शनिवार, 29 मई 2010

छ्त्तीसगढ़ की डायरी

यह गुंडई तो न करे पुलिस...
बिलासपुर जिले के मस्तूरी में पुलिस के दो सिपाहियों ने जो गुंडागर्दी की है, उसे देख कर राजधानी में लोगों को उस उपन्यास की याद ताजा हो आई जिसक नाम था वर्दीवाला गुंडा। वर्दी का मतलब गुंडागर्दी तो न हो। भगवानदास नामक एक खेतिहर मजदूर को सबेरे-सबेरे दो पुलिस वाले पूछताछ के लिए रोकते और थाने चलने के लिए कहते हैं। भगवानदास कारण पूछता है तो वर्दी के पीछे छिपा गुंडा जाग जाता है। बस गालियाँ-मारपीट शुरू। दो दिन तक उसे बुरी तरह पीटा जाता है। उसे पानी भी नहीं पीने दिया जाता। भाई खाना लेकर आता है तो उसे भगा दिया जाता है। दो दिन बाद बेचारा जमानत पर छूटता है और एसपी से मिल कर शिकायत करता है। एसपी उसका मुलाहिजा कराते हैं। इसके बाद होना तो यह चाहिए कि दोनों सिपाही निलंबित हों। उन पर और कड़ी कार्रवाई हो। वर्दी का मतलब यह नहीं कि किसी को भी राह चलते रोक दिया और पिटाई सुरू कर दी। ऐसी शिकायतें मिलने पर दोषी लोगों पर फौरन कार्रवाई करनी चाहिए। लेकिन ऐसा कम होता है। किसी पुलिस का कोई अपराध सामने आता है तो पुलिस विभाग लीपापोती करने में भिड़ जाता है। और यहीं से लोगों के मन में आक्रोश पनपता और सीधा-सादा आदमी भी अपराध की दिशा में मुड़ जाता है। अगर भगवानदास जैसे मजदूर अगर प्रतिशोध लेने के लिए कल को अपराधी या जंगल जा कर नक्सली बनते हैं, तो दोष किसका है, यह सोचने की बात है।
ये काले कारनामे वाले लेखक...
पिछले दिनों रायपुर में एक साहित्यिक कार्यक्रम में दिल्ली से पधारे एक लेखक जो जन्मजात ही शोक-मुक्त है, यानी 'अशोक' हैं, ने भाषण देते-देते कहा कि मुझे एक व्यक्ति का नाम नहीं याद आ रहा था तो मैं उस दिन कुछ ज्यादा ही दारू पी गया। उनके भाषण के इस अंश की जमकर चर्चा हुई। हो भी क्यों न। आजकल बहुत-से लेखकों की यह बीमारी हो गई है, कि वे अपने गलत-सलत कारनामों को इस तरह पेश करते हैं गोया उन्होंने बहादुरी का काम कर दिया है या फिर वे गाँधी की तरह सत्य के प्रयोग कर रहे हैं। अपनी लम्पटताओं को बताना सत्य का प्रयोग नहीं होता। एक लेखक ने एक बार एक तथाकथित बड़ी पत्रिका में अपने पापों का शान से जिक्र किया करते हुए बताया था, कि कैसे उसने बस्तर, रायपुर और बिलासपुर में औरतों के साथ मुँह काला किया। अपने घटिया कारनामों को उजागर करके ये लेखक सोचते हैं, कि हमने बड़े साहस का काम किया लेकिन वे भूल जाते हैं, कि उनकी इन गलत हरकतों को नये लेखक एक परम्परा की तरह भी लेते हैं, कि वो कर रहा है, तो हम क्यों नहीं कर सकते।
ये लाल रंग कब हमें छोड़ेगा?
हर दूसरे-चौथे दिन नक्सलियों द्वारा खून बहाने का सिलसिला जारी है। सामान्य जन की हत्याएँ भी ये लोग करने लगे हैं। आखिर ये कैसी क्रांति है जो लगातार खून माँग रही है। निरीह लोगों का खून बह रहा है और क्रांति करने वाले लोग अंधेरे में कहीं छिप कर अट्टहास कर रहे हैं। सरकार की विफलता पर हँस रहे हैं। म•ााक उड़ा रहे हैं। उन्हें चुनौती दे रहे हैं। हम अपने तंत्र को आखिर कब इतना मजबूत करेंगे कि नक्सली नाकाम हो जाएँ। पिछले दिनों पुलिस ने एक नक्सली को पकड़ा। इसी तरह सक्रियता के साथ काम करें तो और भी गिरफ्त में आएँगे। जरूरत इस बात की है कि पुलिस और अर्धसैनिक बल जुझारू तरीके से काम करे। बस्तर को एक चुनौती के रूप में लें, सजा के तौर पर नहीं। वहाँ जाने का मतलब है कि हम एक मिशन में जा रहे हैं। सरकार नक्सलियों से जूझने वाले लोगों के लिए और बेहतर पैकेज लाए। मनुष्यता विरोधी नक्सलियों की हरकतें देख कर लगता नहीं कि ये इतनी आसानी से लाल रंग को छोड़ेंगे। हमें ही उनसे मुकाबला करने के लिए तैयार रहना होगा।
महिला मुक्ति का ये चेहरा..
पिछले दिनों एक गाँव की एक महिला सरपंच को पिछले दिनों सिर्फ इसीलिए सरेराह पीटा गया, कि वह अवैध कब्जे हटा कर अपने कर्तव्य का निर्वहन कर रही थी। ऐसी कुछ और घटनाएँ सामने आई हैं, जब महिला सरपंच या अध्यक्ष के कार्यों को लोगों ने पसंद नहीं किया और महिला पदाधिकारी का अपमान करने की कोशिश की। दरअसरल पुरुषप्रधान समाज व्यवस्था में स्त्री को अधिकार सम्पन्न देखना बहुत-से पुरुषों को अब भी नागवार गुजरता है। जबकि सच्चाई यह है कि अब स्त्री को कोई रोक नहीं सकता। उसके हाथों में अधिकार देने ही होंगे। तभी वह कुछ काम कर सकती है। बराबरी का दर्जा भी तभी मिलेगा। अब समय आ गया है कि लोगों में यह जागृति भी लाई जाए कि वे अधिकारसम्पन्न औरतें की कार्रवाई से निपटने के लिए कानून का सहारा लें न कि बाहुबल का।
तरणताल बनाम मरणताल
गरमी के कारण लोगों का बुरा हाल है। जो लोग साधनसम्पन्न हैं, वे वातानुकूलित क क्षों में रह लेते हैं लेकिन अभी भी एक बड़ा वर्ग तपती दोपहरी में पसीना बहाते हुए काम करने पर विवश है। पैसे वाले लोग तो शाम को किसी महँगे तरणताल (स्वीमिंग पूल)में जाकर तैर कर शीतलता भी प्राप्त कर लेते हैं, लेकिन गरीब कहाँ जाए? उसके हिस्से के सारे ताल मरणताल (सूखे तालाब)बन गए है। या तो सूख गए है, या इतने गंदे हैं कि उनमें तैरना भी एक चुनौती है। फिर भी वे काम तो चला ही लेते हैं। लेकिन इसी बहाने दो तरह का समाज राजधानी में साफ-साफ दिखता है। एक तरणताल वाला समाज, जिसके पास सारा वैभव सिमट गया है, और दूसरा है मरणताल वाला समाज, जिसके पास पीने का स्वच्छ पानी भी नही है। तरणताल में डुबकी लगाना तो दूर की बात है।
ये प्रहसन बंद हो...
