों की गुलामी के बाद देश आजाद हुआ तो कुछ लोगों के दिमाग से अभी भी राजशाही का भूत नहीं उतरा है. वे चुने हुए प्रतिनिधि को राजा समझ बैठते हैं. उनकी व्यवस्था में लगे लोग उनको राजा महाराजा बनाकर व्यवहार करते हैं. आम लोगों को जनप्रतिनिधियों से दूर कर दिया जाता है. उन्हें धक्का मारा जाता है.. उन पर लाठियां बरसाई जाती है. इस देश में यह विषमतावादी लोकतंत्र आखिर कब तक चलेगा? इस पर विचार करना चाहिए. और अगर महाकुंभ में ज्यादा मौतें हुई हैं,तो उसमें घबराने की कोई बात नहीं. सच को सामने आने देना चाहिए. ऐसा करके हम अभिव्यक्ति की आजादी का सम्मान करेंगे और लोकतंत्र को लोकतंत्र बने रहने देंगे, उसे राजतंत्र नहीं बनाएंगे.
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लेबल: महाकुंभ भगदड़
बुधवार, 21 अगस्त 2013
आदिवासियों के चरण अब कौन पखारेगा?
आदिवासियों के चरण अब कौन पखारेगा? गिरीश पंकज राजपरिवार में जन्म लेने के बावजूद बेहद सहज-सरल इंसान के रूप में लोकप्रिय रहे सांसद दिलीपसिंह जू देव अब हमारे बीच नहीं हैं। उनका चला जाना एक ऐसे शख्स का जाना है जो आदिवासी समाज के बीच एक मसीहा की तरह था। उनका ऑपरेशन घर वापसी तो अद्भुत था। आदिवासी समाज के अनेक लोग जो किसी कारण ईसाई बन चुके थे, उन्हें उनकी दुनिया में वापस लाने की कोशिश करते थे। आदिवासियों के चरण पखारते थे, जल को माथे से लगाते थे। यह कोई छोटी-मोटी घटना नहीं थी। कोई नाटक नहीं था, यह उनके दिल की आवाज थी और एक कर्तव्य की तरह उसे निभाते थे। अंतिम सांस तक वे इसी मुहिम में लगे रहे। उनके जाने के बाद अब यही सवाल सबके सामने हैं कि अब उनकी परम्परा को कौन आगे ले जाएगा? यानी अब आदिवासियों के चरण कौन पखारेगा? छत्तीसगढ़ में धर्मांतरण का जहर तेजी से फैल रहा है। इसे रोकने के लिए वनवासी कल्याण आश्रम जैसी संस्थाओं ने अपने रचनात्मक कार्यों से काफी हद तक नियंत्रित किया, मगर जूदेव अपने स्तर पर आदिवासियों की घर वापसी महिम चलाया करते थे। और इसके पीछे उनकी कोई ऐसी मंशा नहीं थी कि वे अपनी छवि चमकाते। वे तो निर्मल मन के साथ इस अभियान के सेनानी थे। वे चाहते थे कि धर्मांतरण का जहर खत्म हों और आदिवासी अपनी जड़ों से जुड़े रहें। उनके इस अभियान से कुछ लोग बेचैन रहा करते थे, मगर उन्होंने किसी की परवाह नहीं की। और कह सकते हैं कि इस पथ पर वे अकेले चलते रहे। आदिवासियों को उनकी दुनिया में वापस लाने के अलावा उनकी अपनी दबंग छवि थी। वे राजनीति के लोकप्रिय नायक थे। और उनका होना राजनीतिक सफलता की गारंटी थी। लोग सन् 1988 को खरसिया उप चुनाव नहीं भूल सकते, जब जू देव जी ने मध्यप्रदेश के तत्कालिक मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह को जबर्दस्त टक्कर दी थी। पूरी कांग्रेस परेशान थी। पशोपेश में थी कि क्या होगा? कांग्रेसी घबराए हुए थे। कांग्रेस के साथ उस वक्त सत्ता थी। अर्जुन सिंह चुनाव तो जीते मगर विजय जुलूस निकला था दिलीपसिंह जू देव का। यह बहुत बड़ी बात है। ऐसा बहुत कम होता है। कांग्रेस जीत कर भी हारी-सी लग रही थी और जू देव हार कर भी जीत का जश्न मना रहे थे। उस वक्त यह नारा लगा था- राजा नहीं फकीर, छत्तीसगढ़ का वीर है। ऐसे थे जू देव। यही जू देव थे, जिन्होंने प्रदेश विधानसभा के पिछले चुनावमें डंके की चोट पर ऐलान कर दिया था कि अगर इस चुनाव में कांग्रेस सत्ता में आई तो मैं अपनी मूँछें मुड़वा दूँगा। यह कोई छोटा-मोटा ऐलान नहीं था। यह अपनी अस्मिता को चुनौती थी। अपने जीवन भर की साख को दाँव पर लगा देने जैसा था। लेकिन जूदेव को पक्का विश्वास था कि भाजपा जीतेगी। जरूर जीतेगी। और ऐसा ही हुआ। प्रदेश की जनता ने जू देव की प्रतिज्ञा का मान रखा और भाजपा की सरकार बनी। कांग्रेसी मुगालते में थे कि जू देव को मूँछें कटवानी पड़ेगी, लेकिन ईश्वर की कृपा से ऐसा नहीं हुआ। जू देव ने भी कुछ सोच कर यह ऐलान किया था। उन्हें पता था कि प्रदेश में उनकी कितनी साख है। आज कितने लोग हैं जो अपनी मूँछें दाँव पर