शनिवार, 12 जून 2010

छ्त्तीसगढ़ की डायरी

सेना के हवाले नहीं होगा बस्तर
बस्तर और अन्य राज्यों के लिए सेना के इस्तेमाल को लेकर आखिर दिल्ली में सहमति नहीं बन पाई। यह निर्णय किया गया, कि पुलिस और अर्ध सैनिक बलों को प्रशिक्षण दिया जाएगा। इस निर्णय की सराहना ही की जानी चाहिए, क्योंकि सेना को बस्तर कोसेना के हवाले करने के बाद जो कुछ होता, वह भी अपने किस्म की एक नई समस्या ही हो जाती, जिसे लेकर अभी पूर्वोत्तर के कुछ राज्य जूझ रहे हैं। दरअसल सेना जब किसी अभियान में उतरती है, तो वह यह नहीं सोचती कि कम से कम नुकसान हो। उसका लक्ष्य तो होता है वह शत्रु, जिसको खलास करने के लिए वह आगे बढ़ती है। फिर रास्ते में कोई दोस्त आया, कि सामान्यजन आए, उससे कोई फर्क नहीं पड़ता: सबका सफाया होता रहता है। इसलिए सेना के इस्तेमाल के पहले सौ बार सोचना चाहिए। बस्तर के लोग राहत की साँस ले रहे हैं, कि सैन्य कार्रवाई टल गई। अब पुलिस बल और अर्ध सैन्यबल प्रशिक्षित हो कर नक्सलियों से मुकाबला करे और बस्तर की शांति बहाल करने के धर्म का निर्वाह करें। यह हमारा आंतरिक मामला है, जिससे निपटने में हमारी पुलिस सक्षम है, लेकिन वह पहले दृढ़ संकल्पित तो हो।
अफसरों के आगे मंत्रियों की नहीं चलती?