तालाब गहरीकरण या अन्य किसी कार्य केलिए जब कोई नेता या अफसर हाथ में कुदाली या फावड़ा थामे फोटो खिंचवाता है तो लोगों को समझ में आ जाता है कि यह एक प्रहसन है। इस पर केवल हँसा जा सकता है। हमारे अभिजात्य वर्ग के लोग कुदाली-फावड़े को छू कर केवल धन्य ही न करें, वरन एक-दो फुट का गड्ढा भी करें। लोगों को यह भी तो दिखे कि उन्होंने कुछ पसीना भी बहाया है और सचमुच लोगों को प्रेरणा दी है। केवर कुदाली उठाकर एक-दो घाँव मार देने से से प्रहसन तो हो सकता है, किसी का प्रेरणा नहीं मिल सकती। जब कभी ऐसे अवसर आएँ तो अभिजात्य वर्ग के लोगों को सब कुछ भूलभाल कर भिड़ जाना चाहिए और सचमुच कुछ घंटे श्रमदान करके इतिहास रच देना चाहिए। बेशक वे ऐसा कर सकते हैं, लेकिन आसपास के चमचेनुमा लोग ऐसा करने ही नहीं देते। यही कारण है कि हमारे बहुत से काम केवल प्रहसन बन कर रह जाते हैं।

सोमवार, 24 मई 2010

''हिन्द स्वराज'' के बहाने इस नए बनते समाज पर चर्चा

कुंवारियों के माँ बनने की रफ्तार बढ़ी है, अगर यही 
नयी सभ्यता है तो मुझे कुछ भी नहीं कहना
''हिन्द स्वराज'' का हर पाठ हमें नित नए अर्थ-लोक तक ले जाता है। ''हिंद स्वराज'' की शताब्दी केवल एक पुस्तक की शताब्दी (२००९) ख़त्म होने के बाद भी उस पर चर्चा होती रहे. 'हिंद स्वराज' के विचार अभी भी व्यवहार में नहीं उतर पाए हैं। जब हम गाँधी जी के हिंद स्वराज में वर्णित सभ्यता को समझ सकेंगे, तभी हम महामानवता के स्वप्न को भी साकार कर सकेंगे।गाँधीजी का यह लघु-कृति एक शताब्दी के बाद भी विचारों का जो बड़ा शिखर रचती है, वह चमत्कृत करने वाला है। मैं कह सकता हूँ, कि नए भारत के पुनर्निर्माण के लिए जो आधुनिक चिंतन पिछली शताब्दी में शुरू हुए, ''हिन्द स्वराज'' उनका प्रस्थान बिंदु है। बीसवीं सदी में जब भारत गुलामी का दंश झेल रहा था और आजादी के संघर्षरत था, तब गाँधी जी मानों एक नए अवतार की तरह भारत आते हैं और यह बताने-समझाने की कोशिश करते हैं, कि हमारा देश आजाद कैसे हो और आजा़द भारत का स्वरूप कैसा हो। गाँधीजी केवल स्वतंत्रता नहीं चाहते थे, वरन ऐसा समाज भी चाहते थे जहाँ सभ्यता हो, स्वदेशीपन हो, जहाँ अपनी भाषा-बोली की प्रतिष्ठा हो, जहाँ मनुष्य यंत्रों का गुलाम न बन कर श्रम के सम्मान के लिए प्रतिबद्ध रहे। वर्तमान यांत्रिक सभ्यता और तद्जनित पतन को देखते हुए साफ लगता है, कि हिंद में गाँधी का स्वराज्य पराजित हो रहा है और आधुनिकता की अंधी दौड़ में पश्चिम से प्रभावित नया इंडिया भारत या हिंदुस्तान को पीछे छोड़ता चला जा रहा है।
हिंद स्वराज्य की अधिकांश बातें समकालीन निकष पर सौ टंच खरी उतर रही हैं। आज भी अगर हम गाँधीजी के हिंद स्वराज्य की बातों पर चल सकें तो पुनर्निमाण की दिशा में एक बड़ी उपलब्धि हो सकती है। हिंद स्वराज्य के बीस अध्याय मुझे आधनिक विचारों की गीता बीस अध्याय सरीखे लगते हैं। इन्हें आत्मसात करके ही भारत भारत बन सकता है लेकिन अब जैसे अधिकांश जीवन-मूल्य, नैतिकता, परम्पराएँ बहिष्कृत-सी होती जा रही हैं। ठीक उसी तरह गाँधी को भी अप्रासंगिक करार देने की साजिशें हो रही है। अपने काल से काफी आगे की प्रगतिशील सोच रखने वाले गाँधी के बगैर भारत सच्चा विकास नहीं कर सकता। गाँधी के बगैर बढऩा आतमघाती कदम हो सकता है।'
हिन्द स्वराज' के बारे में गाँधी पुस्तक की भूमिका में लिखते हैं, कि  ''यह पुस्तक द्वेष धर्म की जगह प्रेम सिखाती है, हिंसा की जगह आत्म बलिदान को रखती है। पशुबल से टक्कर लेने के लिए आत्मबल को खड़ा करती है।''आज गाँधी की इन्हीं बातों को अमल में लाने की जरूरत है। फिर चाहे वह यंत्रोन्मुखी होने का मसला हो, राष्ट्रभाषा का सवाल हो, गो हत्या का मामला हो या हिंदू-मस्लिम एकता का प्रश्न। जब तक समाज आत्म बलिदान के लिए प्रवृत्त नहीं होगा, ऐसे तमाम मुद्दों पर सफलता नहीं मिल सकती जो हमारी अस्मिता के पर्याय हैं। यांत्रिक सभ्यता से ग्रस्त समाज निर्मम-मन का स्वामी हो जाता है। वह करुणाविहीन हो कर स्वार्थसिद्धि के लिए हिंसा का, छल का, लूट का, बलात्कार का यानी कि हर अनैतिक कार्यों का सहारा लेता है जो कि किसी भी शिष्ट समाज के विरुद्ध नज़र आते हैं। सौ साल पहले गाँधी जी जिन तमाम मुद्दों पर हिंद स्वराज्य में गंभीरतापूर्वक विमर्श किया है, वे तमाम मुद्दे अब और गहनतम होते गए हैं। इन पर सोचने-विचारने और बेहतर समाज कैसे बन सके, इस पर ही चिंतन की जरूरत है।
