राजधानी में 24-25 अप्रैल को ''अनुसूसिच जनजातियाँ ,कल आज और कल'' विषय पर दो दिवसीय राष्ट्रीय सेमिनार का आयोजन हुआ। इसमें देश भर से वे लोग पधारे जिन्होंने जनजातियों पर गहन अध्ययन किया है। कुछ तथाकथित विद्वानों ने जब यह बात उठाई कि अनुसूचित जनजातियों को राष्ट्र की मुख्यधारा से जोडऩा चाहिए तो उनके इस कथन की बधिया उधेड़ दी गई। शुरुआत तो राज्यपाल महोदय ने ही की। उन्होंने आदिवासी भाइयों की मुख्यधारा को शहरी मुख्यधारा से बेहतर बताया। बाद में कुछ जनजातीय विद्वानों ने इसी बात को आगे बढ़ाते हुए कहा कि मुख्यधारा क्या है, जो शहर का भ्रष्ट जीवन है, क्या वह मुख्यधारा है? या फिर मुख्यधारा वह है, जहाँ एक संस्कृति है, परम्परा है, जल-जंगल-जमीन को अपना समझने का संस्कार है? मुख्यधारा में शहरी लोगों को आना चाहिए, जनजातियों को नहीं। और भी अनेक बातें उठी, लगा कि जनजातियों को लेकर अब देश में गंभीर-विमर्श का समय आ गया है। विकास की धारा से उन्हें जोडऩा तो है, लेकिन यह भी ध्यान रखना है, कि वे अपनी जड़ों से ही न काट दिए जाए। यह बात भी सामने आई कि हर क्षेत्र की जनजातियों के अनुरूप ही योजनाएँ बननी चाहिए क्योंकि नागालैंड के आदिवासी की अपनी संस्कृति है, तो बस्तर के आदिवासी की अपनी सांस्कृतिक पहचान है।
दिग्विजय सिंह पर भड़के मुख्यमंत्री
अनुसूचित जनजातियों पर आयोजित सेमिनार के समापन पर मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह भी पहुँचे। उन्होंने बस्तर के नक्सलवाद पर गंभीर विचार विमर्श करते हुए उनके समर्थक बुद्धिजीवियों को जम कर लताड़ा। उन्होंने कहा कि दिल्ली में बैठे ये बुद्धिजीवी अंगरेजी अखबारों में लिखते हैं, अंगरेजी वाले ही इन्हें पढ़ते हैं। असलियत से इनका कोई सरोकार नहीं है। माओवाद इनके लिए एक फैशन की तरह है। मुख्यमंत्री का इशारा मध्यप्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह की ओर था. जिन्होंने एक अंगरेजी समाचार पत्र में नक्सलवाद के बहाने रमन-सरकार को कोसने की कोशिश कि है. आज बस्तर में विकास अवरुद्ध हो गया है, इसके दोषी नक्सली हैं। सड़कें नहीं बन पा रही, स्कूल नष्ट हो गए। सृजन की जगह विध्वंस पनप गया। इन सबको समझने की जरूरत है। मुख्यमंत्री के भाषण से सबको यही लगा कि उन्होंने दिल से अपनी बात कही, जिसमें जनजातियों के विकास न होने की पीड़ा साफ नजर आ रही थी। दिल्ली से पधारे चिंतक इंद्रेशकुमार ने भी जनजातियों के वैभव पर प्रकाश डाला और विस्तारपूर्वक समझा कि किस तरह दूसरे धर्मवालों ने उनके साथ छल किया।
कलेक्टरों को सिर चढ़ाना बंद हो
पिछले दिनों रायपुर के कलेक्टर के खिलाफ काँग्रेसी इतने उत्तेजित हुए कि राज्यपाल को जा कर शिकायत कर दी। कलेक्टर जनता का नौकर है। ये और बात है कि उसे नौकरशाह कह दिया जाता है। यानी नौकर तो है मगर शाही है। शाही होने का मतलब यह नहीं, कि वह जनप्रतिनिधियों की अवहेलना कर दे। काँग्रेसी कुछ मुद्दों पर कलेक्टर से बात करना चाहते थे, कांग्रेसी समूह में गए थे, तो कलेक्टर ने कलेक्टरी दिखाते हुए फरमाया कि पाँच