गुरुवार, 22 सितंबर 2011

छत्तीसगढ़ में राजयोग-सा वैभव भोग रहे अफसर ....

 हर अफसर के कमरे में 'सीसी टीवी'-कैमरे लगाये, तब पूरा सिस्टम सुधार जाएगा
                                गिरीश पंकज
    पिछले दिनों गाँव से आये एक व्यक्ति को अपने काम के सिलसिले में कुछ ''बड़े'' अफसरों से मिलना पडा. उसे अफसरों के आलीशान चेम्बरों को निकट से देखने  का मौका मिला, तो वह हतप्रभ रह गया. उसने अपने मन की बात मुझसे शेयर की. उसका यही कहना था कि जनता की गाढ़ी कमाई किस तरह विलासिता में खर्च की जा रही है? मेरे मित्र की बातों पर मैं विचार करने लगा, वह ठीक कह रहा था.मैंने भी विलासितापूर्ण जीवन जीने के पक्षधर अफसरों को निकट से देखा है.  हमारे मुख्यमंत्री डा. रमन सिंह का कक्ष भी मैंने देखा है. आप को आश्चर्य होगा कि वहाँ ऐसा कोई तामझाम नजर नहीं आता, जितना कुछ अफसरों के यहाँ नज़र आता है. मुख्यमंत्री के  कार्यालय में एक सादगी है. और सच तो यही है कि सादगी में ही सौन्दर्य है , लेकिन इस राज्य के कुछ छोटे-बड़े अफसर वैभव-विलासपूर्ण सुविधाए जुटाने में इतना आगे निकल गए है कि मत पूछिए. समझ में नहीं आता कि ये प्रशासन चलाने के लिये बैठे हैं या राज्य की जनता के पैसों पर ऐश करने ? चकाचक दीवारें, बेहद कीमती टेबल-कुर्सियां और भव्य दिखाने वाले सोफसेट्स, कमरे में लगा महंगा से महँगा एलसीडी टीवी. और भी अन्य सुविधाए. जैसे महंगे मोबाइल सेट, लेपटाप, और सरकारी पैसे से खरीदी गई बेशकीमती करें आदि..ऐसा  नवाबी ठाठ गुलामी के दौर में तो समझ में चल जाता, मगर लोकतंत्र में यह अफसरी- आडम्बर किसी भी देशप्रेमी को चुभ सकता है.  मगर यह कटुसत्य है कि अफसर छत्तीसगढ़ में राजयोग-सा वैभव  भोग रहे है. अफसर बड़े चालाक  होते है. ये जनप्रतिनिधियों को भी विलासिता का स्वाद चखाने की कोशिश करते है, इसलिये गाँव का सीधा-सदा नेता मंत्री बनाने के बाद सामंती मिजाज़ में आ जाता है. इसके पीछे अफसरों का षड्यंत्र  होता है. कुछ अफसर अपनी सुविधाओं को बटोरने के लिये पहले मंत्रियों को खुश करते हैं. अफसरों को विदेश घूमना हो, तो वे मंत्रियों के लिये कार्यक्रम बनाते हैं और खुद भी चिपक जाते हैं. एक दशक से यही हो रहा है. अफसरियत इतनी हावी है कि वह साफ़ नज़र आती है.