लगा सकते हैं? जू देव से हम पत्रकारों की मुलाकातें कभी-कभी होती थीं। उनको सहज व्यवहार मुझे हैरत में डाल देता था। बिंदास हो कर वे लोगों से मिलते थे। हँस कर बतियाते थे। और जरूरत पडऩे पर हर तरह की मदद भी किया करते थे। छत्तीसगढ़ में कुछ राज परिवार अभी भी सक्रिय हैं। लेकिन जू देव परिवार की जन भागीदारी सबसे जुदा रही। सिर्फ इसलिए कि उनमें वो राजसी तेवर नहीं थे, जो अक्सर राजपरिवार के लोगों में नजर आते हैं। जशपुर का उनका महल एक घर की तरह सबके लिए खुला रहता था। हमारे कुछ मित्र बताते हैं कि जब भी वे जशपुर जाते थे, तो जू देव जी के घर पर ही रुकते थे। जू देव भी उनका दिल खोल कर स्वागत किया करते थे। उनके जीवन में कुछ ऐसे भी अवसर आए जब उन्हें अग्नि परीक्षाओं से भी गुजरना पड़ा, मगर सब से अनोखी बात यह रही कि वे खरे निकले। हताश नहीं हुए। उनका हौसला बरकरार रहा। और सबसे बड़ी बात यह रही कि जनता के बीच उनकी छवि सदाबहार रही। ऐसे उदाहरण बिरले ही मिलते हैं। हम कह सकते हैं कि जू देव उस शख्सियत का नाम रहा जो पदों से परे हो कर एक व्यक्ति के रूप में हमेशा ही शिखर पर रहा। वे पद पर रहे न रहे, एक व्यक्ति के रूप में हमेशा ही चर्चित रहे। जू देव जी के हमेशा-हमेशा के लिए चले जाने के बाद उनसे जुड़े अनेक संस्मरण लोगों के जेहन में कौंध रहे होंगे। लेकिन मैं रह-रह कर यही सोच रहा हूँ कि क्या घर वापसी चलाने वाला महान मुहिम आगे भी जारी रह सकेगा क्या? आदिवासी बंधुओं के पैर धोना और उन्हें ईसाइयत से मुक्त कराने का महत्वाकांक्षी अभियान चला कर राज परिवार के एक व्यक्ति ने अपने को लोक नायक बना दिया था। उनके महाप्रस्थान के बाद लोग यही उम्मीद करते हैं कि उनके परिवार के लोग आपरेशन घर वापसी को जारी रखेंगे। जू देव ऐसे समय में चले गए जब चुनाव होने हैं। पिछले चुनाव में जू देव ने अपनी मूँछें दाँव पर लगा दी थीं, इस बार वे नहीं रहेंगे, मगर उनकी याद रहेगी। उनके काम रहेंगे। उनका मूँछें एंठने वाला अंदाज उनकी खास छवि को दर्शाने वाला था। अब वे हमारे बीच नहीं हैं मगर उनकी अनेक छवियाँ छत्तीसगढ़ वासियों के दिलोदिमाग में सुरक्षित रहेंगी।
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मंगलवार, 11 जून 2013
विद्याचरण शुक्ल - एक अधूरे सपने की अकाल मृत्यु
गिरीश पंकज
25 मई को बस्तर में हुए भयावह नक्सली हमले में घायल हुए विद्याचरण शुक्ल आखिर सबको छोड़ कर चले गए। उनके साथ ही चला गया एक इतिहास जिसे खुद विद्या भैया ने लिखा था। चौरासी साल के इस बुजुर्ग को कभी लोगों ने वयोवृद्ध नहीं कहा। लोग उन्हें 'विद्या भैया' ही कहते थे। । उनके साथ बुजुर्गों की नहीं, युवकों की भीड़ नज़र आती थी क्योंकि ये युवा विद्याचरण शुक्ल में युवकोचित गुण देखते थे और सबको यही लगता था कि उनके नेतृत्व में छत्तीसगढ़ में काँग्रेस का नवजीवन मिल सकता है। इसीलिए जब नक्सली हमले में प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष समेत अनेक महत्वपूर्ण नेता मारे गए तो घायल शुक्ल में लोग एक आशा की किरण देख रहे थे कि शुक्ल ठीक हो कर वापस लौटेंगे और कांग्रेस में प्राण फूँकेंगे लेकिन ऐसा संभव न हो सका और जीवन-मृत्यु के बीच संघर्ष करते हुए अंतत: वे नहीं रहे।
नक्सली हमले में एक छत्तीसगढ़ का एक ऐसा कांग्रेसी नेता चला गया जिसने राष्ट्रीय राजनीति में अपनी जगह बनाई। नौ बार सांसद रह चुके शुक्ल अनेक बार केंद्रीय मंत्री रहे। आपातकाल के दौरान वे सूचना एवं प्रसारण मंत्री थे। उनका वह कार्यकाल भी 'अनेक कारणों' से याद किया जाता है। संजय गांधी के वे खास मित्र थे लेकिन पिछले दिनों उन्होंने यह स्वीकार भी किया था कि वे संजय गांधी के जबरन परिवार नियोजन करने के अति उत्साहपूर्ण फैसले के विरुद्ध भी थे। कांग्रेस के वे सिपाही थे मगर राजीव गांधी जब प्रधानमंत्री बने उस दौरान उनके कुछ मतभेद भी उभरे । बाद में उन्हें कांग्रेस भी छोडऩी पड़ी। वे एनसीपी से जुड़े, फिर भाजपा में भी शामिल हुए लेकिन अंतत: वे कांग्रेस में वापसी लौटे और अपनी भूल पर खेद व्यक्त किया।
