समाजसेवियों का नक्सल-प्रेम ?
नक्सलियों के पक्ष में हो जाना एक तरह का बौद्धिक फैशन-सा बन गया है। दिल्ली से लेकर रायपुर तक पहुत से बुद्धिजीवियों ने नक्सलियों के प्रति बड़ी सहानुभूति दिखाई देती हैं। इसका एक कारण यह है कि बुद्धिजीवी सामाजिक परिवर्तन चाहता है और नक्सली भी। लेकिन नक्सलियों का रास्ता हिंसक है इसलिए उनको समाज की मान्यता नहीं मिल पा रही। बुद्धिजीवी सीधे-सीधे नक्सल-समर्थक नहीं हो सकता इसलिए वह अप्रत्यक्ष रूप से खेल करता है। पिछले दिनों दिल्ली में रह कर सामाजिक कार्य करने वाले एक स्वामी रायपुर आए और जेल में बंद एक नक्सली नेता से मिले। इसके कुछ दिन पहले भी ये स्वामी रायपुर की एक शांति सभा में भाषण दे रहे थे। बीच एक उन्होंने एक लाइन यह भी बोली कि आपरेशन ग्रीनहंट बंद होना चाहिए। तभी लोगों का माथा ठनका था। यह ठीक है कि क्यों आदिवासी मरे या नक्सली भी क्यों मरें। सब जीवित रहें, लेकिन इस वक्त जो नक्सलीआम लोगों की निर्मम हत्याएँ कर रहे हैं, तब कोई समाजसेवी आपरेशन ग्रीन हंट बंद करने की बात करता है, तो समझ में आ जाता है, कि यह शख्स हिंसा के पक्ष में खड़ा है।
पुलिस-बैठकों में राजनीतिक हस्तक्षेप...?
जी हाँ, इन दिनों इस बात को लेकर बहस हो रही है, कि पुलिस वाले जो बैठकें करते हैं, उनमें जनप्रतिनिधियों को बुलाया जाना चाहिए कि नहीं। गृह मंत्री ने पुलिस को आदेश दिया है, कि उनकी बैठकों में निर्वाचित जनप्रतिनिधियों को शामिल किया जाना चाहिए। इनके सुझाव से अपराधों पर नियंत्रण हो सकता है। गृहमंत्री ठीक फरमाते हैं। पुलिस पर दबाव बना रहे, वरना वह निरंकुश हो सकती है। इस दृष्टि से यह बहुत जरूरी है। लेकिन बहस तब शुरू होती है, जब हमंारे कुछ जनप्रतिनिधि अपने अधिकारों का दुुरुपयोग करने की कोशिशें करते हैं। अपराधियों को छुड़वाने की कोशिश एक बड़ा अपराध है। सब नहीं करते लेकिन कुछ नेता ऐसा करते हैं। बस, पुलिस इनकी आड़ में यह प्रचारित करती है, कि हम पर दबाव बनाया जाता है। पुलिस पर दबाव बना ही रहना चाहिए ताकि वह गलत काम न कर सके। लोकतंत्र में पुलिस पर लाके का अंकुश जरूरी है। किसी के साथ अन्याय न हो सके। इस दृष्टि से यह जरूरी है, कि पुलिस और राजनीति का तालमेल बना रहे। पुलिस स्वच्छ सामाजिक छवि के कार्यकर्ताओं को भी अपने साथ जोड़े ताकि उसे दिशा-निर्देश मिलता रहे।
आदिवासी अस्मिता की एकजुटता..
पिछले दिनों राजधानी में आदिवासियों का एक बड़ा सम्मेलन हुआ। किसने कराया, कितने लोग पहुँचे, किसके गुट का था यह सम्मेलन यह कुछ लोगों के लिए चर्चा का हो सकता है,लेकिन यह चर्चा इस बात की होगी कि अब आदिवासी अस्मिता जाग उठी है। खैर, जगी तो पहले भी थी, लेकिन अब वह हस्तक्षेप की स्थिति में भी है। सम्मेलन में पाँचवीं अनुसूची को लागू करने पर जोर दिया गया तो आदिवासियों के लिए आरक्षण बढ़ाने की मांग भी उठी। नक्सल प्रभावित क्षेत्रों से हजारों की संख्या में आदिवासी गायब है, इनका अता-पता नहीं चल रहा है। इस पर भी चिंता व्यक्त की गई। कुल मिला कर आदिवासियों ने अपने विरुद्ध हो रहे व्यवहार को लेकर नाराजगी भी व्यक्त की। यह सिलसिला जारी रहे और आदिवासी समाज राजनीतिज्ञों की हाथ की कठपुतली न बन कर अपने अधिकार के लिए इसी तरह आवाज बुलंद करते रहेतो आदिवासियों का कोई शोषण नहीं कर सकेगा।
बस्तर में एक और सत्याग्रह...