आजकल जिस यांत्रिक सभ्यता का एक तरह से (चलताऊ जुमले में कहूँ, तो)जो 'बूम' नजर आ रहा है, और जिसके कारण नैतिकता हाशिये पर दम तोड़ रही है, उसकी जालिम पदचाप तो गाँधी ने सौ साल पहले ही सुन ली थी। इसीलिए तो उन्होंने मशीनों पर आश्रित होने की बढ़ती ललक पर जो तल्ख टिप्पणियाँ की हैं, वे आज सार्थक हो रही हैं। कपड़ा मिलों के बढ़ते दुष्प्रभाव आज हमारे सामने हैं। खादी जो कभी वस्त्र नहीं विचार था, अंगरेजों से लडऩे का कारगर हथियार था, आज कहाँ हैं? सरकारें तक खादी की उपेक्षा कर रही हैं। गाँधी जी ने उस वक्त भारतीयों की मानसिकता समझ ली थी इसीलिए उन्होंने कहा था, कि  ''मिल मालिक यकायक मिलें छोड़ दें, यह मुमकिन नहीं है लेकिन हम उनसे ऐसी विनती कर सकते हैं कि वे अपने इस साहस को बढ़ाएँ नहीं। अगर वे देश का भला चाहें तो खुद अपना काम धीरे-धीरे कम कर सकते हैं। वे ''खुद पुराने, प्रौढ़ पवित्र चरखे देश के हजारों घरों में दाखिल कर सकते हैं और लोगों का बुना कपड़ा लेकर उसे बेच सकते हैं।''
आज मिलें तो स्वदेशी हैं, लेकिन हमारी मानसिकता विदेशी हो गई है। जो खादी घर-घर में तैयार होती थी, जो चरखा पूजा की थाल से कम नहीं माना जाता घ्था, जिस चरखे की आवाज मंत्र सरीखी प्रतीत होती थी, वह चरखा कहाँ है? खादी अब खद्दर बन कर बुजुर्गों की तरह घर से निकाल बाहर कर दी गई है। गाँधी के देश में खादी की इतनी दुर्गति की कल्पना खुद गाँधी जी ने उस वक्त नहीं की होगी। इसका एक कारण है यांत्रिकता के प्रति हमारी गहरी अनुरक्ति। मिलों के बने चिकने कपड़ें के बरअक्स खादी की हालत ऐसी हो गई है, जैसे किसी अर्धवसना आधुनिका के सामने सिर पर पल्लू लेने वाली ठेठ भारतीयता की प्रतीक कोई संस्कारित नारी। ऐसी नारियों की ओर अब देखता ही कौन है? अब तो नग्नता ही प्रगतिशीलता है। ऐसी मानसिकता के कारण चरखे से उपजी खादी-गंगा मैली हो कर लुप्त होती जा रही है। खादी की दुर्गति यांत्रिक सभ्यता का ही दुष्परिणाम है। अगर गाँवों को खुशहाल रखना है तो हमें यंत्रजनित उत्पादों की जगह कुटीर उद्योगों एवं हस्तशिल्पों को बढ़वा देना होगा। हमारे गाँव तो वैसे भी तबाह हो रहे हैं। डायनासोर बनते जा रहे शहर गाँवों को निगलते जा रहे हैं। ऐसे संक्रमण-काल में गाँधी जी का स्वदेशी-चिंतन ही भारतीय ग्रामीण अर्थव्यवस्था को तार-तार होने से बचा सकता है।
गाँधीजी अगर यांत्रिक सभ्यता के विरुद्ध थे तो इसका मतलब यह नहीं कि वे विकास विरोधी थे। दरअसल वे विकास को ग्रामीण अर्थशास्त्र से जोड़कर देखते थे। हिंद स्वराज्य को बहुत से तथाकथित विचारक अब तक ठीक से समझ ही नहीं सके हैं। या तो उन्होंने हिंद स्वराज्य को सरसरी तौर पर ही पढ़ा है, अथवा वे जानबूझ कर गाँधी के विचारों को नकार रहे हैं। यह संतोष की बात है कि अमरीकी राष्ट्रपति बराक ओबामा से लेकर नोबेल पुरस्कार विजेता भारतीय अर्थशास्त्री अमत्र्य सेन जैसे अनके लोग हैं, जो गाँधी के विचारों का आदर करते हैं। अमत्र्य सेन ने हिंद स्वराज्य की तमाम बातों से अपनी सहमति जताई है।
यंत्रों के बारे गाँधी जी के विचारों को पढऩे के बाद जब रामचंद्रन ने उनसे पूछा था कि 'क्या आप तमाम यंत्रों के खिलाफ हैं'', तो गाँधी जी ने मुस्कराते हुए कहा था, कि ''वैसा मैं कैसे हो सकता हूँ, जब मैं जानता हूँ कि यह शरीर भी एक बहुत नाजुक यंत्र ही है। खुद चरखा एक यंत्र है, छोटी दाँत कुरेदनी भी यंत्र है।'' गाँधी जी यहाँ बिल्कुल साफ कर दिया कि  'मेरा विरोध यंत्रों से नहीं है बल्कि यंत्रों के पीछे जो पागलपन चल रहा है, उसके लिए हैं। आज तो जिन्हें मेहनत बचाने वाले यंत्र कहते हैं, उनके पीछे लोग पागल हो गए हैं। उनसे मेहनत जरूर बचती है लेकिन लाखों लोग बेकार हो कर भूखों मरते हुए रास्तों पर भटकते हैं। समय और श्रम की बचत तो मैं भी चाहता हूँ  परंतु वह किसी खास वर्ग की नहीं, बल्कि सारी मानव जाति की होनी चाहिए। कुछ गिने-चुने लोगों के पास संपत्ति जमा हो ऐसा नहीं, बल्कि सबके पास जमा हो, ऐसा मैं चाहता हूँ। आज तो करोड़ों की गरदन पर कुछ लोग सवार हो जाने में यंत्र मददगार हो रहे हैं। यंत्रों के उपयोग के पीछे जो प्रेरक कारण है, वह श्रम की बचत नहीं है बरन धन का लोभ है। आज की चालू अर्थव्यवस्था के खिलाफ मैं अपनी ताकत लगा कर युद्ध चला रहा हूँ।'' गाँधी जी का यह कथन बताता है कि वे यंत्रों के खिलाफ नहीं थे लेकिन यंत्रों के पीछे छिपे षडयंत्रों के खिलाफ जरूर थे। वे तब समझ चुके थे कि यंत्र चंद लोगों के शोषण के औजार और विलासता के विकास के उपकरण बन चुके हैं। अगर यही रफ्तार रही तो भविष्य में मेहनतकश समाज के भविष्य पर प्रश्नच्न्हि लग जाएगा।