   आदमी जिस वातावरण में रहेगा उसका असर उसकी सोच पर भी पडेगा. लेकिन यहाँ के अफसर  'सादा जीवन को तुच्छ विचार' समझते है.  क्या छोटे, क्या बड़े, हर स्तर के अफसर जनता के पैसों का दुरुपयोग अपने-अपने दफ्तरों को चमकाने में कर रहे है. इस तरफ अगर मुख्यमंत्री ध्यान दे कर अफसरों पर लगाम कस दें, तो सब ठीक हो  जायेंगे. अब मंत्रालय और अन्य दफ्तर धीरे-धीरे नए रायपुर में शिफ्ट होंगे, वहाँ इस बात पर ध्यान देने की ज़रुरत है कि पुराने फर्नीचरों,  सोफासेटों आदि से ही काम चलाया जाये. तामझाम पर अतिरिक्त  खर्च न किया जाये. वैभव पूर्ण दफ्तर, कारों आदि से विकास नहीं होता, विकास के लिये त्वरित गति से कामकाज निपटाना ज़रूरी है. उस दिशा में हमारे अफसर बेहद ढीले हैं. जन प्रतिनिधियों के आदेशों को भी दरकिनार रख देने वाले अनेक अफसर स्वेच्छाचारिता के कारण बदनाम हैं. इन पर मुख्यमंत्री जी जब तक लगाम नहीं कसेंगे, प्रदेश का भला नहीं हो सकेगा. वरना इन अफसरों के कराण प्रदेश का बहुत-सा धन फिजूलखर्ची  में ही  नष्ट हो रहा है. इसे रोकना ज़रूरी है.
    इस चिंतन को समझने की ज़रुरत है कि  सरकारी दफ्तर, या मंत्रालय आदि ऐसे भव्य नहीं होने चाहिए कि गाँव के आदमी को घुसने में भी डर लगे. ये सबके लिये खुले रहने चाहिए. और बेहद सादगीपूर्ण भी होने चाहिए. . ''सादगी के साथ कार्य'' अपने राज्य का नारा होना चाहिए. सरकारी  कार्यालय जनता के काम के लिये होते है, तामझाम को दिखाने के लिये नहीं. अगर सूचना के अधिकार के तहत ब्योरे निकलवाएँ जाएँ तो असलियत सामने आ सकती है, कि एक-एक दफ्तर की साज-सज्जा पर कितना खर्च हुआ है. यह बर्बादी है और एक तरह का भ्रष्टाचार ही है. आज हर बड़े अफसर के भव्य कक्ष में महंगे से महंगा टीवी दीवार पर चस्पा है? लोग पूछते हैं कि ये अफसर दफ्तर में काम करना चाहते हैं या टीवी देखना ? लगना ही है तो सरकार हर अफसर के कमरे में 'सीसी टीवी' और कैमरे लगाये, तब पता चलेगा कि ये अफसर किस तरह काम करते हैं. ऐसा हो गया तो पूरा सिस्टम ही सुधार जाएगा. जैसे सूचना का अधिकार कानून के कारण अधिकारी  कुछ-कुछ डरने लगे हैं, उसी तरह अगर हर अफसर क्लोज़ सर्किट टीवी की जद में आ जाएगा, तो वह काम करने लगेगा. उसे अपनी छवि कि चिंता रहेगी. इसलिये कम से कम नए रायपुर में तो हर अधिकारी के कमरे में क्लोजसर्किट  लगाये जाएँ, ताकि पारदर्शिता बनी रहे. और द्र्तुगति से काम हो. और यह निर्देश तो अनिवार्य रूप से दियें जाएँ कि दफ्तर के वैभव को बढ़ाने की बजाय काम की  गति पर ध्यान दिया जाये. लगभग हर सरकारी दफ्तर महंगे से महंगे सामानों  के इस्तेमाल कि कोशिश में लगे रहते है. सभी की यही मानसिकता  नज़र आती है कि जितना भव्य  दफ्तर होगा, उतना नाम होगा, लेकिन नाम काम से होता है. यह बात समझ में पता नहीं कब आयेगी? व्यावसायिक घराने या निजी कंपनियों के दफ्तर भव्य रखने की प्रथा चला पडी है, अब उसी रास्ते पर सरकारी दफ्तर भी चलाने की कोशिश करेंगे, तो यह जनता के पैसों का दुरुपयोग ही कहलायेगा. इस दिशा में मुख्यमंत्री ही कुछ संज्ञान लेंगे तो बात बनेगी, क्योंकि वे सादगी के साथ रहने वाले नेता हैं. अगर फिजूलखर्ची न रोकी गई तो यह सिलसिला चलता रहेगा. नियम तो यही बनाना चाहिए कि कोई भी अफसर अपने दफ्तर को संवारने से पहले उचित कारण बताये, वरना जनता के पैसों का दुरुपयोग इसी तरह जारी रहेगा. विकासशील राज्य का एक-एक पैसा महत्वपूर्ण है. यह अफसरों या जनप्रतिनिधि किसी की भी  विलासिता पर खर्च नहीं होना चाहिए.

बुधवार, 21 सितंबर 2011

सुप्रिया रॉय को आलइंडिया स्माल न्यूज पेपर्स एसोसिएशन ने सम्मानित किया.

आलोकजी की याद में पुरस्कार दिया जायेगा

मेरे दिवंगत बड़े भ्राता-तुल्य एक समूची पीढी के आइडियल बन चुके जंगजू पत्रकार आलोक तोमरजी के बारे में अब कुछ भी कहने-लिखने में जो तकलीफ होती रही है उसका बयान भी पीड़ा देता है. इसी साल 20 मार्च को उनके देहावसान के अकस्मात् घावों को भरने में समय लगेगा, यादें ही संबल बनेंगी. यादों के समंदर उफनते व बिछोह की हिलोरें जगाते है.