गाँधीजी ने आजादी की लड़ाई के दौरान जो प्रयोग किए, वे आज तक अपना असर दिखा रहे हैं। इनमें एक है सत्याग्रह। 19 जून से अमित जोगी अपना सत्याग्रह शुरू कर रहे हैं। अमित पूर्व मुख्यमंत्री अजीत जोगी के पुत्र हैं। इस अभियान से अमित की छवि को निखर सकती है। वे बस्तर की बदहाली के विरुद्ध सत्याग्रह शुरु कर रहे हैं। 19 जून महत्वपूर्ण तारीख है। सौ साल पहले आज ही के दिन महान सेनानी और मसीहा गुंडाधूर के धूमकाल ने आदिवासी अस्मिता को बचाने के लिए इतिहास रचा था। अमित और उनके एक सौ आठ साथी पच्चीस जून तक दंतेवाड़ा से सुकुमा तक पद यात्रा करेंगे और लोगों से मिल कर नक्सलवाद एवं अन्य समस्याओं के विरुद्ध लोकजागरण का काम करेंगे। यह एक रचनात्मक एवं साहसिक पहल है। ऐसे दौर में जब नक्सलवाद का आतंक है, बस्तर में पदयात्रा करना निसंदेह सराहनीय पहल है।
गायों की तस्करी रोकना जरूरी
छत्तीसगढ़ में गो वध पर रोक है। यहाँ कोई कसाईखाना भी नहीं है। यहाँ गौ सेवा आयोग भी कार्यरत है। फिर भी चोरी-छिपे कुछ शातिर लोग गायों की तस्करी करते रहते हैं। आज भी गायों की तस्करी जारी है। लोग ज्यादा चालाक हो गए हैं। वे पत्थलगाँव और जशपुर आदि क्षेत्रों से गायों को चराते हुए राँची तक ले जाते हैं। फिर ये गायें कसाइयों को सौंप दी जाती हैं। इसलिए यह जरूरी है, कि रायगढ़ जिले की पुलिस और वहाँ काम करने वाले गौ भक्त सतर्क हो कर देखें कि गाय चराने के नाम पर गायों को कहाँ ले जाया जा रहा है। गायों को ट्रक में ले जाने से शक हो जाता है और गायें जब्त कर ली जाती हैं इसलिए गो माफियाओं ने एक रास्ता निकाला है, कि वे गायें चराते हुए सीमा पार कर जाते हैं। भले ही गाय भूखी-प्यासी रहे, उनको क्या फर्क पड़ता है। इसलिए यह जरूरी है कि राज्य की सीमा पर वनोपज की जाँच की तरह यह जाँच भी होनी चाहिए कि जो गायें दूसरी ओर ले जाई जा रही है, वे चराने के लिए ले जाई जा रही है, काटने के लिए।
स्वाद के मारे मनुष्य बेचारे...
स्वाद जो न कराए थोड़ा है। स्वाद के चक्कर में लोग गाय, बकरी, सुअर, मुर्गी, तीतर-बटेर, चूहा और न जाने क्या-क्या हजम कर जाते हैं। अब तो राजधानी के कुछ होटलों में जीव-जंतुओं को व्यंजनों की तरह परोसा जा रहा है। लोग-भाग अब केंकड़े भी स्वाद से खाने लगे हैं। दरअसल मनुष्य प्रयोगधर्मी है। उसे शाकाहार खाते-खाते बोरियत होने लगती है, तो वह मांसाहार की ओर लपकता है। और अपनी फितरत भूल कर माँसाहार चाव से करता है। मानव की इसी कमी का फायदा उठा कर होटल वाले भी एक कदम आगे बढ़ जाते हैं और केकड़े को भी एक डिश की तरह प्रचारित करके परोस देते हैं। बहुत से लोग नाक-भौं सिकोड़ सकते हैं, कि ये भी क्या डिश है। लेकिन नहीं, इस नए दौर में यह भी एक डिश है। इसे खाने के लिए लोग घर का स्वादिष्ट खाना छोड़ कर होटलों या ढाबों की ओर भागते हैं।
शुक्रवार, 18 जून 2010
छ्त्तीसगढ़ की डायरी
प्रस्तुतकर्ता girish pankaj पर 11:17 pm
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1 Comment:
....आपके इस ब्लाग की जितनी भी तारीफ़ की जाए कम है, बेहद प्रसंशनीय अभिव्यक्तियां !!!
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