रविवार, 13 फ़रवरी 2011

छत्तीसगढ़ की डायरी

ये छत्तीसगढ़ है... यहाँ तो 
नक्सलियों की 'भी' चलती है..

नक्सलियों ने अठारह दिन पहले जिन पाँच जवानों को अगवा किया था, उन्हें स्वामी अग्निवेश और सामाजिक कार्यकर्ता और पत्रकार गौतम नवलखा आदि दो हजार लोगों की उपस्थिति में अंतत: रिहा कर दिया गया। बस्तर के घने जंगलों के बीच एक समारोह हुआ। जहाँ नक्सलियों ने बाजे-गाजे के बीच अगवा पुलिस जवानों को रिहा किया। इस शर्त के साथ, कि जवान पुलिस की नौकरी छोड़ देंगे। हालांकि बाद में इस शर्त का कोई कास असर दिखा नहीं। क्योंकि जवान उम्र के इस पड़ाव में अब नई नौकरी कहाँ से लाएँगे। इस रिहाई के बाद सोचने वाली बात यही है कि छत्तीसगढ़ में सरकार कहाँ है? नक्सलियोंकी ही चलती है। लगता है यहाँ एक तरह से नक्सलियों की ही सरकार चल रही है। सरकारतो मूक दर्शक बनने पर मजबूर हो गई है। यह एक तरह से विफलता ही है लेकिन अभी गेंद नक्सलियों के पाले में है। नक्सलियों को हीरो बनाने वाले स्वामी अग्निवेश की उपस्थिति में नक्सलियों ने जवानों को रिहा करके यह संदेश दे दिया है कि वे सरकार को कुछ नहीं समझते। ये अलग बात है कि मुख्यमंत्री ने नक्सलियों से बातचीत के लिए हामी भरी है, लेकिन क्या नक्सली हथियार छोड़ देंगे? क्या वे मुख्यधारा में शामिल होंगे? अगर ऐेेसा हो सके तो बड़ी बात है लेकिन ऐसा कुछ दीखता नहीं। एक ओर नक्सली अगवा जवानों को रिहा कर रहे हैं, तो दूसरी तरफ हिंसा और तोडफ़ोड़ का खेल भी खेल रहे हैं।
विनाश के विरुद्ध विकास की लड़ाई
नक्सली बस्तर में उत्पात मचाते ही रहते हैं। किसी भवन को उड़ा देना, किसी की हत्या कर देना उनके लिए बाएँ हाथ का खेल है। पाँच अगवा जवानों को छोड़ देने का मतलब यह नहीं है कि उनके भीतर करुणा का उदय हो गया है। इस बहाने मीडिया में वे छाए रहे। पिछले दिनों नक्सलियों ने बस्तर के एक रमणीय स्थल चित्रकोट में स्थित एक पुलिस चौकी को उड़ा दिया, लेकिन सबसे प्रेरक बात यह हुई कि चौबीस घंटे बाद ही चौकी शुरु कर दी गई। जनता ने ध्वस्त चौकी के निर्माण में अपना पसीना बहा दिया। यह घटना इस बात का सबूत है कि अगर विध्वंस अपना काम करता है तो सृजनधर्मी भी पीछे नहीं हटते। बस्तर के आम लोग नक्सलियों की गतिविधियों के पक्षधर नहीं है। इसके पहले भी अनेक गाँवों की महिलाओं एव लोगों ने नक्सलियों के विरुद्ध जुलूस निकाले, प्रदर्शन किए। यह उल्लेखनीय घटना है। आज जब नक्सली भय के पर्याय बन चुके हैं, तब ग्रामीण सामने आकर विध्वंस के विरुद्ध विकास का पसीना बहाते हैं, तो लगता है, कि अन्याय के खिलाफ खड़े होने वाले लोग भी जिंदा हैं।
लूट सके तो लूट...
छत्तीसगढ़ सरकार के दो चेहरे सामने आते रहते हैं। एक तरफ वह जनविकास की बात करती है,तो दूसरी तरफ जनता के पैसों से अय्याशी के सामान भी जुटाने में संकोच नहीं करती। फिछले दिनों लोगों को यह जान कर बड़ा अचरज हुआ कि जनता के पैसों से विधायकों एवं मंत्रियों को वाशिंग मशीन, ओवन और डिनर सेट बाँटे गये। ये पैसे सीधे-सीधे जनता के पैसे थे। इनमें किसानों को पैसा था, सिंचाई का पैसा था और सड़क बनाने केलिए जो पैसे आए थे, उन पैसों से विधायकों केलिए उपहार खरीदे गए। सूचना के अधिकार के तहत लोगों ने जो जानकारियाँ हासिल की, उससे ये सब खुलासे हुए। इस पाप में पक्ष और विपक्ष दोनों समान रूप से भागीदार हैं। यानी जनता को लूटने में विपक्ष भी पीछे नहीं है। वैसे बीच यह चर्चा आम है कि विपक्ष बिका-बिका-सा लगता है क्योंकि सरकार के खिलाफ उसके उग्र तेवर नजर ही नहीं आते। एक कवि ने इस लूट पर कुछ इस तरह से तुकबंदी की है
जनता की ही माल है, लूट से तो लूट।
बाद में तू पछताएगा, जब कुरसी जाएगी छूट।।