छत्तीसगढ़ में इस वर्ष चुनाव होने हैं। श्री शुक्ल कांग्रेस की परिवर्तन यात्रा में बढ़-चढ़ कर हिस्सा ले रहे थे। उनका उत्साह देखते हू बनता था. उनके जोश को देख कर युवा कांग्रेसियों में भी जोश आ गया था। यही कारण है कि जब 25 मई को बस्तर में परिवर्तन यात्रा निकली तो भारी संख्या में कार्यकर्ता शामिल हुए नक्सली खौफ की किसी ने परवाह नहीं की । विद्या भैया से लोगों ने आग्रह किया कि आप लम्बी यात्रा न करें मगर उन्होंने कहना नहीं माना। और एक बड़े नक्सली हमले में बुरी तरह घायल हुए। उन्हें तीन गोलियाँ लगीं। उन्हें फौरन मेदांता (गुडग़ांव)में भर्ती किया गया। लेकिन जो होना था, वही हुआ। बुरी तरह घायल यह नेता छत्तीसगढ़ कांग्रेस की मझधार में छोड़ कर चला गया।
श्री शुक्ल के जाने के बाद अब स्वाभाविक है कि लोग उन दिनों को याद करेंगे जब शुक्ल ने अपने पिता पं. रविशंकर शुक्ल की विरासत को आगे बढ़ा कर इतिहास रचा। 2 अगस्त 1929 को रायपुर में जन्में शुक्ल ने नागपुर के मौरिस कालेज से स्नातक की पढ़ाई पूरी की। आजादी की लड़ाई में भाग ले कर जेल यात्राएँ भी की। उन्होंने अपनी शिकार कंपनी भी बनाई थी। लेकिन इस काम में उनका मन नहीं रमा तो पिता की परम्परा को आगे बढ़ाते हुए राजनीति में सक्रिय हुए और 1957 में महासमुंद लोकसभा क्षेत्र से चुनाव लड़कर सबसे कम उम्र के सांसद बनने का गौरव हासिल किया। पिता मध्यप्रदेश के प्रथम मुख्यमंत्री थे। इसीलिए जब सन 2000 में छत्तीसगढ़ राज्य बना तो यह माना जा रहा था कि शुक्ल ही मुख्यमंत्री बनेंगे लेकिन हाईकमान में कुछ ऐसे समीकरण बैठाए गए कि अजीत जोगी को कमान सौप दी गई। तब विद्याचरण शुक्ल के लोग इस कदर बौखलाए कि उस वक्त शुक्ल के बंगले से बाहर निकलते वक्त दिग्विजय सिंह की पिटाई भी कर दी गई । उनके कपड़े फाड़ दिए गए थे।
छतीसगढ़ के पहले मुख्यमंत्री न बन पाने का मलाल श्री शुक्ल को हमेशा रहा। यही कारण था कि वे नाराज हो कर भाजपा में शामिल हो गए थे। भाजपा की टिकट पर उन्होंने लोकसभा का चुनाव भी लड़ा मगर पराजित हुए। बाद में उन्होंने कांग्रेस का दामन थामा और नक्सली हमले में घायल होने तक कांग्रेस के एक सशक्त सिपाही के रूप में शामिल रहे। इस बार छत्तीसगढ़ में विधानसभा चुनाव होने हैं और यह मान कर चला जा रहा था कि इस बार अगर कांग्रेस सत्ता में आई तो श्री शुक्ल ही मुख्यमंत्री होंगे। लेकिन ये सारी कल्पनाएँ धरी की धरी रह गईं और श्री शुक्ल अपने अधूरे सपनों के साथ विदा हो गए। कभी उन्होंने प्रधानमंत्री बनने का सपना भी देखा था। उसके लिए व्यापक स्तर पर तैयारी भी हो रही थी लेकिन वह योजना भी कारगर नहीं हो पाई और शुक्ल कांग्रेस से विदा हो गए। जीवन में हर सपने पूरे नहीं होते। शुक्ल के सपने भी अधूरे रहे लेकिन आज जब वे अतीत की अनेक गलतियों को भूल कर जीवन के सांध्यकाल में एक बार फिर सक्रिय हो गए तो लोगों ने उन्हें जिजीविषा से भरे नायक के रूप में ही देखा। कल क्या होगा, यह किसने देखा है, लेकिन विद्याचरण शुक्ल एक बार फिर परिवर्तन यात्रा में शरीक हो कर कार्यकर्ताओं में जोश भर रहे थे। कार्यकर्ता उनमें अपना भविष्य तलाश कर रहे थे। लेकिन काल अपने हिसाब से पटकथा लिख रहा था।
अब शुक्ल सचमुच एक 'इतिहास पुरुष' बन गए हैं। नक्सली हिंसा में शहीद लोगों में वे भी शुमार हो गए हैं। उनके जो स्वप्न अधूरे रहे, वे अधूरे ही रह जाएँगे मगर अब उनका मूल्यांकन बिल्कुल अलग तरीके से किया जाएगा। वे छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री नहीं बन सके मगर राष्ट्रीय राजनीति में लम्बी पारी खेलने के कारण उनका केंद्रीय मंत्री वाला कार्यकाल लोग याद करेंगे जिसके कारण उन्होंने छत्तीसगढ़ को गढऩे का काम किया। इस राज्य को देश के साथ कदम से कदम मिला कर चलने के लायक बनाया। छत्तीसगढ़ राज्य तो तेरह साल पहले बना लेकिन बहुत पहले से ही छत्तीगढ़ को शुक्ल बंधुओं ने बहुत कुछ दिया। विद्याचरण शुक्ल के बड़े