हिन्द स्वराज  को ध्यान से पढ़ें । यंत्रों के उपयोग का पीछे की मानसिकता पर बापू कहते हैं कि  ''मैं इतना जोडऩा चाहता हूँ, कि सबसे पहले यंत्रों की खोज और विज्ञान लोभ के साधन नहीं रहने चाहिए। फिर मजदूरों से उनकी ताकत से ज्यादा काम नहीं लिया जाएगा और यंत्र रुकावट बनने की बजाय मददगार हो जाएँगे। मेरा उद्देश्य तमाम यंत्रों का नाश करने का नहीं है बल्कि उनकी हद बाँधने का है।'' गाँधी जी ने अपनी बात को और साफ करते हुए कहा, कि  ''हम जो कुछ भी करें, उसमें मुख्य विचार इंसान के भले का होना चाहिए। ऐसे यंत्र नहीं होने चाहिए जो काम न रहने के कारण आदमी के अंंगों को जड़ और बेकार बना दे। इसीलिए यंत्रों को मुझे परखना होगा। जैसे सिंगर की सीने की मशीन का मैं स्वागत करूँगा। आज की सब खोजों में जो बहुत काम की थोड़ी खोजें हैं, उनमें से यह सीने की मशीन है। इस मशीन की खोज के पीछे मनुष्य की जो करुणा की भावना है, उसके बारे में भी गाँधी जी ने घटना बताई कि सिंगर ने अपनी पत्नी का सीने और बखिया लगाने का उकताने वाला काम देखा। पत्नी के प्रति उसके प्रेम ने गैर जरूरी मेहनत से उसे बचाने के लिए मशीन बनाने की प्रेरणा दी। ऐसी खोज करके उसने न सिर्फ अपनी पत्नी का ही श्रम बचाया, बल्कि जो भी ऐसी मशीन खरीद सकते हैं उन सबको हाथ से सीने के उबाने वाले श्रम से छुड़ाया। इस उदाहरण से तो बिल्कुल साफ हो जाता है कि गाँधी मशीनों के कतई खिलाफ नहीं थे। इसलिए गाँधी को यंत्र विरोधी करार देने की भूल नहीं की जानी चाहिए।
हिंद स्वराज्य में गाँधी जी ने सभ्यता के मसले पर भी लिखा है। वे उस सभ्यता के विरोधी थे जो मनुष्य को निर्मम बनाती है। इस इक्कीसवीं सदी की हालत क्या है? यांत्रिकता ने हमें पूरी तरह से यंत्रवत ही बना कर रख दिया है। रोबोट होते जा रहे हैं लोग। यंत्रों में संवेदनाएँ नहीं होतीं। यंत्र यंत्र होते हैं। बटन या प्रोग्रामिंग से चलते हैं। यंत्र में तब्दील मनुष्य की संवेदनाएँ क्षरित होती जा रही हैं। यही कारण है कि आज सुदूर गाँवों में बड़े-बड़े कल-कारखाने लगाए जा रहे हैं तो वहाँ के माटी पुत्रों को बेदखल किया जा रहा है। उनको चालाकी के साथ या फिर डंडे-गोलियों का भय दिखा कर भगाया जा रहा है। खून से सनी मिट्टी में यंत्र लगाए जा रहे हैं। धन पिपासुओं के आगे समूची व्यवस्था जैसे घुटने टेकने पर विवश है। विकास की आड़ में आदिवासी या ग्रामीण उजड़ते जा रहे हैं। यही है निर्मम यांत्रिक सभ्यता जिसके विरोध में गाँधी सौ साल पहले खड़े थे, और हिंद स्वराज्य के माध्यम से आज भी खड़े हैं और शायद कल भी खड़े रहेंगे। सौ साल पहले कहा गया गाँधी का कथन जैसे लगता है कि आजकल में ही कहा गया है, कि  ''धन के पीछे आज जो पागल दौड़ चल रही है, वह रुकनी चाहिए। मजदूरों को सिर्फ अच्छी रोजी मिले, इतना ही बस नहीं है। उनसे हो सके, ऐसा काम उन्हें रोज मिलना चाहिए। ऐसी हालत में यंत्र जितना सरकार को या उसके मालिक को लाभ पहुँचाएगा, उतना ही लाभ उसके चलाने वाले मजदूरों को भी पहुँचाएगा। मेरी कल्पना में यंत्रों के बारे में कुछ अपवाद हैं उनमें यह है। सिंगर मशीन के पीछे प्रेम था इसमें मानव-सुख का विचार मुख्य था।''
यंत्रों में कोई बुराई नहीं है, यांत्रिकता बुरी है। जड़ में विकास है लेकिन जड़ता में अवरोध है। प्यार अच्छी चीज है, लेकिन मोह गलत है। विश्वास और श्रद्धा का सम्मान होना चाहिए लेकिन अंधविश्वास और अंधश्रद्धा उचित नहीं। यह विवेकहीनता है। गाँधी मनुष्य का विवेक जागृत करने का काम करते हैं। उनकी दृष्टि व्यापक है। वे सर्वजन हिताय सोचते थे। वंचितों को उन्होंने गले लगाने की कोशिश की। समाज में एक वातावरण बनाया। दलितों को उन्होंने हरि का जन कहा लेकिन हमारी मानसिकता ने गाँधी के महान अलंकरण में भी खोट देख लिया। वह अलंकरण ही प्रतिबंंधित कर दिया गया। यही कट्टरता है। यांत्रिकता से उपजी विचारशून्य सभ्यता है। गाँधी जी ऐसी कट्टरता के विरुद्ध थे। यांत्रिक सभ्यता कट्टरवाद को भी जन्म देती है। गाँधी को न समझ पाने वाला एक वर्ग आज भी नफरत से भरा हुआ है। वैचारिक अलगाव भारतीय-जीवन के केंद्र-सा बनता जा रहा है। गाँधी को गरियाने वाले आज भी मिल जाते हैं। इनमें अधिकतर वे लोग हैं जिनके जीवन में गाँधी-सा न कोई त्याग है, न कर्म। ये लोग का-पी कर अघाए हुए तथाकथित सभ्य लोग हैं, जो न तो समाज के बारे में सोचते हैं, न देश के बारे में। वे अपनी-अपनी सीमित अस्मिताओं के लिए लड़ते रहते हैं, बस। अगर हम यांत्रिक सभ्यता के शिकार न होते तो चिंतनशील होते, प्रेम-अहिंसा जैसे मानवीय-गुणधर्मों से लबरेज होते। देश में धार्मिक या जातीय-विद्वेष इतनी तेजी से नहीं फैलता। राष्ट्रभाषा और क्षेत्र को लेकर संकुचित