उनके बारे में आइसना के महासचिव विनय डेविड ने जो मेल भेजा है वह सराहनीय है. स्वागत योग्य है. संगठन के प्रांतीय अध्यक्ष अवधेश भार्गव ने आलोक तोमर की स्मृति में हर साल एक चयनित जांबाज पत्रकार को पच्चीस हजार रुपये का पुरस्कार देने की घोषणा की है. यह घोषणा भोपाल में की गयी जहां आलोकजी की पत्नी सुप्रिया रॉय को आल इंडिया स्माल न्यूज पेपर्स एसोसिएशन ने सम्मानित किया.
एक धूमकेतू की तरह हिन्दी बैल्ट पर छा जाने वाले पत्रकार आलोकजी ने अर्श से फर्श तक का सफ़र तय किया और वे गर्दिशों के दौर में भी वे कभी विचलित नही हुए. वे एक जंगजू की तरह पत्रकारिता की जद्दोजहद में जमे और डट कर चुनौतियों से लड़े. लेखक के रूप में आलोकजी एक रोल माडल बन बीमारी के दिनों में भी कीमोथेरेपी कराते हुए भी लिखते . खरा लिखते . तथ्यों के साथ लिखते और आख़िरी के दिनों में उन्होंने बड़े-बड़ों को उधेड़ डाला. सच बोलने के खतरे जिए . कार्टून विवाद में जेल भी गए मगर तन कर खड़े रहे . उनमें जोखिम लेने का जज्बा था. किसी ने लिखा अगर खबर है तो है ,चाहे वो बरखा दत्त हों वीर संघवी हों या उनके अभिन्न मित्र ओमपुरी हों या फिर कोई और. अगर खबर का वो हिस्सा हैं तो आप आलोक जी से पास-ओवर की उम्मीद बिलकुल न करें. वे छाप देते थे डंके की चोट पर. इस दौर में जहां पत्रकारिता की दुनिया बाजारु हो चुकी है, उस दौर में आलोक तोमरजी ने गंभीर सरोकारों वाली पत्रकारिता की. पत्रकारिता को लेकर उनके बारे में उनके शब्दों में ही कहूँ तो दो बार तिहाड़ जेल और कई बार विदेश हो आए और उन्होंने भारत में कश्मीर से ले कर कालाहांडी के सच बता कर लोगों को स्तब्ध भी किया . दिल्ली के एक पुलिस अफसर से पंजा भिडा कर जेल भी गए . झुकना तो सीखा ही नही. वे दाऊद इब्राहीम से भी मिले और सीधी-सपाट बात की जिसे सरेआम छापा. जब उनको एक कार्टून मामले में जेल जाना पड़ा तो साफ़ कहा एक सवाल है आप सब से और अपने आप से। जिस देश में एक अफसर की सनक अभिवक्ति की आजादी पर भी भरी पड़ जाए, जिस मामले में रपट लिखवाने वाले से ले कर सारे गवाह पुलिस वाले हों, जिसकी पड़ताल, 17 जांच अधिकारी करें और फिर भी चार्ज शीट आने में सालों लग जायें, जिसमें एक भी नया सबूत नहीं हो-सिवा एक छपी हुई पत्रिका के-ऐसे मामले में जब एक साथी पूरी व्यवस्था से निरस्त्र या ज्यादा से ज्यादा काठ की तलवारों के साथ लड़ता है तो आप सिर्फ़ तमाशा क्यों देखते हैं?

