डीजीपी का नक्सलवाद....
छत्तीसगढ़ के डीजीपी कवि भी हैं। कभी-कभार बोलते हैं और फँस जाते हैं। पिछले दिनों राँची गए और पत्रकारों से बात कहते हुए कह दिया कि नक्सलवाद कोई समस्या नहीं, यह एक विचारधारा है। अब जो कुछ छपा है, उसे लेकर काँग्रेसी हंगामा मचा रहे हैं। मांग कर रहे हैं कि डीजीपी को हटाया जाए क्योंकि ये नक्सल समस्या को लेकर गंभीर नहीं है। बात एक हद तक सही भी है। नक्सलवाद कभी रहा होगा एक विचारधारा। लेकिन अब तो यह केवल हत्याधारा है। इसे विचारधारा का नाम देना ही गलत है। यह एक समस्या है। और इसे मिटाने की ही बात होनी चाहिए। विचारधारा-फारा की बातें कह कर बौद्धिकता दिखाने की जरूरत नहीं होनी चाहिए। मीडिया से जब बात हो तो दो टूक कहना चाहिए, कि हम इस समस्या से पार पा लेंगे। आपरेशन ग्रीन हंट चल रहा है। अब इसे विचारधारा है,जैसे जुमलों के सहारे किनारे करने की कोशिश करने का दुष्परिणाम तो भुगतना ही पड़ेगा। उम्मीद है, वे भविष्य में फूँक-फूँक कर ही कदम रखेंगे। एक तो मीडिया कहाँ धँसा दो, उस पर विपक्ष तो बैठा ही रहता है, खिंचाई करने, इसलिए विश्वरंजन जी, सावधानी जरूरी है। क्योंकि जीवन और कविता में अंतर होता है।
चाटुकारिता की हद है....
सचमुच राजनति में चाटुकारिता की हद हो जाती है कभी-कभी। अब देखिए, पूर्व मुख्यमंत्री अजीत जोगी के पुत्र अमित जोगी को कुछ काँग्रेसी राज्यसभा में पहुँचा कर सीधे मंत्री भी बनाना चाहते हैं। राहुल गाँधी को फेक्स भी कर दिया भाई लोगों ने। ये तो अच्छा हुआ, कि खुद जोगी जी ने इस कृत्य की निंदा कर दी। वे समझदार हैं। लेकिन चमचों को कौन समझाए, कि कुछ करने के पहले सोच तो लो, कि क्या कर रहे हो। अभी जोगी-पुत्र पर आपराधिक मामला चला। अभी उसे लम्बी लड़ाई लडऩी है। संघर्ष करना है। आसानी से उपलब्धियाँ नहीं मिल जातीं। यह बात उनको और चाटुकारों को समझ लेना चाहिए। लेकिन जब चाटुकारिता ही करनी है, तो विवेक काम नहीं करता।
राजनीति राजधानी के विकास को न ले डूबे
राजधानी में काँगे्रेस का महापौर है और भाजपा का सभापति। अब दोनों दलों के लोग अपनी-अपनी पार्टी की राजनीति से ऊपर नहीं उठ पा रहे हैं। उनको यह बात समझ में ही नहीं आ ही है, कि चुना तक राजनीति चलनी चाहिए। अब तो मिल-जुल कर विकास करने का समय आ गया है। लेकिन नहीं, किसी न किसी बहाने अपनी ताकत दिखाने का खेल चल रहा है। शर्म की बात है, कि नगर निगम की बैठक को शांतिपूर्वक संपन्न कराने के लिए पुलिस बुलानी पड़ती है। विकास के रास्ते में अगर राजनीति स्पर्धा आड़े आएगी, तो यह दोनों दलों के लिए ठीक बात नहीं, क्योंकि जनता दोनों को देख रही है। राजधानी को विकास की सख्त जरूरत है। ऐसे समय में आपसी झगड़े के कारण अनुदानों में दिक्कतें आ सकती हैं। कोई ठोस निर्णय नहीं हो पाएगा। इसका बुरा असर पड़ेगा विकास पर।
दारू के खिलाफ लामबंद राजधानी
एक अरसे बाद ऐसा हो रहा है कि इन दिनों राजधानी के कुछ हिस्से में दारूबंदी के खिलाफ मुहिम जारी है। यह जरूरी भी है। कहीं विद्यालय के पास, तो कहीं किसी धर्मस्थल के पास दारू की दूकानें खुल गई हैं। लोगों का आना-जाना प्रभावित होता है। बेहतर तो यही होगा कि सरकार ट्रांसपोर्ट नगर आदि की तरह शहर के बाहर कहीं दारूनगर ही बसा दे। शहर की सारी शराब दूकानें शहर से बाहर ही रहें। जिन्हें पीना-पिलाना है, वे बाहर जाएँ और टुन्न-फुन्न हो कर वहीं गिरे-पड़े, गाली-गलौज करें। जो भी करना हो, शहर के बाहर करें। शहर में दारू दूकानें होनेके कारण कदम-कदम पर शराबी नजऱ आते हैं तो लगने लगता है, यह रायपुर नहीं दारूपुर है। उम्मीद है, कि प्रशासन जनता की सुनेगा और जहाँ-जहाँ लोग आंदोलित हैं, वहाँ-वहाँ की शराब दूकानें फौरन बंद होंगी। कुछ जगह दूकानें सीलबंद कर दी गई हैं, यह अच्छी बात है।