भाई श्यामाचरण शुक्ल ने जल संकट से मुक्त किया, तो विद्याचरण शुक्ल ने टेलीविजन, रेडियो, हवाई अड्डे समेत अनके केंद्रीय योजनाओं का सीधा लाभ छत्तीसगढ़ को दिलवाया। दिल्ली में रहते हुए वे हमेशा छत्तीसगढ़ के लोगों के बारे में सोचते रहे, छत्तीसगढ़ के विकास के लिए अनेक परियोजनाओं के लिए संघर्षरत रहे। उनके इस योगदान को छत्तीसगढ़ भूल नहीं पाएगा। कभी उनके साथ जुड़ कर कुछ अपराधी किस्म के लोगभी 'तर' गए थे. इस का मलाल श्री शुक्ल को भी था कि उन्होंने कुछ लोगों को पहचानने में बहुत देर कर दी। उनके आसपास स्वार्थ के लिए घेरेबंदी करके बैठे लोगों ने उनके राजनीतिक जीवन को नुकसान पहुँचाया। यही कारण है कि जो सज्जन लोग थे, वे उनसे दूर होते चले गए। ये सारी विसंगतियाँ शुक्ल समय रहते समझ नहीं पाए और 'बहुत देर' देर हो गई। फिर भी वे एक बार फिर साहस के साथ खड़े होने की कोशिश में थे। पुराने अपराधी किस्म के लोगों से दूर हो कर वे नई पीढ़ी के साथ तालमेल बना कर एक नई यात्रा पर निकले थे।
छत्तीसगढ़ में चल रही कांग्रेस की परिवर्तन यात्रा एक तरह से उनके लिए निर्णायक मोड़-सी लग रही थी। लग रहा था कि शायद इस बार शुक्ल अपने उन तेवरों तक पहुँचेंगे जिसके कारण देश की राजनीति में उनकी खास पहचान बनी थी। लेकिन अब ऐसा कुछ नहीं होगा। नफरत में डूबी कुछ गोलियों ने अंतत: एक बूढ़े स्वप्न को साकार होने से रोक दिया। अब केवल यादें हैं। विश्लेषण हैं। शोक है। काश है, किंतु-परंतु है। जो भी हो, विद्याचरण शुक्ल के साथ शुक्ल बंधुओं का वह स्वर्णिम दौर थम गया, जिसके बगैर छत्तीसगढ़ का राजनीतिक इतिहास कभी लिखा ही नहीं जा सकता। और यह भी सच है कि विद्याचरण शुक्ल जैसा राष्ट्रीय स्तर का नेता छत्तीसगढ़ की राजनीति में दोबारा कब पैदा होगा, यह भी विश्वास के साथ नहीं कहा जा सकता।
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सोमवार, 30 जनवरी 2012
छ्त्तीसगढ़ की डायरी
कलेक्टर के 'घटिया' बयान पर भड़के जशपुर के लोग
छत्तीसगढ़ के जशपुर जिले को वहाँ के एक बड़े अधिकारी ने अतिउत्साह में आ कर ' घटिया' कह दिया। अधिकारी की मंशा कुछ और रही होगी, लेकिन अतिउत्साह में विवेक को भी सक्रिय रखना चाहिए। अधिकारी के बयान से दु:खी जशपुर जिले के लोगों ने प्रतिकार किया और जशपुर बंद करके दिखा दिया कि वे 'घटिया बयान' का गाँधीवादी तरीके से प्रतिकार कर सकते हैं। शालीन तरीका यही है। हालांकि जब मुख्यमंत्री ने हस्तक्षेप किया को उच्चाधिकारी महोदय को अपनी गलती का अहसास हुआ और स्वीकार किया की उन्हें ऐसा नहीं कहना था। दूसरे अफसर भी इस उच्चाधिकारी के बयान पर आश्चर्य व्यक्त कर रहे हैं। आदमी जितना ऊँचा उठे, उसे उतना ही विनम्र होना चाहिए, लेकिन इस सोच पर बहुत कम लोग टिक पाते हैं। फिर अगर आदमी कलेक्टर बन जाए तो बहुत कम लोग मनुष्यों जैसा आचरण करते हैं। यह पद की अपनी बुराई है, जिसके शिकार हो कर अनेक लेग बहक जाते हैं। बहरहाल घटिया बयान से आक्रोशित जशपुर जिले के बंद ने यह बात सिद्ध कर दी कि जशपुर जिले के लोग भालेभाले तो हैं, मगर उनकी अस्मिता को ललकारने पर 'भोले' लोग शालीनता के साथ ''भाले'' भी बन सकते हैं।
मिशनरियों की मदद...?
छत्तीसगढ़ के एक आईएएस अधिकारी पर मिशनरियों की मदद करने का आरोप लगा है। और यह आरोप भाजपा सरकार के एक वरिष्ठ नेता ने लगाया है। बनवारीलाल अग्रवाल विधानसभा के उपाध्यक्ष भी रह चुके हैं। उनके बयान को हल्के से नहीं लिया जा सकता। उन्होंने अधिकारी का नाम ले कर खुलेआम यह बात कही है कि उनके संरक्षण में मिशनरियों को प्रोत्साहित किया जा रहा है। इसमें दो राय नहीं कि छत्तीसगढ़ में धर्म परिवर्तन का खेल चल रहा है। हालांकि धर्म परिवर्तन के लिए आदिवासियों की सेवा को माध्यम बनाया जाता है। मिशनरियों की सेवा भावना देख कर बाद में लोग धर्मपिरवर्तन कर लेते हैं। यही कारण है कि कल्याण आश्रम जैसी संस्तोँ सामने आई और वे आदिवासियों की सेवा में लगी हुई हैं।
कुष्ठ रोगी महिला को गाँव से निकाला...
