छत्तीसगढ़ की पुलिस इतनी कमजोर नहीं....
नक्सल समस्या एक अंधेरी रात में तब्दील हो चुकी है, ऐसा लगता है। ऐसा कोई दिन नहीं,जब कोई वारदात न हो। वहाँ रहने वाले लोगों को दहशत के साये में जीना पड़ता है। पुलिस वाले वहाँ जाना नहीं चाहते तो उनको प्रशासनिक डंडा दिखाया जाता है। खैर, काम तो करना ही पड़ेगा। जो पुलिसवाले वहाँ जाने से बचते हैं, उन्हें समझ लेना चाहिए कि खतरा कहाँ नहीं है। जीवन ही खतरे का नाम है और पुलिस में जो आता है, वह खतरों का खिलाड़ी बन जाता है। वरदी का मतलब है कि सिर पर कफन बाँध कर निकल पड़े हैं। सुविधाएँ यहाँ नहीं है। यहाँ संघर्ष है। चुनौतियाँ हैं। नक्सलवाद सबसे बड़ी चुनौती है। उससे भागने का मतलब है हम यह बता रहे हैं कि हम कायर है। जबकि वरदी वहीं पहनता है जो हिम्मती होता है। अगर पुलिस वाले नक्सल प्रभावित क्षेत्रों में जाने से घबराएंगे तो नक्सलियों के हौसले तो और बढ़ेंगे। इसलिए हिम्मत से काम लें और नक्सलियों से लोहा लें। छत्तीसगढ़ की पुलिस कमजोर नहीं, बहादुर है। यह संदेश पूरे देश तक जाना चाहिए।
नक्सल -अंधेरा: कब होगी सुबह?
वैसे पुलिस के जवानों को बहादुरी का सबक तो सिखाना आसान है, लेकिन यथार्थ यही है, कि वहाँ सरकार नाकाम-सी हो रही है। अभी सात जवानों का अपहरण किया गया । तीन को तो हत्या ही कर दी गई। चार अभी बंधक हैं। यह सब नक्सली आतंकवाद को दर्शाने का एक तरीका है। बंधक बने लोगों के परिजन किन मानसिक दौरों से गुजर रहे हैं, यह उनके बयानों से समझा जा सकता है। वे लोग नक्सलियों से अनुरोध कर रहे हैं, कि हमारे घर वालों को छोड़ दो तो वे लोग पुलिस की नौकरी ही छोड़ देंगे। उनकी जान बख्श दो। आदि-आदि। छोटे-छोटे बच्चे अपील कर रहे हैं लेकिन क्या नक्सली कुछ रहम करेंगे? अगर वे रहम करना जान लें तो नक्सली ही क्यों रहते? आम लोगों की समझ में नहीं आ रहा है कि आखिर इस रात की सुबह कब होगी। लेकिन धैर्य रखना ही होगा। क्योंकि सुबह अवश्य आएगी। शांति का सूरज चमकेगा ही।
ओ आँखवाले डॉक्टर, देखकर काम करो
हद है लापरवाही की। पिछले दिनों विश्रामपुर की एक तीन वर्षीय बच्ची की आँख में चोट लगी तो परिजनों ने अंबिकापुर के डाक्टर को दिखाया। डॉक्टर ने कुछ उपचार किया और आँख पर पट्टी बाँध दी। दो दिन बाद छुट्टी भी दे दी। मगर आँख में दर्द बना रहा। बाद में पता चला कि अंबिकापुर के डॉक्टर ने तो बच्ची की आँख ही निकाल दी और डुप्लीकेट आँख लगा दी है। बच्ची की आँख में दर्द रहने लगा तो घर वाले बच्ची को लेकर रायपुर आए। एक जाने-माने डॉक्टर को दिखाया तब मामला सामने आया। घर वालों ने गैरजिम्मेदार डॉक्टर के खिलाफ विश्रामपुर थाने में रिपोर्ट लिखाई है। अब डॉक्टर महोदय सफाई में कह रहे हैं, कि घर वालों के कहने पर बच्ची की आँख निकाली थी। घर वालों की सहमति अगर थी तो घर वालों ने थाने में रिपोर्ट ही क्यों लिखाई? मामला गंभीर है। भयंकर किस्म की आपराधिक लापरवाही का है। डॉक्टर की लापरवाही केकारण एक नन्ही बच्ची की एक आँख चली गई, इसका दर्द बच्ची और उसके परिजन ही समझ सकते हैं।
वाह रे गांजा-तस्कर सरपंच....?
सरपंच मतलब गाँव का प्रधान ..राजा। लेकिन बहुत-से गाँवों में सरपंचों की लापरवाही और लालच के कारण शराब और तरह-तरह की नशाखोरी फल-फूल रही है। गाँव के गाँव तबाह हो रहे हैं। पिछले दिनों रायपुर जिले के सुदूर गाँव का एक सरपंच गांजा-तस्करी में लिप्ट मिला। दूसरे लोग तो पकड़े गए मगर सरपंच पुलिस की गिरफ्त में आने के पहले ही वह फरार हो गया। लेकिन इससे एक बात तो साफ हो गई कि सरपंच की शह में गाँजे का कारोबार चल रहा था। एक सरपंच पकड़ा गया। अभी कुछ पकड़ सेबाहर हैं। अनेक गाँव आज नशे के केंद्र बनते जा रहे हैं। पचं-सरपंचों की सहमति के चलते शराब दूकाने खुल रही है।
पुस्तक-मेले की परम्परा विकसित हो
बिलासपुर में पुुस्तक मेला शुरु हो गया है। 3 अक्टूबर तक चलेगा। रायपुर में लगने वाला है। लेकिन अनुभव यही आया है कि इन पुस्तक मेलों में बहुत अधिक खरीदी नहीं होती। ये पुस्तक मेले में केवल दर्शनीय बन कर रहा जाते हैं। लोग पुस्तकों के पास तो आते हैं। मगर बाजार से गुजरा हूँ खरीदार नहीं हूँ जैसी पंक्ति को सार्र्थक करते हुए निकल लेते हैं। जबकि अन्य राज्यों में होने वाले पुस्तक मेलों के बारे में सुन-पढ़ कर बड़ा आश्चर्य होता है, कि वहाँ साधारण से साधारण आदमी अच्छी खरीदारी करता है। छत्तीसगढ़ में पुस्तक-मेले की संस्कृति अभी बन रही है। यह शुरुआत है। यह सिलसिला चलता रहेगा तो भविष्य में पुस्तकें भी खरीदी जाएँगी। अभी तो सरकारी खरीदी भर होती है। वह भी इसलिए कि कुछ अफसरों को खासा कमीशन मिल जाता है। वे लाल हो जाते हैं। फिर भी इन पुस्तक मेलों का दिल से स्वागत होना चाहिए और छत्तीसगढ़ के दूरदराज स्थानों में रहने वाले कभी रायपुर-बिलासपुर जाएं तो मेलों तक भी जाकर कुछ न कुछ पुस्तकें जरूर खरीदें।