दृष्टि भी इतना विकराल रूप धारण न करती। यांत्रिक सोच की दुखद परिणति ही है कि आज भारत की जगह हर तरफ इंडिया ही इंडिया नजर आने लगा है। हिंद स्वराज्य के  'स्वराज्य क्या है' नामक अध्याय में  गाँधी जी ने व्यंग्य करते हुए कहा है कि  ''हमें अंगरेजी राज्य तो चाहिए, पर अंगरेजों का शासन नहीं चाहिए। आप बाघ का स्वभाव तो चाहते हैं लेकिन बाघ नहीं चाहते। मतलब यह हुआ कि आप हिंदुस्तान को अंगरेज बनाना चाहते हैं और हिंदुस्तान जब अंगरेज बन जाएगा तब वह हिंदुस्तान नहीं कहा जाएगा। यह मेरी कल्पना का स्वराज्य नहीं है।'' सचमुच गाँधी की कल्पना का स्वराज्यअभी तक नहीं आ पाया है। आज अंगरेज तो नहीं है लेकिन सत्ता में बैठे लोग अंगरेजों के पिताश्री हैं। उनकी मानसिकता अंगरेजी है। वे अंगरेजी में सोचते हैं, अंगरेजी में लिखते-पढ़ते हैं, बोलते हैं और अँगरेजी में ही खाते-पीते हैं इसलिए उनका चरित्र आज भी अंगरेजियत से भरा है। वे राष्ट्रविरोधी हैं। सामंती है, मगरूर हैं, हिंसक है। प्रतिरोध में उठी आवाजें इन्हें पसंद नहीं, जैसे अंगरेजों को नहीं थीं। बड़ा आश्चर्य है कि फिर भी ये लोग अपने को सभ्य कहते हैं। अगर यह देश गाँधी जी के हिंद स्वराज्य को समझ कर अपनी नीतियाँ बनाता और उस पर अमल कर लेता तो देश में राजराज्य होता, इतनी सरकारी हिंसा भी नहीं होती। दिमाग के यंत्रवत कार्य करने के कारण ही करुणा और अहिंसा जैसी बुनियादी चरित्र से शासन से दिनोदिन दूर होता गया। तंत्र ने लोक को लोक नहीं समझा। यह सब गाँधीवाद के विरुद्ध है।
गाँधी जी ने इग्लैंड की पार्लियामेंट को बाँझ और वेश्या कहा था। बाद में उन्होंने  'वेश्या'' शब्द को विलोपित कर दिया था लेकिन उनका आरोप सही था। आज भारतीय परिप्रेक्ष्य में भी ये दोनों शब्द अप्रासंगिक नही हैं। हमारी संसद जनहित में अनेक निर्णय तो करती है लेकिन वे कार्यरूप में परिणत नही हो पाते। पार्लियामेंट में अब जैसे लोग चुनकर जा रहे हैं, उसे देख कर हैरत होती है। अब आम आदमी संसद नही पहुँच सकता। या तो वंश-परंपरा से आने वाले लोग पहुँचते हैं या फिर करोड़पति-अरबपति। ब्रिटिश पार्लियामेंट के बारे में गाँधी जी ने लिखा था कि 'जितना समय और पैसा पार्लियामेंट खर्च करती है, उतना समय और पैसा अगर लोगों को मिले तो प्रजा का उद्धार हो जाए। ब्रिटिश पार्लियामेंट महज प्रजा का खिलौना है।' आज भी कमोबेश वही हालत है। पार्लियामेंट की व्यवस्था में करोड़ों खर्च होते हैं, लेकिन देश की जनता की बेहतरी कितनी हो पाती है? उल्टे संसद की कार्रवाइयों के जो दृश्य सामने आते हैं, वे कई बार नाट्य मंचों या टीवी चैनलों में प्रस्तुत होने वाले नाटकीय दृश्यों जैसे ही फूहड़ लगते हैं। हमारा संविधान लोकमंगल की भावना से भरा पड़ा है लेकिन व्यावहारिक धरातल पर अमल न हो पाने के कारण लोकतंत्र मजाक-सा लगने लगता है। बातें तो बड़ी अच्छी है, मगर वे सार्थक न हो सकें तो उसका औचित्य ही क्या? हमारी नई यांत्रिक सभ्यता का यही चरित्र है कि वह बातें बड़ी-बड़ी करती है, लेकिन काम फूटी कौड़ी का नहीं। यंत्रों में अगर संवेदनाएँ होती तो शायद वे कुछ करती भी। इसी तरह जो मनुष्य यंत्रवत हो चुके हैं, उनसे हम कल्याण की उम्मीद नहीं कर सकते। इसीलिए मेरा यही मानना है, कि इस नई यांत्रिक सभ्यता ने हमें हृदयहीन बना कर रख दिया है। अभी तो ये अँगड़ाई है, आगे और लड़ाई है। यह शुरुआत है। जो मंज़र अभी दीख रहे हैं, उससे भविष्य की विसंगतियों का अनुमान लगाया जा सकता है। अगर भारतीय समाज को बचाना है तो उसे गाँधी के रास्ते पर ही चलना होगा। बले ही वह  'गाँधीवाद' को पचा न पाए, 'गाँधीगीरी' जैसे हाजमोलाई शब्द ही काम चलाए लेकिन हमें गाँधी के निकट तो आना ही पड़ेगा क्योंकि गाँधी लाख दुखों की एक दवा है। इसका कोई साइड इफेक्ट भी नहीं है। इससे घबराने की जरूरत नहीं। हम आधुनिक बनें, यंत्रों की दुनिया के बीच जीएँ (मोबाइल और इंटरनेट से हमारा कितना गहरा रिश्ता बन चुका है) मगर गाँधी के उन वचनों को न भूल जाएँ जो उन्होंने मनुष्यता को बचाने के लिए हिंद स्वराज्य में कहे।
