रविवार, 4 जुलाई 2010

छ्त्तीसगढ़ की डायरी

ये है छत्तीसगढ़ की पुलिस की डंडागीरी... 
राजधानी रायपुर में डॉन शब्द से पुलिस इतनी नाराज है कि मत पूछो। इस चक्कर में एक स्कूली छात्र को पीट कर एक पुलिस अधिकारी ने अपनी डंडागीरी दिखाने की शर्मनाक कोशिश कर डाली। पिछले दिनों राजधानी में वाहनों में आग लगने की अनेक घटनाएँ हुईं। ये हरकतें किसी डॉन ग्रुप की हैं। पुलिस के कुछ अति होशियार लोगों ने कुछ लड़कों को पकड़ा और उन्हें डॉन ग्रुप  बताकर जेल भी भिजवा दिया। फिर भी शहर में वाहनों के जलने का सिलसिला चलता रहा। अब पुलिस के एक जिम्मेदार अधिकारी खुद कह रहे हैं, जो लड़के पहले पकड़े गए थे, वे डॉन ग्रुप के नहीं थे। आखिर पुलिस ऐसा करती क्यों है? फर्जी मामले क्यों बनते हैं? पिछले दिनों एक स्कूली छात्र को एक पुलिस अधिकारी ने पकड़ा और डंडे से पीटना शुरू कर दिया। लड़के का कुसूर इतना ही था कि उसकी बाइक पर डॉन लिखा था। लोग इस हादसे से दुखी भी हुए और पुलिस  अफसर की मूर्खता पर हँसे भी। अरे भाई, पहले समझ तो लो। कल को डॉन फिल्म रायपुर में लगेगी तो क्या सिनेमा मालिक की सुटाई शुरू कर दोगे कि डॉन क्यों लगाई? कुछ लोग शरारत कर रहे हैं, तो डॉन शब्द से खुन्नस निकालना कहाँ की बुद्धिमानी है?