आए दिन ऐसी बातें सामने आती रहती हैं। भुक्तभोगी यही चर्चा करते हैं, कि मंत्री ने कह दिया, आदेश कर दिया, लेकिन अफसर ने काम को लटका दिया। बेशक यह सब लोकतंत्र की सेहत के लिए अच्छे लक्षण नहीं हैं। लोग जनप्रतिनिधियों के पास जाते हैं। अपने काम के लिए उनका आदेश ले कर इधर-उधर भटकते रहते हैं, लेकिन महीनों बीत जाने के बाद भी काम नहीं होता। अफसर नियम-कायदे में उलझा देते हैं। जबकि लोकतंत्र में मंत्री का आदेश ही कई बार नियम के रूप में दर्ज हो जाता है। लेकिन यह भी सच है कि जब जनप्रतिनिधि को कोई काम टालना होता है, तो वह अफसरों से साँठगाँठ करके आमजन को बुदधू बनाने का खेल करते हैं। नेता-अफसर एक-दूसरे पर आरोप लगा कर जनता को ठगने का काम करते रहते हैं। यह एक तरह का अपराध है,लेकिन यह अपराध निरंतर जारी है... क्योंकि अंतत: अफसर ही मंत्री पर... भारी है। लोग प्रतीक्षारत है, कि ये शातिर अफसर हल्के पड़ेंगे।
लुटेरे समान की रखवारी करेंगे ...?
सरकार जब पर्यावरण के संरक्षण के लिए उद्योपतियों से अपील करती नजर आती है, तो लोगों को यही लगता है, कि कोई लुटेरों से यह कहे कि भाई, हमारे सामान की हिफाजत करना। जो कारखाने हमारे पर्यावरण की हत्या कर रहे हैं, उनसे अपील करने से बात नहीं बन सकती। उनसे तो निर्देशित और दंडित करने की भाषा ही बोलनी होगी। आज रायपुर,बिलासपुर, कोरबा से लेकर रायगढ़ तक औद्योगीकरण का भयंकर असर देखा जा रहा है। इन इलाकों के साथ अन्य क्षेत्रों में भी पेड़ साफ हो गए, नदियाँ प्रदूषित हो रही हैं। इसलिए अब यह कड़े आदेश जारी हों कि उद्योगपति अपने आसपास पेड़ों की भरमार करे। पेड़ लगाए और उसे संरक्षित करने की जिम्मेदारी ले। वरना यहाँ पर्यावरण अभियान एक फैशन की तरह चलता है। लोग फोटू-शोटू खिंचवा कर अपने कर्तव्य की इतिश्री करने में माहिर हैं।
समाजसेवा के पाखंड को भोगते हुए
समाजसेवा जब दिखावे और अपनी सामाजिक छवि चमकाने का सबब बन जाती है, तब ऐसा ही होता है। दो साल के शिशु के शव को उसके गंतव्य तक पहुँचाने के लिए कोई एंबुलेंस नहीं मिलती क्योंकि शिशु के परिजन के पास पर्याप्त पैसे नहीं होते। पिछले दिनों राजधानी में ऐसा ही हुआ। अंबेडकर अस्पताल में इलाज हेतु लाया गया एक शिशु मर गया। उसे गाँव ले जाना था, लेकिन माता-पिता के पास पाँच रुपए किलोमीटर दर से एंबुलेंस को देने के लिए पैसे ही नहीं थे। आखिर बेचारे बस से ले गए। यह नियम विरुद्ध था, फिर भी करना पड़ा। सामाजिक संस्थाओं का यह दायित्व है कि जब उन्होंने एंबुलेंस सेवा शुरू की है, तो ऐसी स्थिति आने पर वे नि:शुल्क सेवा दें। वरना अपने आप को समाजसेवी कहने का ढोंग न करें। वे साफ-साफ कहें,कि समाजसेवा हमाराधंधा है। जिसे परता पड़े वो आए, वरना नमस्ते... 
जेलों में सत्साहित्य..
गायत्री परिवार देश में युगनिर्माण योजना का काम वर्षों से कर रहा है। उनका नारा सबको अच्छा लगता है-हम बदलेंगे, युग बदलेगा। लोग बदलें या न बदलें, अभियान जारी है। अब गायत्री परिवार ट्रस्ट छत्तीसगढ़ की जेलों में अपना सत्साहित्य पहुँचा रहा है, ताकि वहाँ कैदी इन्हें पढ़ें और अपने जीवन को बेहतर बना कर बाहर निकलें। जेल में कैदी बेहतर बनें और जेल के बाहर रहने वाले अनेक बुराइयों की कैद में रहने वाले सामान्यजन तक भी ऐसे साहित्य को पहुँचाना चाहिए ताकि जेल जाने की नौबत ही क्यों आए। सचमुच इस दौर को भले साहित्य की जरूरत है। फिर चाहे वह लिखित साहित्य हो या फिर टीवी के चैनलों के माध्यम से पहुँचे। जिस तेजी के साथ राजधानी में या छत्तीसगढ़ में अपराध बढ़ रहे हैं, उन्हें देखकर लगता है, कि अब उत्कृष्ट साहित्य के जरिए ही समाज को जागृत किया जा सकता है लेकिन वैसे आधुनिक साहित्य से लोगों को बचाना चाहिए, जो आदमी को आधुनिक बनने के लिए कपड़े उतारने की सलाह देता है।
सुंदरीबाई पर हमें गर्व है..
सरगुजा की सुंदरीबाई ने पूरी दुनिया में अपना और अपने छत्तीसगढ़ का नाम रौशन करने का काम किया है। सुंदरीबाई भित्ति चित्रकला के जरिए छत्तीसगढ़ का नाम रौशन कर रही हैं। अभी उन्होंने फ्रांस में अपनी कला का प्रदर्शन किया। वे जब दीवारों को अपनी कला से जीवंत करती हैं, तो लोग अभिभूत हो जाते हैं। अनेक देशों में सुंदरी ने अपनी कला को पहुँचाया है,लेकिन अफसोस यही है, कि अपनी ही धरती पर उसे पूरा सम्मान नहीं मिला। उनके पहले सोनाबाई ने सरगुजा का सिर ऊँचा किया। उसी परम्परा को सुंदरी आगे बढ़ा रही है। छत्तीसगढ़ में ऐसी अनेक प्रतिभाएँ हैं। इन्हें प्रोत्साहित और संरक्षित करने की जरूरत है। अगर राज्य में ललित कला अकादेमी जैसी संस्था बन जाए तो उसके माध्यम से यहाँ के कलाकारों को आगे बढ़ाया जा सकता है। सुंदरीबाई जैसे लोगों को भरपूर सम्मान (और मानधन भी...) दे कर किसी पद पर बिठाया जाना चाहिए और उनकी देखरेख में भित्तिकला जैसी अनेक कलाओं को लोकव्यापी बनाने की पहल होनी चाहिए। 

2 Comments:

ajay saxena said...

...प्रभावशाली पोस्ट !!

uday said...

सेना के बारे आपके विचार एकदम सही है किन्तु यहा के हालातो को देखते हुये सेना का उपयोग जरुरी है आये दिन आम जन की हत्या…कानुन मजाक बन कर रह गया है नक्सलीयो के एक फ़रमान से गाव शहर आज जब बन्द हो जा रहे है तो ऐसे मे हम किसके कानुन का पालन कर रहे है। क्या हमे अपनी मौत का इन्तजार करना चाहिये या उन्हे .…बस्तर मे सुचना तन्त्र की कमजोरी का नक्स्ली बखुबी फ़ायदा ले रहे है -नक्स्लीयो के सुचना तन्त्र नेट्वक को हमारी खुफ़िया विभाग क्यो नही चेक कर पा रही है ये समझ से परे है.॥…

सुनिए गिरीश पंकज को