छत्तीसगढ़ में विकास की गंगा बह रही है मगर पिछड़ेपन का नाला भी बजबजाते रहता है। अनेक तरह की बुराइयाँ समय-समय पर सामने आती रहती हैं। कैंसर की तरह कुष्ठ रोग भी राज्य की एक बड़ी समस्या है। सरकार इससे निपटने की काशिश तो कर रही है, मगर जन जागृति की कमी के कारण अनेक लोग कुष्ठ को छूत की बीमारी भी समझने की भूल कर बैठते हैं। यही कारण है कि पिछले दिनों एक गाँव में एक पति ने अपनी कुष्ठ-पीडि़त पत्नी को घर से निकाल दिया, न केवल पति ने निकाला वरन पूरे गाँव के लोगों ने महिला का गाँव से बाहर निकाल दिया। महिला अपने बच्चों के साथ दर-दर भीख मांगने पर मजबूर हो गई। कुष्ठ रोग साध्य है। यही कारण है कि महात्मा गाँधी ने अपने समय में एक कुष्ठ रोगी की सेवा करके संदेश दिया था कि उइस रोग से दूर भागने की जरूरत नहीं है। अब एक बार फिर यह अभियान चलना चाहिए ताकि गाँव के लोग जागरूक हों और कुष्ठ रोगी को सामान्य मरीज समझ कर उसकी सेवा करें। एमडीटी की गोली खाने से कुष्ठ रोग धीरेे-धीरे खत्म हो जाता है। इस बात का प्रचार जरूरी है।
पिता-पत्नी समेत अनेक लोगों की हत्या...
राजधानी में पिछले दिनों एक ऐसा व्यक्ति पुलिस की गिरफ्त में आया जिसने अपने पिता की, पत्नी की, और मामा ससुर समेत कम से कम सात लोगों की निर्मम हत्याएँ कर दीं। पिता को चलती ट्रेन से धकेल दिया था। सिर्फ सनक में। अरुण चंद्राकर नामक यह युवक मनोरोगी नहीं है, स्वस्थ है। लेकिन स्वारथ के चक्कर में पिछले दो-चार सालों के भीतर उसने अपने ही लोगों को मौत के घाट उतार दिया। पिता मामा ससुर, साला, साली समेत अन्य लोगों की जानें ले ली। हत्या कारण ा कोई खास नहीं रहता था। इस भयंकर हत्यारे को देख कर नहीं लगता कि इसने इतनी हत्याएँ की होंगी। हर हत्या के पीछे कहीं आर्थिक मामला था, तो कहीं अपना अहम। समाज में ऐसे लोग भी बढ़ रहे हैं जो असहिष्णुता के शिकार हो कर अपने सगों की जान लेने से भी नहीं पिचकते। इसके पहले बी कुछ मामले सामने आ चुके हैं, जब जमीन या पैसे के विवाद के कारण अपनों ने ही अपनों की जान ले ली।
नकलचोर डॉक्टर की उपाधि छीनी
पी-एच.डी करने के मामले में कभी-कभी यह भी सुनने में आता है कि लोग इधर-उधर का मैटर जोड़-जाड़ कर उपाधि प्राप्त कर लेते हैं। लेकिन पिछले दिनों रायपुर में एक ऐसा मामला सामने आया जिसमें एक प्राध्यापक ने एक नहीं अनेक पृष्ठ जस के तस उतार दिए और पीएचडी की उपाधि हसिल कर ली। बाद में जब पता चला तो लोगों की आँखें फटी की फटी रह गई। आखिर पं. रविशंकर शुुक्ल विश्वविद्यालय ने गुरुदास तोलानी नामक व्यक्ति की उपाधि वापस लेने का निर्णय किया। उस पर और भी मामले चलेंगे ही, मगर इस घटना से पीएचडी करने वालों की साख पर बट्टा लगा है। अपनी नौकरी में तरक्की, वेतनमान में बढ़ोत्तरी आदि के चक्कर में अनेक लोग पीएचडी करते हैं। उनकी मंशा शोध नहीं होती, इसीलिए ऐसे अपराध हो जाते हैं।
पत्रकार के हत्यार कहाँ छिपे बैठे हैं?