मंत्री के तमाचे की आवाज
प्रदेश के एक मंत्री ने एक अफसर को तमाचा क्या जड़ दिया, उसकी आवाज़ अब तक गूँज रही है। अफसर-कर्मचारी एकजुट हो कर मंत्री की निंदा कर रहे हैं, उसे हटाने की मांग भी कर रहे हैं। लेकिन क्या यह संभव हो पाएगा? कायदे से तो होना चाहिए। मंत्री को अपने किए पर खेद भी व्यक्त करना चाहिए। क्योंकि लोकतंत्र में सामंती प्रवृत्ति नहीं चलेगी। न मंत्रियों की न अफसरों की । यहाँ के चंद अफसर भी ऐसे हैं जो अपने को सबसे ऊपर समझते हैं। खैर, तमाचाशुदा अफसर की बात करें तो कहा जा सकता है, कि उसने अगर मंत्री का कहना नहीं माना तो वह बेशक अपराधी है, उस पर कार्रवाई होनी चाहिए। लेकिन दादागीरी दिखाना गलत है। अगर जनप्रतिनिधि इस तरह की हरकत करेंगे, तो उन्हें प्रशासन से सहयोग नहीं मिलेगा। वैसे भी बहुत से अफसर भयंकर भ्रष्ट और बदतमीज हो चुके हैं। उन्हें सुधारने की जरूरत है। लेकिन तमाचे से वे नहीं सुधरेंगे। उन पर लिखित रूप में कड़ी कार्रवाइयाँ की जानी चाहिए। तमाचा मार कर लोकतंत्र का अपमान नहीं करना चाहिए। रामविचार जी, विचार कीजिए और पद की गरिमा बनाए रखिए।
भूमाफिया चरागान भी हजम कर रहे
राजधानी में वैसे भी गोचर भूमि नहीं बची। शहर के बाहर 327 एकड़ जमीन चरागान के लिए रखी गयी थी, अब इस जमीन पर कुछ नेतानुमा लोगों ने कब्जा कर लिया है। गो सेवक बेचारे मांग कर रहे हैं, लेकिन उनकी कोई सुने तब न। हार कर ये लोग राज्यपाल से मिले । अब देखना यह है कि राज्यपाल महोदय की अनुशंसा पर कब तक कार्रवाई होती है। अंतरराष्ट्रीय कृषि-गो पर्यावरण संरक्षण परिषद के वयोवृद्ध अध्यक्ष झूमरलाल टावरी ने भूमाफियाओं के खिलाफ अभियान छेड़ रखा है। वे गो संरक्षण के लिए समर्पित हैंं। ऐसे अनेक लोग हैं, जो गाय को माँ की तरह जीने का अवसर देना चाहते हैं। लेकिन मनुष्य इतना स्वार्थी हो चुका है, कि अब गाय केवल सड़कों पर भटकती रहती है। चारा नहीं मिलता तो बेचारी कचरा खाती है और पॉलीथिन हजम करके एक दिन मौत का शिकार हो जाती है।
जननायक के महाप्रयाण पर...
रायगढ़ जिले के गौरव और अपना पूरा जीवन वहाँ की खुशहाली के लिए लगा देने वाले जननायक रामकुमार अग्रवाल जी नहीं रहे तो राजधानी में भी उनके चाहने वाले दुखी हो गए। सर्वोदय विचारधारा से जुड़े लोगों ने पिछले दिनों एक बैठक कर श्री अग्रवाल के संघर्षों को याद किया। यह भी चिंता व्यक्त की गई कि उनके जाने के बाद अब उनकी तरह जुझारू तेवर वाले लोग सामने आएंगे कि नहीं? उम्मीद है, कि चार बार विधायक रह चुके श्री अग्रवाल ने रायगढ़ के विनाश पर तुली ताकतों के विरुद्ध जो अभियान छेड़ रखा था, उन्हें आगे बढ़ाया जाएगा। इन पंक्तियों के लेखक ने श्री अग्रवाल के व्यक्तित्व पर एक गीत लिखा है। (पूरा गीत तो आप एक-दो दिन बाद पढ़ सकेंगे) फिलहाल दो पंक्तियाँ पेश हैं-
अंधकार में जले हमेशा बनकर एक मशाल
अमर रहा है, अमर रहेगा, रायगढ़ का लाल।
रविवार, 4 अप्रैल 2010
राजधानी के रंग
प्रस्तुतकर्ता girish pankaj पर 10:58 am
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