समर शेष है, नही पाप का भागी केवल व्याध
जो तटस्थ है, समय लिखेगा, उनका भी अपराध


जनसत्ता में अपनी मार्मिक खबरों से चर्चा में आये आलोक तोमरजी ने सिख दंगों से लेकर कालाहांडी की मौत को इस रूप में सामने रखा कि पढ़नेवालों का दिल हिल गया. कुछ वैसे ही जैसे हर खबर सिर्फ खबर नहीं होती ,कभी कभी ख़बरों को अखबारनवीस जीता भी है उन्हें खाता भी है उन्हें पीता भी है,ख़बरों को जीने वाले ही आलोक तोमर कहलाते हैं. मौत एक दिन सबको आनी है. अन्ना हजारे ने भी कहा है की उनको सुरक्षा नही चाहिए क्योंकि हार्ट अटैक तो कोई नही रोक सकता. आलोक कैंसर से लड़े ,लड़ते शेर ही हैं ,बाकी आत्मसमर्पण कर देते हैं ,एक ऐसे वक्त में जब लड़ने की बात पर है तो सब चाहते हैं इस देश में भगत सिंह पैदा तो हो मगर पड़ोसी के यहाँ हो. इस दौर में आलोक जी का ये जज्बा था कि संघर्ष में वे झुके नही, रुके नही., थके नही, लड़े आन बान शान से और मूल्यों के लिए लड़े. कलम की खातिर लड़े. ख़बरों की खतिर लड़े. पूछा जाए उन सिख परिवारों से जिनको न्याय दिलाने के लिए वे लड़े. जिनके खिलाफ एक शब्द भी लिखने से लोग कतराते थे ,लेकिन आलोक जी ने साहस के साथ उनके बारे में भी लिखा.
आलोक तोमरजी ने सत्रह साल की उम्र में एक छोटे शहर के बड़े अखबार से जिंदगी शुरू की. दिल्ली में जनसत्ता में दिल लगा कर काम किया और अपने संपादक गुरू प्रभाष जोशी के हाथों छह साल में सात पदोन्नतियां पा कर विशेष संवाददाता बन गए। फीचर सेवा शब्दार्थ की स्थापना 1993 में कर दी थी और बाद में इसे समाचार सेवा डेटलाइन इंडिया.कॉम बनाया।
11 मार्च को उन्होंने लिखा
मै डरता हूं कि मुझे
डर क्यो नहीं लगता
जैसे कोई कमजोरी है
निरापद होना..
वे जीवन भर जुझारू रहे.. आइसना (आल इंडिया स्माल न्यूज पेपर्स एसोसिएशन) द्वारा महानतम लेखनी के धनी और हजारों पत्रकारों के प्रेरणा-स्रोत आलोक तोमर की स्मृति में हर साल किसी जांबाज पत्रकार को पच्चीस हजार रुपये का पुरस्कार दिए जाने की घोषणा वंदनीय और अभिनंदनीय है.
संयोजक आलोक मित्र मंच के डी दयाल और मेरी भी राय में भी दरअसल यह घोषणा तो मध्य प्रदेश सरकार को करनी चाहिए जिसे नाज होना चाहिए कि आलोकजी वहां जन्मे और देश-दुनिया में मध्य प्रदेश का मान बढ़ाया. एक तरफ हम यह भी देखते हैं, इंदौर प्रेस क्लब ने भी घोषणा कर दी कि वे लोग हर साल भाषाई महोत्सव में एक यशस्वी पत्रकार को आलोक तोमर की स्मृति में पुरस्कार देंगे ताकि आलोक तोमर के नाम व काम को जिंदा रखा जा सके. इस घोषणा की खबरें भी प्रकाशित हुई मगर आइसना ने कम से कम उनको सच्चे तौर पर याद तो किया है और आशा है आल इंडिया स्माल न्यूज पेपर्स एसोसिएशन इस वायदे को निभाएगा.
                                                                       रमेश शर्मा 
                                                            (यायावर ब्लॉग)

सोमवार, 19 सितंबर 2011

हम अपने सपने भी हिंदी भाषा में ही देखते हैं


बालकोनगर में हर वर्ष की तरह इस वर्ष भी हिंदी दिवस पर साहित्यिक सांस्कृतिक कार्यक्रमों की अविरल धारा बहती रही. भारत एल्यूमिनियम कंपनी लिमिटेड (बालको) प्रबंधन द्वारा आयोजित हिंदी सप्ताह-2011 के अंतर्गत मुख्य कार्यक्रम बालकोनगर के सेक्टर-1 स्थित प्रगति भवन में धूमधाम से मना ।
वक्ताओं ने हिंदी भाषा की परंपरा, उसके मजबूत पक्षों तथा भाषा विकास में आने वाली बाधाओं के विषय में विस्तार से चर्चा की।

कार्यक्रम के मुख्य अतिथि दैनिक नई दुनिया, रायपुर के संपादक रवि भोई, कार्यक्रम अध्यक्ष छत्तीसगढ़ हिंदी ग्रंथ अकादमी के अध्यक्ष एवं वरिष्ठ पत्रकार रमेश नैयर, विशिष्ट अतिथि वरिष्ठ पत्रकार गिरीश पंकज, राष्ट्रीय सहारा के ब्यूरो चीफ रमेश शर्मा, बालको के मानव संसाधन प्रमुख अमित जोशी तथा बालको के प्रशासन महाप्रबंधक के.एन. बर्नवाल सहित अन्य विशिष्ट जनों की उपस्थिति में हिंदी सप्ताह के दौरान आयोजित काव्य-पाठ, निबंध-लेखन और भाषण स्पर्धा के विजेता छात्र-छात्राओं को पुरस्कार दिए गए ।

