श्लीलता और अश्लीलता पर समाज में सदियों से बहसें चलती रही है, उस वक़्त भी जब किसी महिला की नग्न मूर्ती बनाई गयी और उसे कला का नाम दिया गया था. मतलब यह कि हर काल में दो धराये बहती रहती है. आज भी यही हो रहा है. हम प्रगतिशीलता की, खुलेपन की बाते करते है, और शौचालय या स्नानघर (चाहे तो आप बाथरूम कह लें)में दरवाजे लगाते है. वहां कोई खुलापन नहीं है. पूरी दुनिया में कही ऐसा नहीं है. चाहे अमरीका हो या ब्रिटेन. क्यों? वहां तो बहुत ज्यादा खुलापन है? फिर वहां ऐसा क्यों..? इसलिए, कि मर्यादा नाम की भी कोई चीज़ होती है. लेकिन इस वक्त अगर मै हिन्दी लेखन की बात करुँ तो एक ऐसी धारा बह रही है, जो खुद को उत्तराधुनिक मानती है, और जो यह दर्शन परोसने की कोशिश कर रही है, कि स्त्री की देह उसकी अपनी है, वह उसे जैसा चाहे रखे. ढंके, बेचे, सार्वजनिक करे, उसकी जो मर्ज़ी हो करे.
लेखन में भी यही हो रहा है.खुलेपन के नाम पर, उन्मुक्तता के नाम पर, आजादी के नाम पर जो लेखन हो रहा है, उसमे सारी मर्यादाएं टूट रही है. लेखिकाएं अश्लील दृश्यों का खुल कर वर्णन कर रही है, और उनके लेखन को बोल्ड निरूपित किया जा रहा है. जो जितना नंगा है, वह उतना आधुनिक है. इसीलिए अब स्त्री-देह पर कपडे का महत्त्व कम होता जा रहा है. स्त्री की देह अब खुल कर सामने लाई जा रही है, खुद स्त्री के द्वारा. और इसे बताया जा रहा है, कि यह आधुनिकता है. बोल्डनेस है. सलवार-कुरता या साड़ी वाली औरत पिछडी हुई है. जो देह दिखा रही है, और अंगरेजी भजी बोल रही है, वह मॉडर्न है. लेखन में भी जो लेखिका सम्भोग के दृश लिखरही है, समलैंगिकता का विन्यास गढ़ रही है, वह बड़ी बोल्ड है. इतने सालों के लेखन में मेरे सामने भी कई अवसर आये जब मै भी अपने उपन्यासों या कहानियों में दृश की माँग कह कर , और बोल्डनेस दिखाने के नाम पर -बड़ी चालाकी से अश्लीलता परोस सकता था, लेकिन मैंने ऐसा नहीं किया. क्योकि मुझे लगा कि जब पूरा समाज ही पतन को आधुनिकता समझाने की भूल कर रहा हो, तब लेखक तो यह भूल न करे. वह तो मर्यादा में रहे. सभी पतित हो जायेंगे, तो समाज को दिशा कौन दिखायेगा. ये भी बात है, कि अब लेखन से कितने लोग दिशा ग्रहण करते है, लेकिन कोशिश यही होनी चाहिए कि लेखक मूल्यों कि सर्जना करे. लेकिन अब ये सब बेमानी है.
कुछ लेखिकाए लोकप्रिय होने के चक्कर में साहित्य में खुल कर अश्लीलता परोस रही है, और इनको चने के झाड में चढ़ाने वाले घटिया आलोचक और संपादक भी है, जो इनका महिमा मंडन कर रहे है और सम्मान कर रहे है. ऐसे संक्रमण काल में अश्लीलता के विरोध में उठी आवाजों का कोई ख़ास अर्थ नहीं. फिर भी आवाज़ उठानी चाहिये. हम अन्दर से नंगे है. बाथरूम में, शौचालय में नंगे है, लेकिन सड़क पर हम कपड़ों में होते है. क्यों.?जो लोग नंगेपन के इतने ही पक्षधर है, वे सडको पर भी नंगे क्यों नहीं घूमते.? जाहिर है, कही न कही लोक-लाज का भय है. फिर साहित्य में ही क्यों हम आधुनिक या बोल्ड होने में तुल गए है..?
बोल्ड लेखन का अर्थ अश्ल्लीलता फैलाना नहीं होना चाहिए. बोल्ड लिखना है, तो अन्याय के खिलाफ बोल्ड लिखें, अत्याचार के खिलाफ लिखें. सामजिक बुराइयों के खिलाफ लिखे. ये क्या बात हुई कि दो सहेलियां मिली और सेक्स शुरू हो गया. अरे भाई, दो सहेलियां मिल कर किसी बलात्कारी को पकडे, किसी अन्याय का मुकाबला करे, महिलाओं को एकजुट करे.. रतिक्रिया ही न करे. चलो मान लिया, कि कर भी रही है, तो प्रतीकों से काम चला लो भाई, कि ''रीमा ने सीमा के गले से लगा लिया, और.....'' पर्याप्त है इतना. बात खत्म हो जायेगी. पाठक को भी कुछ कल्पना करने दो. उसकी बुद्धि पर भी भरोसा रखो. क्या तुम ही सब खोल दोगे ? लेकिन नहीं इतने से बात नहीं बनेगी. रीमा सीमा के एक-एक कपडे उतारेगी, फिर एक-एक अंग को देखेगी, उसका वर्णन करेगी, फिर रति का लंबा वर्णन भी होगा. तभी तो साबित होगा कि लेखिका बोल्ड है. मन-बहन की गाली भी होगी. हद है. जो हो रहा है, वह दिखा रहे है, सदियों से वही कुछ हो रहा है, जिसका नतीजा ही यहाँ संसार है, तो क्या उसी का वर्णन होता रहे..?
देश-समाज, सभ्यता, जीवन-मूल्य, नैतिकता, श्लीलता, मर्यादा, संस्कृति, ये सब को देश निकाला दे दिया जाए.? मेरी बहनों, मेरे लेखकों, इस देश की पश्चिमी-ललक को पहचानो, इस देश का भारतीयपन ख़त्म न होने पाए. अश्लीलता हर काल में बुरी रही है, उस वक्त भी जब नग्न मूर्तियाँ बनायी जाती थी. यह उदाहरण न दिया जाए कि खजुराहो या काम-कला की मूर्तियों को पूरे समाज की स्वीकृति थी. उसका विरोध करने वाले लोग तब भी हाशिये पर थे, आज भी है, कल भी रहेंगे. फिर भी विरोध होगा.
रविवार, 31 जनवरी 2010
श्लीलता और अश्लीलता
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