लोग आ कर चर्चा करें। कांग्रेसियों ने कहा हमारे साथ आए बाकी लोग भी मिलेंगे। कलेक्टर महोदय राजी नहीं हुए तो काँग्रेसी नाराज हो कर लौट गए। राज्यपाल से मिले और शिकायत की। अब राज्यपाल कलेक्टर को बुला कर समझाइश देते हैं, या नहीं, ये अलग बात है लेकिन मुद्दा यह है कि आखिर कलेक्टरों के हौसले इतने बुलंद क्यों रहते हैं। जनप्रतिनिधियों से उसे मिलना ही चाहिए । पाँच हो या पचास। लोकतंत्र में लोक ही ताकत है। लोक के बगैर कुछ नहीं। कलेक्टर कोई राजा-महाराजा तो है नहीं कि उसकी मर्जी चलेगी। दरअसल हमारा सिस्टम ही इतना लचर है, कि हमने कलेक्टर पद को सिर पर चढ़ा कर रखा है। जब तक ऐसा रहेगा, कोई भी कलेक्टर अपनी अकड़ दिखाएगा ही। जरूरत है, सिस्टम में बुनियादी परिवर्तन की। कलेक्टरों को भी यह समझना चाहिए के वे ब्रिटिशकाल में नहीं, स्वतंत्रकल में रह कर नौकरी कर रहे है।
ग्राम सुराज के सबक
ग्राम सुराज का पहला चरण समाप्त हो गया है लेकिन इसने सरकार को सोचने पर भी मजबूर किया है। अगर सरकार सोचे तो। इस बार अनेक जगहों पर सुराज दल का विरोध हुआ। कहीं-कहीं तो अधिकारियों को बंधक ही बना लिया गया। दरअसल लोग त्रस्त हैं। घोषणाएं होती है, मगर उनको पूरा नहीं किया जाता । मुख्यमंत्री को भी कुछ जगह ग्रामीणों की नाराजगी झेलनी पड़ी। ग्राम सुराज में जो घोषणाएँ होती है, उन्हें निर्धारित समय में ही पूर्ण करना चाहिए, तभी तो गाँव वालों को भी लगेगा, कि सुराज आ गया है। मुख्यमंत्री घोषणा कर के चले जाए और ग्रामीण भाई अफसरों के पीछ-पीछे घूमते रहे, यह नहीं होना चाहिए। लोकतंत्र में जनप्रतिनिधि के कहे की प्रतिष्ठा होनी चाहिए। अधिकांश अफसर बदमाशी करते हैं। वे सरकार की छवि को नुकसान पहुँचाने के लिए जनप्रतिनिधियों द्वारा की गई घोषणाओं को पूरा करने में जानबूझ कर विलंब करते हैं। इस बार ऐसा न हो। ग्राम सुराज के दौरान ग्रामीणों ने जो मुद्दे उठाए हैं, उन्हें पहली प्राथमिकता के साथ पूरा करना चाहिए।
मंत्रियों-अफसरों की विदेश यात्राओं पर लगाम
ये अच्छा निर्णय लिया मुख्यमंत्री ने । सरकारी खर्चे पर विदेश जाने की परम्परा-सी चल पड़ी थी। विदेश जा रहे हैं, किस लिए विकास का अध्ययन करने। कुछ जनपतिनिधि न तो ठीक से हिंदी बोल पाते हैं,न अंगरेजी, इस कमी को शातिर-चालाक अफसर समझते हैं। वे मंत्री को पटा कर उनके साथ लग जाते हैं। मंत्री की भी ऐश और अफसर की भी। ये लोग विदेश जाते हैं, और राज्य का करोड़ों रुपए स्वाहा कर देते हैं। जरा पता तो किया जाए कि पिछले कुछ वर्षो में विदेश जाने वाले मंत्री-अफसरों ने लौट कर आखिर सरकार को कोई भावी योजना दी कि हम फलां देश की तरह यहाँ भी ये-ये काम करें? शायद नहीं। विदेश यात्रा का ज्यादातर मतलब करके ऐशोआराम ही होता है। इसलिए मुख्यमंत्री ने समझदारी से काम लिया। अभी सबकी विदेश यात्राएँ बंद। कम से कम तीन साल तो बंद ही रहनी चाहिए।
सोमवार, 26 अप्रैल 2010
मुख्यधारा का सवाल
प्रस्तुतकर्ता girish pankaj पर 7:19 am
लेबल: छत्तीसगढ़ की डायरी
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