आज भारतीय समाज पश्चिम की ओर मुँह करके चल रहा है इसीलिए ठोकरें का रहा है। कदम-कदम पर गिर रहा है। संस्कृति की चुनरी उड़ कर कहाँ चली गई, पता ही नहीं चला। नैतिकता का जूता कब का फट चुका है। सभ्यता के वस्त्र तार-तार हो चुके हैं। सब कुछ दिखने लगा है खुल्लमखुल्ला। जो दैहिक उभार या जो चीजें ढँकी रहती थीं, अब उन्हें ही दिखाया जा रहा है। बर्बादी को जैसे पारिवारिक-सामाजिक स्वीकृति मिल गई है। हिंद स्वराज्य में जो दिशा दिखाई गई है, जो जीवन-सूत्र दिए गए हैं, उसके सहारे हम क्यों नहीं चल सकते? अगर ऐसा कर सकते तो एक नैतिक समाज की स्थापना में आसानी होती लेकिन अब ऐसा संभव नहीं दिखता। लगता है, कि हम लोग बहुत आगे निकल आए हैं। आज की नई सभ्यता में अराजकता है, असंकारिता है। निर्लज्जता है। गाँधी ने हिंद की सभ्यता को सबसे अच्छी सभ्यता निरूपित किया था। यूरोप की सभ्यता को उन्होंने चार दिन की चाँदनी कहा था। सौ साल पहले गाँधी ने भारतीय समाज की यूरोपीय संस्कृकि के प्रति अंधी आसक्ति देख कर कहा था, कि अँगरेजों की सभ्यता को बढ़ावा दे कर हमने जो पाप किया उसे धो डालने के लिए हमें मरने तक भी अंदमान में रहना पड़े तो वह कुछ ज्यादा नहीं होगा। सौ साल पहले गाँधी जी ने जिस पाप की ओर इशारा किया था, उस पाप का घड़ा तो कब का लबालब भर चुका है लेकिन फूटने का नाम नहीं ले रहा। उल्टे इस घड़े को बचाने की मुहिम-सी चल रही है। नए भारतीय मानल को देख कर हैरत होती है। सोचना पड़ता है, कि कया इसी देश में कभी महावीर, गौतम, नानक, विवेकानंद, दयानंद सरस्वती, गाँधी, बिनोबा आदि महापुरुष जन्में थे? आने वाली पीढियों को यकीन ही नहीं होगा। वे समझेंगी कि ये सब मिथक है। काल्पनिक पात्र है। भविष्य में जैसा क्रूर समाज विकसित होगा, उसमें यह संभव है।
यह नई यांत्रिक सभ्यता हमें और पतित करेगी। रिश्तों के मामले में हम धीरे-धीरे कृपण होते जा रहे हैं। पशुवत आचरण की खबरें आए दिन छपती ही रहती हैं। सम्पत्ति-विवाद के कारण भाई ने भाई को मार डाला। बेटे ने पिता की हत्या कर दी..आदि-आदि। आधुनिक सभ्यता ने हमें शिक्षित तो किया है, सुशिक्षित नहीं। हिंद स्वराज्य में गाँधी ने इस बाबत अँगरेज विद्वान हक्सले के कथन का हवाला दिया हैं, जिसमें हक्सले कहते हैं कि उसी आदमी ने सच्ची शिक्षा पाई है जिसकी बुद्धि शुद्ध, शांत  और न्यायदर्शी है। उसने सच्ची शिक्षा पाई है, जिसके मन की भावनाएँ बिल्कुल शुद्ध हैं। जिसे नीच कामों से नफरत है और जो दूसरे को अपने जैसा मानता है। हक्सले के इन कथनों के बरअक्स आज की शिक्षा और इसके फलितार्थों को देख लें। पढ़े-लिखे लोगों के न तो मन शुद्ध हैं, न शांत है और न प्रेम से भरे हुए हैं। वे लोग अपने ही लोगों से नफरत करते हैं। अपराध और अपराधी तक हाइटेक हो चुके हैं। ऐसा पढ़ा-लिखा समाज किस काम का जो हिंसा करता है और बेचैन नहीं होता? नफरत करता है और ग्लानि से नहीं भरता? किसी को नीचा दिखाने का उपक्रम करता है और दुखी नहीं होता? समकालीन शिक्षा हमें केवल सूचित करती है, सुशिक्षित नहीं करती। हमारा विवेक जागृत नहीं करती। यही इसकी सबसे बड़ी कमी है। विवेक जागरण के लिए विद्यालयीन शिक्षा की जरूरत नहीं। इसके लिए नैतिक शिक्षा अनिवार्य बने। समता-ममता के पाठ पढ़ाएँ जाएँ। अब जो नई शिक्षा व्यवस्था लादी जा रही है, उसमें मनुष्य को केवल यंत्र बनाने की व्यवस्था है। वेतन के पैकजों की ही भाषा है। पढ़ा-लिखा युवा रोबोट की तरह काम कर लेता है, तगड़ी कमाई कर लेता है,  ईष्र्या के लिए बाध्य करने वाला भौतिक वैभव प्राप्त कर लेता है लेकिन वह अपने माता-पिता से को वृद्धाश्रम में भेज देता है, अपने भाई-बंधुओं से तन और मन दोनों से ही दूर हो जाता है।
रिश्तों की, अपनत्व की हत्या करके भी हम सभ्य कहला रहे हैं तो यह बिल्कुल नई सभ्यता है, जिसकी आहट गाँधी ने सुन ली थी, और जिसक ी गहन चिंता उन्होंने हिंद स्वराज्य में की है। गाँधी ऐसी शिक्षा के कायल नहीं थे। वे चाहते थे, कि पढ़-लिख कर लोग मनुष्य भी बनें। लोग अपने नैतिक कर्तव्यों को भी समझें। लेकिन अब नया दौर है। अब  'गिव्ह एंड टेक' का जमाना है। 'यूज  एंड थ्रो'' की अप-संस्कृति जोरों पर है। यह नया समाज हैरत में डाल देने वाला है। आदिम युग से उठ कर मानव यहाँ तक पहँच गया है, लेकिन उसकी प्रवृत्तियाँ आदिम ही बनी हुई है। उसकी हरकतों में वे मूल्य दृष्टव्य नहीं होते जो यह साबित करें कि वह सभ्यता के नये आलोक में जी रहा है। विकास और विनाश में अंतर करना कठिन हो रहा है। इसका असली कारण यही है कि तमाम चिंताओं एवं प्रयासों के बावजूद पिछली शताब्दी में हम नैतिक मूल्यों की दृष्टि से निरंतर अवनति को ही प्राप्त हुए हैं। हिंद स्वराज्य को पढ़ कर उस दौर के भारत को भी समझा जा सकता है। जैसे पहले ही अध्याय में गाँधी जी एक जगह कहते हैं,कि स्वराज्य भुगतने वाली प्रजा अपने बुजुर्गां का तिरस्कार नहीं कर सकती। अगर दूसरों की इज्ज्त करने की आदत खो बैठेंगे तो हम निकम्मे हो जाएँगे। जो प्रौढ़ और तजुर्बेकार हैं, वे ही स्वराज्य को भुगत सकते हैं न कि बे-लगाम लोग। क्या यही सभ्यता है?