रायपुर के पास एक कस्बा है छुरा। एक साल पहले यहाँ के एक पत्रकार उमेश राजपूत को कुछ अज्ञात लोगों ने गोली मार दी थी। लेकिन हत्यारे अब तक लापता हैं। बिलासपुर के पत्रकार सुशील पाठक के हत्यारे भी पकड़ से बाहर हैं। इस मामले में पुलिस की अकर्मण्यता को पत्रकार ही नहीं आम लोग भी कोस रहे हैं, लेकिन इससे पुलिस की सेहत पर कोई असर नहीं पडऩे वाला। पिछले दिनों पत्रकारों ने छुरा में धरना बी दिया और पुलिस की लापरवाही की निंदा भी की। उमेश राजपूत की पत्रकारिता को याद भी किया। सच तो यही है कि पत्रकार या कोई भी केवल इतना ही कर सकता है। असली काम तो पुलिस को करना है हत्यारों तक पहुँचने का।
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मंगलवार, 18 अक्टूबर 2011
छत्तीसगढ़ की चिट्ठी /
छत्तीसगढ़ में आँखफोड़ कांड हो गया मगर इसकी व्यापक हलचल न हुई, क्योंकि कांड सरकारी था। डाक्टरों ने किया था। जी हाँ, सरकारी डॉक्टरों ने। बात अधिक पुरानी नहीं है। कुछ दिन पहले की है। बालोद में स्वास्थ्य शिविर लगाया गया। वहाँ मोतियाबिंद से पीडि़त लोगों को आपरेशन होना था। हुआ भी। मगर ऐसा आपरेशन हुआ कि 25 लोगों ने अपनी रौशनी हमेशा-हमेशा के लिए गँवा दी। माँझी जब नाव डुबोए तो उसे कौन बचाए? यही कहावत लोगों को याद आ रही है। सरकारी ऑपरेशन में ऐसे गैर जिम्मेदार डाक्टर भेजे जाएँगे, जो लोगों की आँखों की रौशनी ही छीन लें, तो उन्हें डॉक्टर कहा जाए या डिफाल्टर? डॉक्टर को भगवान का दूत कहा जाता है मगर जब सरकारी खानापूर्ति का भूत सवार हो जाए तो भगवान का दूत कब शैतान के दूत में बदल जाए, कहना कठिन होता है। अब पीडि़त लोग मांग कर रहे हैं, कि दोषी डॉक्टरों पर कड़ी कार्रवाई की जाए, मगर प्रश्न यही है कि क्या कार्रवाई होगी? क्योंकि डॉक्टर लीपापोती करने में लगे हुए हैं। अगर डाक्टरों पर कार्रवाई न हुई तो सरकारी स्वास्थ्य शिविरों पर प्रश्न चिन्ह लगेंगे, लोग डरेंगे कि सरकारी शिविर में जा कर रिस्क लेना ठीक नहीं। इसके पहले भी नसबंदी के बाद एक-दो लोगों के मौत की खबर भी आ चुकी है। इसलिए यह जरूरी है कि स्वास्थ्य शिविर बला टालने के उपक्रम न बनें, वरन इन शिविरों में सर्वाधिक जिम्मेदार और अनुभवी डॉक्टरों को ही भेजा जाना चाहिए।
जात न पूछो नेता की, मगर...
कबीरदास जी छह सौ साल पहले कह गए कि जात न पूछो साधु की, पूछ लीजिए ज्ञान। मगर हमारा समाज अभी तक जाति-पाति और धर्म के खूँटे से बँधा है। छत्तीसगढ़ के पूर्वमुख्यमंत्री अजीत जोगी की जाति क्या है, इसको ले कर बहुत पहले से विवाद बना हुआ है। वे आदिवासी है, या ईसाई, यही पता नहीं चल पा रहा है। जोगी खुद को आदिवासी कहते हैं। उन्होंने जब चुनाव लड़ा था तो अपनी जाति आदिवासी बताई थी। याचिकाकर्ता ने कहा कि जोगी ईसाई हैं। इसी मामले की जाँच हो रही है। मामला सुप्रीम कोर्ट तक पहुँच गया है। सुको ने राज्य सरकार को निर्देश दिया है कि वही पता करे कि जोगी की जाति क्या है। अब आनन-फानन में एक हाईपॉवर समिति बनाई गई है, जो पता करेगी कि जोगी की जाति क्या है। स्वाभाविक है कि उनके पिता और दादा की जाति पता की जाएगी। कुछ न कुछ तो सच्चाई सामने आएगी ही।
भीड़ की चिंता में....
स्वाभाविक ही है कि किसी बड़े नेता की रैली निकले और भीड़ के बारे में न सोचा जाए? भाजपा के पीएम इन वेटिंड के रूप में चर्चित नेता लालकृष्ण आडवाणी रथ यात्रा पर हैं। यह यात्रा 22 अक्टूबर को रायपुर आएगी। आडवाणी जी की सबा भी होगी। स्वाभाविक है इसके लिए भीड़ चाहिए। इस हेतु भाजपा के बड़े नेता पिछले दिनों बैठे और विचार मंथन किया कि कैसे अधिक से अधिक भीड़ जुटाई जाए। पिछले दिनों जब नेताओं की बैठक हुई तो बताते हैं कि किसी एक नेता ने साफ-साफ कहा कि अनेक लोग अभी मलाईदारों पदों पर काबिज हैं, इनको भीड़ की जिम्मेदारी सौंपी जाए। सचमुच मलाईदार पदवाले कब काम आएँगे? कुछ लोगों के बारे में सभी लोग जानते हैं, कि ये लोग अपना-अपना घर भरने पर तुले हैं, यही समय तो है पार्टी की सेवा का, कुछ मेहनत करें, कुछ गाँठ ढीली करें और लोगों को राजधानी रायपुर तक ला कर आडवाणी जी की सभा को सफल बनाएँ।
छत्तीसगढ़ में मुन्नाभाइयों की भरमार?
