मंगलवार, 27 अप्रैल 2010

व्यंग्य / मूर्ति की 'एडवांस बुकिंग

मित्रो, ''सद्भावना दर्पण'' नामक इस चिट्ठे को मैंने बहुत पहले ही बना लिया, था, लेकिन मेरी लापरवाही के कारण ''चिट्ठाजगत'' में इसका विधिवत ''पंजीकरण'' नहीं हो पाया था. संयोगवश कल ही हुआ. आप कह सकते हैं, कि एक चिट्ठी मैंने बहुत पहले ही लिख ली थी,मगर उसे 'पोस्ट' कल ही किया. कल किया और देखिये कितनी जल्दी आप तक पहुँच भी गई. अब लगता है, कि 'सद्भावना दर्पण'' के माध्यम से मैं अपने गद्यकार को आप तक पहुंचा सकूंगा. इसमे मेरी पत्रकारिता और मेरा गद्य साहित्य दोनों रहेगा. साहित्य और पत्रकारिता दोनों क्षेत्र में सक्रिय रह कर समाज की सेवा करने का विनम्र प्रयास करता रहा हूँ, आप लोगों का प्रोत्साहन मिला तो सिलसिला चलता रहेगा. मेरी कविताओं वाले ब्लॉग को आपने प्यार-दुलार दिया. अब 'सद्भावना दर्पण'' को भी आपकी सद्भावना चाहिए.
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मूर्ति की 'एडवांस बुकिंग
मूर्ख लोग ईमानदारी के साथ समाज-सेवा करते हैं और बुद्धिमान लोग अपनी मूर्तियाँ बनवाने में लगे रहते हैं।
अनेक शोधों के बाद यही निष्कर्ष निकला है, कि ऐसा करने वाले कुछ अतिरिक्त किस्म के समझदार होते हैं। अपने जीवित रहते ही अपनी मूर्तियाँ बनवाने वाले लोग मरने के बाद की तैयारी कर लेते हैं। उनके जीते-जी मूर्ति बन जाने से यह फायदा होता है, कि वे इत्मीनान के साथ मरते हैं। बिल्कुल ही टेंशन-फ्री हो कर। वे तो बेचारे बस, इतना ही चाहते हैं, कि जब कभी वे मर-मुरा जाएँ तो किसी चौराहे पर उनकी मूर्ति-फूर्ति लग जाए।
ऐसे ही एक बुद्धिमान व्यक्ति से एक मूर्तिकार के घर में मुलाक़ात हो गयी। नाम था लतखोरीलाल।
हमने पूछा - ''लगता है, किसी महापुरुष की प्रतिमा बनवाने के लिए आए हुए हैं।''
वे हँस पड़े। बोले कुछ भी नहीं।
हमने पूछा - ''किसकी प्रतिमा बनवा रहे हैं ? भगत सिंह की ? चंद्रशेखर आजाद की ? सुभाषचंद्र बोस की ? या किसी और शहीद की ?''
वे फिर हँस पड़े। कुछ-कुछ शरमाए से। मेरे बहुत कुरदने पर बोले ''अरे, इतने बड़े-बड़े महापुरुषों के नाम लेकर आप मुझे धर्म संकट में क्यों डाल रहे हो भई!''
मैं चौंका। महापुरुष छोटा या बड़ा भी होता है क्या ? फिर भी मैंने पूछा - ''बड़ा महापुरुष नहीं तो क्या, कोई छोटा महापुरुष है क्या, जिसकी प्रतिमा बनवा रहे हैं आप!''
वे फिर भी लजाए-मुसकाए खड़े रहे।
मैंने कहा - ''अरे साब, बेसब्री बढ़ती जा रही है। जल्द ही खुलासा कीजिए न, कि आखिर किस महापुरुष की प्रतिमा बनवाने आए हैं ? अपनी तो बनवाने से रहे। प्रतिमाएँ हमेशा महापुरुषों की ही बनती है। फिर चाहे वह स्थानीय स्तर का,  या फिर राष्ट्रीय स्तर का। वैसे तो महापुरुष केवल महापुरुष ही होता है। वह किसी क्षेत्र के खूँटे से बँध ही नहीं सकता। बहरहाल, अब तो बता दीजिए उस महापुरुष का नाम ?''
वे इस बार बत्तीस दिखाते हुए बोले - ''लत.. खोरी..लाल की।''
मुझे चक्कर आने लगा। खुद को संभालते हुए बोला - ''क्या.. क्या कहा आपने ? लतखोरीलाल ? यानी कि आप ? बाप रे बाप! अपनी ही प्रतिमा बनवा रहे हैं आप!''
लतखोरीलाल तनिक गंभीर हो गए। कहने लगे - ''क्या हम इस लायक नहीं कि हमारी किसी जगह प्रतिमा लग सके?'' मैंने कहा - ''क्यों नहीं, आपके अपने घर में, घर के आंगन में तो लग ही सकती है। इसके लिए मरने की ज़रूरत ही नहीं है। जीते जी लग सकती है प्रतिमा। आप प्रतिमा लगाएं माला चढ़ाने हम आ जाया करेंगे।''