गाँधी जी ने सभ्यता का जो रूप बताया है, वह विचारणीय है। संवेदनशील पाठक आत्म-मंथन के लिए विवश होगा और सोचेगा, कि क्या सभ्यता के ये ही नए कँटीले शिखर हैं? गाँधी जी के विचारों को एक लम्बा अंश यहाँ प्रस्तुत करने का मोह संवरण नहीं कर पा रहा हूँ, देखें, ''सौ साल पहले यूरोप के लोग जैसे घरों में रहते थे, उनसे ज्यादा अच्छे घरों में आज वे रहते हैं। यह सभ्यता की निशानी मानी जाती है। इनमें शरीर के सुख की बात है। इसके पहले लोग चमड़े के कपड़े पहनते थे और बालों का इस्तेमाल करते थे। अब वे पतलून पहनते हैं और शरीर को सजाने के लिए तरह-तरह के कपड़े बनवाते हैं। और बाले के बदले एक के बाद एक पाँच गोलियाँ छोड़ सके, ऐसी चक्कर वाली बंदूक इस्तेमाल करते हैं। यह सभ्यता की निशानी है। किसी मुल्क के लोग जो जूते वगैरा नहीं पहनते हों, जब यूरोप के कपड़े पहनना सीखते हैं, तो जंगली हालत में से सभ्य हालत में आये हुए माने जाते हैं। पहले यूरोप में लोग मामूली हल्की मदद से अपने लिए जात-मेहनत करके जमीन जोतते थे। उसकी जगह आज भाप के यंत्रों से हल चला कर एक आदमी बहुत सारी जमीन जोत सकता है और बहुत-सा पैसा जमा कर सकता है। यह सभ्यता की निशानी मानी जाती है। पहले लोग कुछ ही किताब लिखते थे और वे अनमोल मानी जाती थी। आज हर कोई चाहे जो लिखता और छपवाता है और लोगों के मन को भरमाता है (प्रकाशन के मामले में सौ साल बाद भी इसी तरह की बुरी स्थिति है-लेखक)यह सभ्यता की निशानी है।.. गाँधी जी ने बैलगाड़ी और रेलगाड़ी का और हवाई जहाज का भी उदाहरण दिया है कि लोग कुछ ही घंटे में लंबी दूरिया तय कर लेंगे। एक उदाहरण गाँधीजी ने त्रिकालदर्शी के रूप में कुछ इस तरह पेश किया है जो अब सार्थक हो रहा है। उन्होंने लिखा है, ''लोगों को हाथ-पैर हिलाने की जरूरत नहीं रहेगी। एक बटन दबाया कि आदमी के सामने पोशाक हाजिर हो जाएगी, दूसरा बटन दबाया कि उसे अखबार मिल जाएंगे, तीसरा दबाया कि उसके लिए गाड़ी तैयार हो जाएगी। हर हमेसा नये भोजन मिलेंगे, हाथ-पैर का काम नहीं करना पड़ेगा। सारा काम कल से हो जाएगा।...यह सभ्यता की निशानी है।... पहले लोगों को मारपीट कर गुलाम बनाया जाता था, आज पैसों का लालच देकर गुलाम बनाया जाता है। पहले जैसे रोग नहीं थे वैसे रोग आज लोगों में पैदा हो गए हैं और उसके साथ डॉक्टर खोजने में लगे हैंकि ये रोग कैसे मिटाए जाएँ। ऐसा करने से अस्पताल बढ़े हैं। यह सभ्यता की निशानी है।''
गाँधीजी ने और भी अनेक गहरे कटाक्ष किए हैं लेकिन उनके इतने विचार ही यह समझने के लिए पर्याप्त है कि सभ्यता को मनुष्य कितने हल्के से लेता है। कसाई खाने में अत्याधुनिक यंत्र लगा कर भी कहा जा सकता है कि हम सभ्य हो गए हैं। देखो, कितनी तत्परता के साथ पशुओं का कत्ल करते हैं और मानवश्रम बचाते हैं। दरअसल सभ्यता को कुछ लोगों ने गहराई से समझने की कोशिश ही नहीं की है। कुछ यांत्रिक सुविधाओं को सभ्यता समझ कर इतराने वाले समाज को सभ्यता का असली उत्स समझ में नहीं आता, जिसके लिए गाँधी जी बेचैन रहे। यूरोप की जिस सभ्यता और मानसिकता को गाँधी जी ने समझाने की कोशिश की थी, उस सभ्यता ने आज भारत को अपने कब्जे में बुरी तरह जकड़ लिया है। यह हास्यास्पद स्थिति नहीं है तो और क्या है कि भारत में भीषण गरमी के दौरान भी कुछ लोग सूट-बूट और टाई में नजर आते हैं, क्यों कि ऐसा पहरावा उन्हें सभ्य या कहें कि आधुनिक दर्शाता है। हद तो उस वक्त हो जाती है जब कुछ लोग अपने कुत्ते से भी अँगरेजी में बात करते हैं। सोचिए जरा, वह सभ्यता की किस ऊँचाई पर खड़ा है। पिज्जा-बर्गर या फास्ट फूड एवं ड्रिंक्स की नई संस्कृति को आत्मसात करके लोग खुद को माडर्न समझ रहे हैं। यह सभ्यता की सही निशानी नहीं है। कपड़े, भोजन और पेय आदि को सभ्यता नहीं समझा जा सकता। लोग खुद को सभ्य कहते हैं और अनेक घिनौने किस्म का माँसाहार भी करते हैं। सभ्यता की सीधी-सादी परिभाषा यही है कि आप का व्यवहार कैसा है। खास कर उस मानव से जो आर्थिक, सामाजिक एवं मानसिक रूप से आपसे कमजोर है। वंचितों, दलितों, पिछड़े एवं कमजोर लोगों से मनुष्य अगर नकारात्मक व्यवहार करता है तो वह जितना भी सुदर्शन हो, जितने भी अच्छे कपड़े पहनता हो, जितने भी भव्य घर में रहता हो, सभ्य नहीं कहा जा सकता। ये और बात है कि वह अपने को अकसर सभ्य बताने की काशिश करता होगा। हम खुद सोचें कि कितने सभ्य लोग हमारे इद-गिर्द सलामत हैं।
सच्ची सभ्यता आदमी को इन्सान बनाती है। यांत्रिक सभ्यता सच्ची सभ्यता नहीं हो सकती क्योंकि इसकी चपेट में आकर इंसान इंसानियत ही भूल जाता है। इस तरह नई सभ्यता एक तरह से शैतानी सभ्यता ही है। लोग धर्मस्थलों में जाते हैं और यंत्रवत सिर हिलाते हैं, झुकाते हैं, लोट-लोट जाते हैं, लेकिन मन के पाप जस के तस रहते हैं। माँसाहार सहज प्रवृत्ति बनी हुई है। कटते हुए माँस को लोग भूखे भेडिय़े की तरह देखते मिल जाते हैं। तमाम तरह के दुर्गुणों से भरा यह आधुनिक मनुष्य किस कोण से सभ्य हैं, यह तो मेरी भी समझ में नहीं आता। आज अगर गाँधीजी जीवित रहते तो 'हिंद स्वराज' के नए संस्करण में वे यही लिखते कि अरे, इन सब ने राह न पाई। सौ साल पहले मैंने जैसा भारत या समाज देखा था, वैसा और उससे भी बदतर समाज आज देख रहा हूँ। सभ्यता हमें अधम बना दे, निर्मम बना दे, जातिवादी, कट्टर धार्मिक बना दें, क्षेत्रवादी बना दे, भाषावादी बना दे, स्वार्थी बना दे तो ऐसी सभ्यता मानव जाति के किस काम की? गाँधी जी ने भी कहा है कि  ''मेरी पक्की राय है कि हिंदुस्तान अँगरेजों से नहीं, बल्कि आजकल की सभ्यता से कुचला जा रहा है। उसकी चपेट में फँस गया है।''