बालोद में लापरवाह डॉक्टरों के कारण अनेक लोगों की आँखें चली गईं, क्या ये लोग मुन्नाबाई एमबीबीएस किस्म के लोग तो नहीं थे? मामले की जाँच हो तो ऐसे डॉक्टरों की डिग्रियाँ भी देख लेनी चाहिए। आजकल छत्तीसगढ़ में ऐसे अनेक छात्रा सामने आ रहे हैं, जिन्होंने फर्जी तरीके से मेडिकल में दाखिला पाने में सफलता हासिल कर ली है लेकिन अब जा कर पोल खुली तो भागते फिर रहे हैं। तैंतीस छात्रों पर जुर्म दर्ज हो चुका है। और 24 छात्र ऐसे हैं जो संदेह के दायरे में हैं। लगभग सौ छात्रों पर यह आरोप लगा कि उन्होंने फर्जी तरीके से मेडिकल कालेज में प्रेवश लिया। जिन छात्रों की बुनियाद ही फर्जी है, वे कल को पढ़ाई में भी तिकड़मों के जरिए परीक्षाएँ भी पास कर सकते हैं। ऐसे लोग कल डॉक्टर बनेंगे और किसी का आपरेशन करेंगे तो स्वाभाविक है कि मरीज भगवान का ही प्यारा हो जाएगा। इसलिए यह जरूरी है कि फर्जी छात्रों पर कड़ी कार्रवाई की जाए और उनको अपात्र घोषित किया जाए। इस बात की भी सावधानी बरती जाए कि भविष्य में कोई भी छात्र फर्जी ढंग से प्रवेश पाने के हथकंडे न अपनाए। वरना होता यही है कि जो प्रतिभाशाली है, वे तो किसी कारणवश रह जाते हैं, मगर फर्जी छात्र प्रवेश पाकर एक तरह से योग्य लोगों का ही हक मारते हैं।
छत्तीसगढ़ की 'स्वर्णिम' खेल प्रतिभाएँ
छत्तीसगढ़ में खेल प्रतिभाओं की कमी नहीं है। अगर ईमानदारी से तलाश की जाए तो हर क्षेत्र में यहाँ के खिलाड़ी चमक सकते हैं। मौका मिलना चाहिए। अभी मौका मिला और छत्तीसगढ़ के दो खिलाडिय़ों ने छत्तीसगढ़ को गौरवान्वित कर दिया। दक्षिण अफ्रीका के कामनवेल्थ गेम में छत्तीसगढ़ रुस्तम सारंग और जगदीश विश्वकर्मा ने स्वर्णपदक जीत कर साबित कर दिया कि यहाँ के खिलाडिय़ों को मौका मिल जाए तो वे छत्तीसगढ़ का नाम रौशन कर सकते हैं। राज्य में खेल गतिविधियाँ बढ़ तो रही हैं, मगर अधिकांश खेल संगठनों में पैसे वालों का कब्जा है। कुछ लोगों की सामाजिक छवि भी ठीक नहीं हैं। ये लोग वास्तविक खेल प्रतिभाओं के साथ न्याय नहीं कर सकते। इसलिए खेल संघों में पूर्णकालिक खिलाडिय़ों को ही पदाधिकारी बनाना चाहिए, न कि नेताओं या उद्योगपतियों को। उनको केवल सदस्य बनाया जाए और आर्थिक मदद ली जाए, लेकिन जिम्मेदार पद पर बैठाना उचित नहीं, क्योंकि ये लोग भाई-भतीजावाद और सामंतशाही के शिकार हो जाते हैं। फिर भी प्रतिभा अपना हक प्राप्त कर ही लेती हैं। जैसे अभी दो लोगों ने स्वर्ण पदक जीत कर अपनी प्रतिभा को साबित कर दिखाया। ये लोग गाँव के हैं और सीमित साधनों के सहारे साधना करके यहाँ तक पहुँचे। खेल संघ ऐसे ही लोग की तलाश करे।
गुणवंत व्यास नहीं रहे
यथा नाम तथा गुण। ऐसे थे 72 वर्षीय प्रो. गुणवंत व्यास। संगीत गुरू के रूप में उनकी खास पहचान थी। अभी पिछले महीने उन्हें काका हाथरसी संगीत सम्मान से नवाजा गया था। राज्य सरकार का प्रतिष्ठित चक्रधर सम्मान भी उन्हें मिल चुका था। राज्य की हर बड़े महत्वपूर्ण सांगीतिक आयोजन में व्यास जी की उपस्थिति रहती थी। उनके सिखाए अनेक छात्र आज संगीत की दुनिया में अपने मुकाम पर हैं। पिछले कुछ दिनों से उनकी तबीयत खराब थी। अचानक दो दिन पहले उनका चला जाना संगीत प्रेमियों को दुखी कर गया। संगीत की बारीकियाँ सिखाना और उसी तरह जीवन को संगीतमय बहनाए रखने की कला के धनी थे। उन्होंने साहित्य की भी सेवा की। कुछ गुजराती रचनाओं का उन्होंने से हिंदी अनुवाद भी किया था.
प्रस्तुतकर्ता girish pankaj पर 6:15 am 2 टिप्पणियाँ
गुरुवार, 22 सितंबर 2011
छत्तीसगढ़ में राजयोग-सा वैभव भोग रहे अफसर ....