वेलेंटाइन डे.....
14 फरवरी को वेलेंटाइन डे रहता है। लेकिन लगता है युवा पीढ़ी के कुछ बिगड़ैल प्रतिनिधि रोज वेलेंटाइन डे के ही मूड में रहते हैं। इसीलिए रायपुर, बिलासपुर और भिलाई के कुछ बड़े-बड़े बाग-बगीचों में युवक-युवतियाँ इश्क लड़ाते मिल जाते हैं। पुलिस का या कुछ सामाजिक संगठनों का दबाव न रहे तो ये लोग खुल्मखुल्ला प्यार (?)करने पर उतारू हो जाएँ। पिछले दिनों ऐसे ही कुछ प्यारातुर जोड़ों को राजधानी से तीस किलोमीटर दीर भिलाईनगर की पुलिस ने पकड़ा। एक-दो नहीं, पूरे बीच जोड़े। ये लोग शायद वेलेंटाइन डे का पूर्वाभ्यास कर रहे थेे। इन सबको पुलिस पकड़ कर थाने ले गई। वहाँ इनके माता-पिताओं को बुलाया गया। युवा जोड़ों ने माफी मांगी तब जा कर उन्हें छोड़ा गया। अब इतना सब होने के बाद युवकों ने माता-पिता की इज्जत की कितनी परवाह की, कितनी शर्मिंदगी महसूस की, इसका तो पता नहीं चल सका, लेकिन लोगों को विश्वास है कि ये जिस तरह की हवा बह रही है, उसे देखते हुए तो यही लगता है, कि ये लोग सुधरने से रहे और वेलेंटाइन डे के दिन एक बार फिर छिप कर ही सही, इश्क का इजहार करने से बाज नहीं आएंगे।
पीएससी है कि मजाक...?
छतत्तीसगढ़ बनने के बाद ही यहाँ लोक सेवा आयोग का गठन भी हो गया था। लेकिन इन दस सालों में एक बार भी ऐसा नहीं हुआ कि आयोग ने साफ-सुथरा काम किया हो। हर बार विवाद की नौबत आती रही। कभी रिश्वतखोरी, तो कभी अनियमितता, तो कभी कोई गंभीर त्रुटि। हर बार जब परीक्षा होती है, तो उसके साथ मामला हाईकोर्ट में पहुँच जाता है। कभी विज्ञापन में त्रुटि तो कभी कुछ और। त्रस्त छात्रों ने दो दिन पहले मोमबत्ती जुलूस निकाल कर आयोग के खिलाफ प्रदर्शन किया। छात्रों ने मांग की कि अगर आयोग को चला नहीं सकते तो इस भंग ही कर दिया जाए। अब छत्तीसगढ़ के छात्र परीक्षा देने केलिए मध्यप्रदेश या झारखंड जाने का मन बना रहे हैं। छात्रों का कहना है कि अगर सचमुच गंभीरता के साथ आयोग को संचालित करना है तो इसका एक वार्षिक कैलेंडर बनाया जाए। परीक्षा की तिथि घोषित की जाए। और सबसे बड़ी बाद ऐसे लोगों को बिठाया जाए, जिनमें कुछ समझ हो। अनुभव हो। अनुभवहीनता का ही नतीजा है कि पीएससी की हर परीक्षा विवादास्पद हुई है।

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