लतखोरी लाल बोले - ''अरे भई, घर में अपनी प्रतिमा लगवाए तो काहे के महापुरुष ? हम तो अपनी प्रतिमा शहर के किसी व्यस्त चौराहे पर ही लगवायेंगे। और वो भी जीते जी।''
''लेकिन अक्सर तो यही देखा गया है कि किसी के मरने के बाद ही प्रतिमा लगती है।''
मेरे प्रश्न पर लतखोरीलाल बोले - ''अरे ये जीना भी कोई जीना है साब! कोई घास ही नहीं डालता! पूछता तक नहीं।''
मैंने कहा - ''भई, पूछ-परख तो उनकी होती है जो कुछ काम् करके दिखाए। आपने कुछ ऐसे काम तो किए नहीं कि लोग आपको घास डालें।'' लतखोरीलाल बोले - ''वाह साहब, आप कहते हैं, हमने कुछ किया ही नहीं! देखिए, जोरदार धंधा किया, डटकर कमाई की। आलीशान घर बनवाया अपने सारे रिश्तेदारों को मालामाल कर दिाय। अभी शहीदों के परिवारों के लिए भी हमने बहुत बड़ी रकम दान की थी।''
''अच्छा, क्या एक लाख ?''
''नहीं, थोड़ा सा कम।''
''पचास हजार ?''
''नहीं, उससे भी थोड़ा सा कम।''
''पच्चीस हजार ?''
''नहीं इससे भी थोड़ा सा कम।''
मैं सोच में पड़ गया। फिर सोचकर बोला - '' इक्कीस हजार ?''
वे चुप हो गए। मैं समझ गया। मेरा अनुमान सही था। थोड़ी देर बाद इधर-उधर देखकर धीरे से बोले - ''ग्यारह हजार तो बहुत बड़ी रकम होती है। मैंने...''
बीच में ही टोक दिया मैंने - ''हाँ, पाँच हजार रुपये दिया होगा आपने। करोड़पति हैं। अपना नाम अमर करना चाहते हैं। फोकट में थोड़े न होगा नाम। फिर प्रतिमा लगाने की पिपासा है आपके मन में।''
वह फिर बोला - ''थोड़ा-सा कम कर लीजिए इस राशि को।''
मैंने कहा - ''दो हजार ?''
वह बोले - ''थोड़ा कम।''
''एक हजार एक ?''
''थोड़ा-सा कम।''
''पाँच सौ एक ?''
''थोड़ा और कम।''
''ओफ्फो, एक सौ एक।''
''बस, पहुँच रही हे हैं आप।''
''इक्यावन रुपये मात्र।''
''बस, बस पहुँचने ही वाले हैं।''
''अरे, हद हो गई भई, अब तो मैं गलत हो ही नहीं सकता। इक्कीस रुपये तो दिया ही होगा आपने।''
''हाँ, बिल्कुल ठीक अनुमान लगाया आपने।'' लतखोरीलाल बोले - ''आप बुद्धिजीवी हैं। गलत तो हो ही नहीं सकते। जानते हैं, इतनी बड़ी राशि हमने मोहल्ले के सेठों से दो-दो रुपये चंदा करके एकत्र की थी। अरे, इस देश के लिए हमारा भी कोई फर्ज बनता है। अब आप ही बताएँ,  इतनी सेवा करता हूँ देश की। क्या चौराहे पर मेरी प्रतिमा भी नहीं लग सकती ?''
लतखोरी की बातें सुनकर मैं बुरी तरह उखड़ चुका था। कहना पड़ा - ''हाँ भई, आप जैसे महापुरुषों की प्रतिमा अब पूजने को बची हैं। ऐसा करते हैं फाँसी पर झूल जाने वाले किसी शहीद की जगह आपकी प्रतिमा अभी से लगा देते हैं।'' वह खुश हो गये। कहने लगे - '' ऐसा ही हो जाए तो मजा आ जाए। लेकिन अभी रहने दें। मरने के बाद ही प्रतिमा लगे तो मजा आ जाएगा।''
मैंने कहा - ''तब आप मजे के लिए कहाँ रहेंगे ?'' वह बोले - ''स्वर्ग-लोक में।''
मैं हँस पड़ा - ''बड़ा कान्फीडेंस है आपको!''
वह बोले - ''हमारा सब कुछ एडवाँस बुकिंग में चलता है। मूर्ति एडवाँस में, होटलें एडवाँस बुकिंग में, टाकीजों में एडवाँस बुकिंग और दान-दक्षिणा, भजन-पूजन के सहारे स्वर्ग में एडवाँस बुकिंग।''
मुझे चक्कर आ ही गया। गिर पड़ा। होश में आया तो देखा घर में था। लतखोरीलाल छोड़ गए थे। घर वालों ने बताया कि वे पाँच रुपइये का चमकता हुआ सिक्का दे गये हैं। कह रहे थे कि किसी की प्रतिमा लगवानी है। उसी का एडवाँस है।
मुझे फिर से चक्कर आने लगा।

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