नक्सलियों की अंतहीन हरकतें...
बस्तर में लाशें गिनने का काम जारी है। आए दिन नक्सली हत्याएँ कर रहे हैं। वे खुद भी मर रहे हैं। लेकिन वे तो विचारधारा के नाम पर संघर्ष कर रहे हैं। दो मरते हैं सौ को मारते हैं। सिलसिला जारी है। पिछले दिनों सीआरपीएफ के जवानों की हत्या के पीछे उनका तर्क था, कि हमने इसलिए हत्या की, कि  इन लोगों ने कुछ निर्दोष ग्राणीणों की जानें लगी थीं। इस आरोप का कोई सबूत उनके पास नहीं है। अगर कुछ है तो पेश करना चाहिए। इसके पहले भी नक्सलियों ने अनेक हत्याएँ की हैं, उसका क्या कारण बताएँगे? कुल मिलाकर हत्याओं के लिए बहाने चाहिए। लोग तंग आ चुके हैं। इसीलिए अब आमजन मांग करने लगे हैं कि बस्तर में सेना बुलानी चाहिए। वह दिन दुर्भाग्यपूर्ण ही होगा,जब बस्तर में सेना का प्रवेश होगा। सेना आग की तरह फैलेगी और बहुत कुछ नष्ट होगा। नक्सली भी समझ लें कि वे साफ होंगे ही, और बहुत-से आम नागरिक भी चपेट में आ जाएँगे। अब यह बात समझ में भी तो आए, फिलहाल इस आहत समय से हर कोई उबरना चाहता है।
गाय बर्बाद, मटन मार्केट आबाद..?
मटन... आमजीवन में बटन की तरह जरूरी हो गया है। गाय पालने वाले शहर से बाहर भेज दिए गए हैं मगर माँस बेचनेवालों को शहर में सुव्यवस्थित करने की काशिशें हो रही हैं। कुछ अंिहसा प्रेमी इस दृश्य को देख कर चकित हैं। गौ पालन से गंदगी होती है तो क्या माँस के व्यापार से शहर का माहौल शुद्ध हो जाता है? जहाँ माँस कटता है, वहाँ जाकर तो देखें। किस तरह से बदबू फैली रहती है। गंदगी का कैसा आलम रहता है। गाय के गोबर और मूत्र से तो खाद बनती है। गाय आक्सीजन छोड़ती है। वातावरण को शुद्ध बनाने में गाय की बड़ी भूमिका होती है। मगर राजधानी में उल्टा हो रहा है। गायें बाहर भेजी जा रही हैं और शहर में माँस के व्यापार के लिए सुविधाएँ दी जा रही हैं। आखिर क्यों? शायद इसीलिए कि अब माँस खाने और दारू पीने वाले बढ़ रहे हैं और दूध पीने वाले कम होते जा रहे हैं? 
 गजगामिनी की तरह चलते सरकारी काम
सरकारी काम भी नौ दिन चले अढ़ाई कोस की तरह चलते रहते हैं। धीरे-धीरे, हौल-हौले। इसे  ही कहते हैं हाथी-चाल। जो काम समय पर हो सकते हैं, उन्हें लम्बा खींचने के पीछे  एक ही कारण होता है, कमाई...ऊपरी कमाई। जितने दिन काम होता है, उतने दिन तक कमाई का सिलसिला बना रहता है। मिलजुल कर खाने का भी अपना सुख होता है। लेकिन कुछ लोगों के इस सुखार्जन के कारण लोग दुखी हो जाते हैं। शहर में बनने वाले अधिकांश पुल अपने निर्माण की अवधि पार कर चुके हैं। काम चल ही रहा है। लोगों को आना-जाना प्रभावित होता है। लोग आंदोलन करते हैं। धरना देते हैं। लेकिन व्यवस्था को कोई फर्क नहीं पड़ता। वह अपने हिसाब से चलती है। तभी तो वह व्यवस्था है। निर्माण कार्य में लगे लोगों को शहर की सुविधाओं का ख्याल रहना चाहिए, आखिर वे भी नागरिक हैं। लेकिन इतनी बात वे समझ लेते तो लोग परेशान ही क्यों होते?
महँगाई पर घमासान
महँगाई एक मुद्दा है। जिस पर अभी भाजपा गर्म है तो काँग्रेस भी। दोनों तरफ से बयानबाजी चल रही है। अभी भाजपा की सुषमा स्वराज राजधानी आई थीं। उनके नेतृत्व में भाजपा ने धरना दिया। फिर भाकपा का भारत बंद। अब काँग्रेस की छवि का सवाल है तो वह भाजपा पर पिल पड़ी है। उसे भी कुछ कर के दिखाना होगा। इसलिए उनके नेता भाजपा पर आरोप लगा रहे हैं, कि वह धरना-प्रदर्शन करके लाखों रुपए खर्च कर रही है। यह पैसे की बर्बादी है। अरे भाई प्रदेश भर से लोग आएँगे तो क्या उनके लिए कुछ व्यवस्था ही न हो। बरसात का मौसम है। अगर पानी से बचने की व्यवस्था कर ली गई तो इसे फिजूलखर्ची नहीं कहा जा सकता। सच्चाई तो यही है कि काँग्रेसी भी बेचारे असहज महसूस कर रहे हैं। पेट्रोल,डीजल और यहाँ तक कि केरोसीन के भाव बढ़ गए। इसका असर तो हर चीज पर दीख रहा है।  काँगे्रसी बेबस हैं। करें तो क्या करें?
और चलते-चलते..
डीजीपी के बयान से बवाल....
छत्तीसगढ़ के डीजीपी विश्वरंजन कवि भी हैं। लोग यह मान कर चलते हैं, कि वे एक लेखक हैं, तो संतुलित व्यवहार करेंगे। लेकिन नक्सली हिंसा के कारण उनका तनाव कुछ ज्यादा  बढ़ गया है इसलिए उनके बयानों पर असर पडऩे लगा है। फिर भी उन्हें धैर्य से काम लेना चाहिए। ऐसा लोगों का कहना है। आखिर वे पुलिस के मुखिया है। पिछले दिनों उन्होंने सीआरपीएफ वालों के लिए कह दिया कि हम उन्हें चलना थोड़े न सिखाएँगे। फिर मीडियावाले बात करना चाह रहे थे, तो वे बोले, नहीं, मैं पहले सिगरेट पीऊँगा। लोगों को आश्चर्य हुआ कि ये क्या हो रहा है। इसके पहले भी डीजीपी महोदय अपने बयानों के कारण सुर्खियों में रहे हैं। बहरहाल, सीआरपीएफ के खिलाफ डीजीपी के बयान को गृह मंत्रालय ने गंभीरता से लिया है। वह नाराज है। डीजीपी की संवेदनशीलता के अनेक उदाहरण भी हैं लेकिन इस बार उनके एक-दो बयान नकारात्मक नंबर वाले हो गए। उनके चहेते लोग यही चाहते हैं, कि भविष्य में फूँक-फूँकर चलें, संभल-संभल कर बोलें ताकि वे विश्वरंजन ही रहें, लोग उन्हें विवादरंजन न बनाएँ।

सुनिए गिरीश पंकज को