मई २०११ अंक |
बुधवार, 25 मई 2011
क्योंकि हम ढीठ जो हैं
सबके मुख पर है कालिख किसको कौन लजाये रे!’ लेकिन हम सबके साथ-साथ अपने को भी लजा रहे हैं, फिर भी हमें लाज नहीं आती। हम पूरी तरह निर्लज्ज हो चुके हैं।
जब से मैंने होश संभाला; तब से ही भ्रष्टाचार के रोने-गाने की आवाज मेरे कानो में घुलती रही है। संभवतः आपके साथ भी ऐसा ही होता हो। आपने कभी इस पर विचार किया है कि ऐसा क्यों होता है? शायद इसलिए कि हमारा सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक सिस्टम पटरी पर ठीक से फीट नहीं किया गया है। जिस दिन इसे फीट कर दिया जायेगा, उसी दिन सब ठीक हो जायेगा। लेकिन इसे ठीक करेगा कौन? क्योंकि सब के मुख पर तो कालिख पुता हुआ है, कौन आयेगा सामने इसे ठीक करने को? आप को विश्वास नहीं होता तो आप सौ व्यक्ति को एक जगह बुलाकर भ्रष्टाचार पर गोष्ठी करवा लीजिए, सौ के सौ व्यक्ति तरह से तरह से भ्रष्टाचार पर आख्यान-व्याख्यान दे देता हुआ चला जायेगा, लेकिन एक भी व्यक्ति उसमें से ऐसा नहीं सामने आयेगा, जो अपने को पहला भ्रष्ट व्यक्ति साबित करे। तो आखिर भ्रष्टाचार करता कौन है? इस प्रश्न का उत्तर कौन देगा? इसका उत्तर कैसे मिलेगा? लगता है सृष्टि की समाप्ति तक इस यक्ष प्रश्न का उत्तर हम नहीं ढूंढ़ पायेंगे। क्योंकि हम ढीठ जो हैं।
आज तक आपने यह सुना है कि कोई जानवर किसी भ्रष्टाचार में लिप्त रहा है? यह तो सिर्फ इंसान पर लागू होता है। अब आप ही बताइए कि जानवर भला कि हम? तब आप कहेंगे कि जानवर तो घर-वर नहीं बनाता..., तो क्या घर-वर बनाने वाले को भ्रष्टाचार करने की छूट है? ये कैसा हमारा सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक सिस्टम है भाई! आपने किसी जानवर को देखा है कभी ऐसा करते हुए कि पेट भर जाने के बाद भी वह कल के लिए भोजन को मुँह में दबा कर ले जाता हो? लेकिन हम ऐसा करते हैं। जिस दिन इन सवालों का जवाब हम ढूंढ़ लेंगे, हमारे जीवन से भ्रष्टाचार समाप्त हो जायेगा, लेकिन यह राह आसान नहीं है। क्योंकि किसी बच्चे का जन्म हो या अखबार का या फिर मानव कृत कोई उद्यम का; उसकी बुनियाद भ्रष्टाचार पर ही टिकी होती है। यानि कि जीवन से मृत्यु और उसके बाद तक भी हम भ्रष्टाचार में डूबे हुए ही चलते हैं। ऐसे में कोई मसीहा भी तो नहीं सुझता, जो पाक साफ रहा हो।
देखिए एक छोटा सा उदाहरण- हमारे समाज में एक व्यक्ति गंदगी करता है और दूसरा उसे तमाम उम्र साफ करता रहता है। अब आप ही बताइए कि गंदगी करने वाला व्यक्ति भ्रष्टाचारी है या साफ करने वाला? लेकिन वहीं हमारे समाज में एक को हिकारत की नजर से देखा जाता है और दूसरे को सम्मान की नजर से। अब बोलिए क्या देश समाज और हमारे जीवन से एक क्या अरबो अन्ना या गांधी भ्रष्टाचार को समाप्त करने की बात को छोड़िए, उसे क्या अपनी जगह से हिला भी पायेगा? इसके लिए सबसे पहले हमे अपने भीतर के सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक सिस्टम को दुरूस्त करना होगा। बगैर इन सिस्टमों को दुरूस्त किये हम सिर्फ लोगों को अपने को अपनी आने वाली पीढ़ी को ठगने जैसा कृत्य ही करते रहेंगे, उन्हें धेखा ही देते रहेंगे। भूखा व्यक्ति का कोई धर्म नहीं होता; पेट भरे हुए लोगों के स्वार्थ और लालच से बचने की आवश्यकता है, जो भ्रष्टाचार के धर्म का पोषक है।
अरूण कुमार झा
प्रधान संपादक
प्रस्तुतकर्ता drishtipat पर 8:40 am
लेबल: दृष्टिपात की सम्पादकीय
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1 Comment:
विचारोत्तेजक आलेख।
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