श्री नैयर ने कहा कि मातृ भाषा हमारी सांसों में बसती है। हम अपने सपने भी हिंदी भाषा में ही देखते हैं। प्रेम की भाषा हिंदी है। हमें अपनी भाषा पर गर्व होना चाहिए।
श्री भोई ने कहा कि हिंदी को आगे ले जाने के लिए स्कूलों और घरों में बच्चों से शुरूआत करनी होगी। हिंदी भाषा संबंधी भेदभाव को समाप्त करना होगा।
श्री पंकज ने कहा कि हिंदी भाषा गैर हिंदी भाषियों के हाथों में अधिक सुरक्षित है। उन्होंने गांधी जी के शब्दों का उल्लेख करते हुए कहा कि सच्चा सुराज हिंदी के रास्ते ही आ सकता है।
श्री जोशी और श्री बर्नवाल का जोर था की कि हमें निश्चित ही अंग्रेजी और अन्य भाषाएं सीखनी चाहिए परंतु यह भी ध्यान रखना होगा कि इससे राष्ट्रभाषा को नुकसान न हो।
6वीं से 8वीं कक्षा वर्ग के लिए आयोजित काव्य पाठ स्पर्धा में अंकुश पांडेय को प्रथम, अंशु विश्वकर्मा को द्वितीय और प्रभात कुमार जांगड़े को तृतीय पुरस्कार मिला। आयुश धर द्विवेदी और अम्बरीश पांडेय को सांत्वना पुरस्कार दिया गया। 9वीं से 12वीं कक्षा के लिए आयोजित भाषण प्रतियोगिता में संजना साहू को पहला पुरस्कार मिला। श्वेता तिवारी को दूसरा और प्रिया त्रिवेदी को तीसरा पुरस्कार मिला। गौतम सिदार और रंजन कुमार सिंह को सांत्वना पुरस्कार दिया गया। 9वीं से 12वीं कक्षा के लिए आयोजित निबंध लेखन में रंजन, कुमार सिंह, शशांक दुबे और अविनाश तिवारी क्रमशरू पहले, दूसरे और तीसरे स्थान पर रहे। शुभम यादव और दिशा चंद्रा को सांत्वना पुरस्कार दिया गया। निबंध लेखन के 11वीं से 12वीं कक्षा वर्ग में श्रद्धा कुंभकार को पहला, किरण गोस्वामी को दूसरा और रेणुका कंवर को तीसरा पुरस्कार दिया गया। प्रिया त्रिवेदी और आयशा खातून को सांत्वना पुरस्कार मिला।

अतिथियों ने बालको आयोजित हिंदी सप्ताह की सराहना करते हुए स्पर्धा के प्रतिभागियों की हौसला अफजाई की।
बालको के कंपनी संवाद महाप्रबंधक बी.के. श्रीवास्तव ने स्वागत उद्बोधन में बताया कि छत्तीसगढ़ सरस्वती साहित्य समिति के सचिव महावीर प्रसाद चंद्रा ‘दीन’ द्वारा शेक्सपीयर के नाटक ‘ए मिडसमर नाइट्स ड्रीम’ के छत्तीसगढ़ी भावानुवाद ‘मया के रंग’, समिति के कोषाध्यक्ष रविंद्रनाथ सरकार रचित काव्य संग्रह ‘सुबह का सूरज’, समिति के पदाधिकारी लोकनाथ साहू रचित नाट्य संकलन ‘रंगविहार’ और समिति के पूर्व अध्यक्ष प्रमोद आदित्य रचित काव्य संग्रह ‘अगोरा’ का प्रकाशन बालको के सौजन्य से हुआ है.
देवी सरस्वती के समक्ष दीप प्रज्ज्वलित कर कार्यक्रम की शुरूआत हुई जिसमे विभिन्न साहित्यिक संगठनों के पदाधिकारी, कोरबा के अनेक साहित्यकार, बालकोनगर के विभिन्न स्कूल के शिक्षक-शिक्षिकाएं, बड़ी संख्या में विद्यार्थी और बालको महिला मंडल की अनेक पदाधिकारी मौजूद थीं। कार्यक्रम का संचालन छत्तीसगढ़ सरस्वती साहित्य समिति के अध्यक्ष शुकदेव पटनायक ने किया। सचिव महावीर प्रसाद चंद्रा ने आभार जताया। इस अवसर पर राष्ट्रीय धर्म ऊर्जा के संपादक विकास जोशी और दैनिक नई, दुनिया के सह-संपादक सुनील गुप्ता भी मौजूद थे।
कार्यक्रम में अगले दिन काव्य गोष्ठी का आयोजन स्मरणीय रहा|

सुनिए गिरीश पंकज को