गिरीश पंकज
पिछले दिनों गाँव से आये एक व्यक्ति को अपने काम के सिलसिले में कुछ ''बड़े'' अफसरों से मिलना पडा. उसे अफसरों के आलीशान चेम्बरों को निकट से देखने का मौका मिला, तो वह हतप्रभ रह गया. उसने अपने मन की बात मुझसे शेयर की. उसका यही कहना था कि जनता की गाढ़ी कमाई किस तरह विलासिता में खर्च की जा रही है? मेरे मित्र की बातों पर मैं विचार करने लगा, वह ठीक कह रहा था.मैंने भी विलासितापूर्ण जीवन जीने के पक्षधर अफसरों को निकट से देखा है. हमारे मुख्यमंत्री डा. रमन सिंह का कक्ष भी मैंने देखा है. आप को आश्चर्य होगा कि वहाँ ऐसा कोई तामझाम नजर नहीं आता, जितना कुछ अफसरों के यहाँ नज़र आता है. मुख्यमंत्री के कार्यालय में एक सादगी है. और सच तो यही है कि सादगी में ही सौन्दर्य है , लेकिन इस राज्य के कुछ छोटे-बड़े अफसर वैभव-विलासपूर्ण सुविधाए जुटाने में इतना आगे निकल गए है कि मत पूछिए. समझ में नहीं आता कि ये प्रशासन चलाने के लिये बैठे हैं या राज्य की जनता के पैसों पर ऐश करने ? चकाचक दीवारें, बेहद कीमती टेबल-कुर्सियां और भव्य दिखाने वाले सोफसेट्स, कमरे में लगा महंगा से महँगा एलसीडी टीवी. और भी अन्य सुविधाए. जैसे महंगे मोबाइल सेट, लेपटाप, और सरकारी पैसे से खरीदी गई बेशकीमती करें आदि..ऐसा नवाबी ठाठ गुलामी के दौर में तो समझ में चल जाता, मगर लोकतंत्र में यह अफसरी- आडम्बर किसी भी देशप्रेमी को चुभ सकता है. मगर यह कटुसत्य है कि अफसर छत्तीसगढ़ में राजयोग-सा वैभव भोग रहे है. अफसर बड़े चालाक होते है. ये जनप्रतिनिधियों को भी विलासिता का स्वाद चखाने की कोशिश करते है, इसलिये गाँव का सीधा-सदा नेता मंत्री बनाने के बाद सामंती मिजाज़ में आ जाता है. इसके पीछे अफसरों का षड्यंत्र होता है. कुछ अफसर अपनी सुविधाओं को बटोरने के लिये पहले मंत्रियों को खुश करते हैं. अफसरों को विदेश घूमना हो, तो वे मंत्रियों के लिये कार्यक्रम बनाते हैं और खुद भी चिपक जाते हैं. एक दशक से यही हो रहा है. अफसरियत इतनी हावी है कि वह साफ़ नज़र आती है.
इस चिंतन को समझने की ज़रुरत है कि सरकारी दफ्तर, या मंत्रालय आदि ऐसे भव्य नहीं होने चाहिए कि गाँव के आदमी को घुसने में भी डर लगे. ये सबके लिये खुले रहने चाहिए. और बेहद सादगीपूर्ण भी होने चाहिए. . ''सादगी के साथ कार्य'' अपने राज्य का नारा होना चाहिए. सरकारी कार्यालय जनता के काम के लिये होते है, तामझाम को दिखाने के लिये नहीं. अगर सूचना के अधिकार के तहत ब्योरे निकलवाएँ जाएँ तो असलियत सामने आ सकती है, कि एक-एक दफ्तर की साज-सज्जा पर कितना खर्च हुआ है. यह बर्बादी है और एक तरह का भ्रष्टाचार ही है. आज हर बड़े अफसर के भव्य कक्ष में महंगे से महंगा टीवी दीवार पर चस्पा है? लोग पूछते हैं कि ये अफसर दफ्तर में काम करना चाहते हैं या टीवी देखना ? लगना ही है तो सरकार हर अफसर के कमरे में 'सीसी टीवी' और कैमरे लगाये, तब पता चलेगा कि ये अफसर किस तरह काम करते हैं. ऐसा हो गया तो पूरा सिस्टम ही सुधार जाएगा. जैसे सूचना का अधिकार कानून के कारण अधिकारी कुछ-कुछ डरने लगे हैं, उसी तरह अगर हर अफसर क्लोज़ सर्किट टीवी की जद में आ जाएगा, तो वह काम करने लगेगा. उसे अपनी छवि कि चिंता रहेगी. इसलिये कम से कम नए रायपुर में तो हर अधिकारी के कमरे में क्लोजसर्किट लगाये जाएँ, ताकि पारदर्शिता बनी रहे. और द्र्तुगति से काम हो. और यह निर्देश तो अनिवार्य रूप से दियें जाएँ कि दफ्तर के वैभव को बढ़ाने की बजाय काम की गति पर ध्यान दिया जाये. लगभग हर सरकारी दफ्तर महंगे से महंगे सामानों के इस्तेमाल कि कोशिश में लगे रहते है. सभी की यही मानसिकता नज़र आती है कि जितना भव्य दफ्तर होगा, उतना नाम होगा, लेकिन नाम काम से होता है. यह बात समझ में पता नहीं कब आयेगी? व्यावसायिक घराने या निजी कंपनियों के दफ्तर भव्य रखने की प्रथा चला पडी है, अब उसी रास्ते पर सरकारी दफ्तर भी चलाने की कोशिश करेंगे, तो यह जनता के पैसों का दुरुपयोग ही कहलायेगा. इस दिशा में मुख्यमंत्री ही कुछ संज्ञान लेंगे तो बात बनेगी, क्योंकि वे सादगी के साथ रहने वाले नेता हैं. अगर फिजूलखर्ची न रोकी गई तो यह सिलसिला चलता रहेगा. नियम तो यही बनाना चाहिए कि कोई भी अफसर अपने दफ्तर को संवारने से पहले उचित कारण बताये, वरना जनता के पैसों का दुरुपयोग इसी तरह जारी रहेगा. विकासशील राज्य का एक-एक पैसा महत्वपूर्ण है. यह अफसरों या जनप्रतिनिधि किसी की भी विलासिता पर खर्च नहीं होना चाहिए.
प्रस्तुतकर्ता girish pankaj पर 10:30 pm 3 टिप्पणियाँ