गाँधी जी धर्म विरोधी नहीं थे। लेकिन उनका धर्म विवेकशून्यता से भरा नहीं था। वे कहते हैं, कि  '' मुझे तो धर्म प्यारा है इसलिए पहला दु:ख मुझे यह है कि हिंदुस्तान धर्मभ्रष्ट होता जा रहा है। धर्म का अर्थ यहाँ मैं हिंदी, मुस्लिम या जरथोस्ती धर्म नहीं करता, इन सब धर्मों के अंदर जो धर्म है, वह हिंदुस्तान से जा रहा है। हम ईश्वर से विमुख होते जा रहे हैं।''
आज हालत यही है। हम असली धर्म भूल गए हैं। धर्म कहीं दिखता नहीं, बस पाखंड या आडंबर ही प्रधान है। ईश्वर के सामने पाप होते रहते हैं। हत्याएँ होती है, बलात्कार होते हैं, धोखाधड़ी होती है, ऊँच-नीच का खेल चलता है। भगवान के घर पर भी वीवीआइपी और गरीबों के साथ अलग-अलग व्यवहार होता है। ये कैसा धर्म, कैसी सभ्यता है? आराधना के नाम पर लोगों  की आँखों तो बंद रहती है, लेकिन भीतर ही भीतर नए-नए पापों को करने की योजनाएँ भी बनती रहती हैं। ईश्वर का डर खत्म हो गया है। या फिर ईश्वर को इतना सस्ता समझ लिया गया है, कि उसके सामने हाथ-पैर जोडऩे से सारे पाप धुल जाएँगे। मनुष्य जीवन नैतिकता और सदकर्मों की सतत तलाश है। यही सच्ची सभ्यता है। लेकिन अब ऐसी सभ्यता के दीदार कम ही होते हैं। मनुष्य यंत्र हो चुका है।
आधुनिकता या यांत्रिक सभ्यता की परमस्वीकृति का बिल्कुल ताजा उदाहरण यह भी है कि अब समलैंगिकता को सामाजिक स्वीकृति देने की दिशा में व्यवस्था कदम तक बढ़ा रही है। कुछ चीजों के लिए तो हमें समाज को जोर-जबर्दस्ती के साथ प्रतिबंधित करना होगा, लेकिन प्रगतिशीलता, और मानवाधिकार के चक्कर में अनैतिकता को भी हरी झंडी दिखाई जा रही है। अगर यही रफ्तार रही तो जिस यांत्रिक सभ्यता के खतरे को गाँधी से ने देखा और महसूस किया था, और हम सबको सावधान भी किया था, वह सभ्यता हमें खाक में मिला देगी। सौ सालों में हमारा समाज और ज्यादा पतित हुआ है। इक्कीसवीं सदी में के इस व्यामोह में और ज्यादा विनाश संभावित है। मंज़र सामने है। कुंवारी लड़कियों के माँ बनने की रफ्तार बढ़ी है। अगर यह सभ्यता है तो मुझे कुछ भी नहीं कहना और अगर यह सभ्यता नहीं है तो विचार किया जाना चाहिए, कि ऐसा क्यों हो रहा है। कारणों तक पहुँच कर उसे दूर करने की कोशिश होनी चाहिए। गाँधी जी के सपनों का महान भारत तभी बन सकेगा। यह संभव हो सकता है, बशर्र्ते हम सब मिल-जुल कर इस दिशा में वैचारिक प्रयास करें। गाँधी, खादी, नैतिकता, प्रेम, करुणा, त्याग जैसे मानवीय गुणों का विकास करके ही सभ्यता की सच्ची परिभाषा गढ़ी जा सकी है। इसके लिए जरूरी है कि हम यांत्रिकता से बाहर निकल और सही अर्थों में सभ्यता की उस दिशा की ओर कदम बढ़ाएँ, जिसकी ओर चलने का आग्रह गाँधी जी ने किया था।

शनिवार, 22 मई 2010

ये नक्सलवाद नहीं, ना-अक्लवाद है....

बस्तर में नक्सलवाद का खूनी विस्तार हदें पार कर रहा है। विचारधारा अब हिंसाधारा बनती जा रही है। अब लोग नक्सलवाद को ना-अक्लवाद भी कहने लगे हैं। मासूमों के खून बहाना अक्लमंदी नहीं हो सकती। अपने ही लोगों की हत्याएँ करके हम किसी मुकाम तक नहीं पहुँच सकते। बस्तर में आए दिन हिंसा का तांडव हो रहा है। इसलिए अगर मुख्यमंत्री नक्सलवाद और आतंकवाद को एक ही सिक्के के दो पहलू कहते हैं तो गलत नहीं कहते। अचानक कहीं धमाका करके कुछ लोगों की जाने ले लेना। यही है आतंकवाद। अपनी उपस्थिति का हिंसक अहसास कराना ही आतंकवाद है। ऐसा करके माओवादी अपने प्रति लोगों की सहानुभूति खोते जा रहे हैं। हो सकता है, उनके लक्ष्य ऊँचे हों लेकिन लक्ष्य हासिल करने का रास्ता गलत है। हिंसा केवल हिंसा को जन्म देती है। और यह चक्र चलता रहता है। इस चक्कर में पिस रहे हैं वहाँ के आदिवासी। बेचारे दोनों तरफ से मारे जा रहे हैं। कभी नक्सली इसलिए मार देते हैं, कि इसने पुलिस की मुखबिरी की है, और पुलिस इसलिए मार देती है, कि यह नक्सलियों से मिला हुआ है। इसलिए अब समय आ गया है कि नक्सली ना-अक्ली नहीं अक्ल से काम लें और खून-खराबा बंद करके सरकार से बातचीत करें।
टेंशन-फ्री रमन का मन
और हो भी क्यों न? जब प्रधानमंत्री और गृहमंत्री साथ हैं। नक्सल मामले में रमन सरकार को केंद्र का समर्थन मिला हुआ है। बस्तर के विकास को लेकर मुख्यमंत्री ने जो कार्य योजना रखी, उसे भी केंद्र से हरी झंडी मिल गई। और क्या चाहिए। अब छत्तीसगढ़ में काँग्रेस बेचारी सोनिया गाँधी को पत्र लिख रही है, राज्यपाल से सीधी कार्रवाई का आग्रह कर रही है, उससे क्या होगा? नक्सल समस्या अब एक राज्य की समस्या नहीं रही, वह देश की समस्या हो गई है। कई राज्य प्रभावित हैं। राज्य सरकार पूरी हिम्मत के साथ नक्सलियों से मुकाबला कर रही है। यह केंद्र भी देख रहा है। प्रदेश काँग्रेस रमन सरकार की लाख निंदा करे, राष्ट्रपति शासन लगाने की माँग करे, उनकी माँग पूरी नहीं हो पाएगी। क्योंकि दिल्ली मुख्यमंत्री केसाथ है। यही कारण है कि  से दिल्ली से लौटने के बाद डॉ. रमन सिंह टेंशन-फ्री नजर आ रहे हैं।
शराब के खिलाफ लामबंद होते लोग...
शराब ने छत्तीसगढ़ को काफी हद तक खराब किया है। आज अधिकांश गाँवों में विद्यालय हों न हों, मदिरालय जरूर मिल जाएंगे। लेकिन यह अच्छी बात है कि कुछ जागरूक लोगों नेछत्तीसगढ़ शराब विरोधी मंच बनाया है। संस्था कुछ अरसे से शराब के विरुद्ध जन जागरण अभियान चला रही है। इस मंच को एक बड़ी सफलता उस वक्त मिली जब इसने सरगाँव के पास स्थित किरना गाँव में खुलने वाली एक शराब फैक्ट्री बंद करवा दी। यहाँ एक कंपनी प्रतिदिन बत्तीस हजार लीटर शराब बनाने का कारखाना खोलने वाली थी। सरकार ने आम सहमति के लिए यहाँ जनसुनवाई रखी। मंच के लोग वहाँ पहले से पहुँच गए और गाँव वालों के साथ मिल कर शराब फैक्ट्री का विरोध किया। शराब फैक्ट्री के लिए प्रतिदिन पचास हजार लीटर पानी खर्च होता। इधर पीने का पानी नहीं, उधर शराब के लिए इतना पानी खर्च हो जाता। गाँव वालों ने दो टूक कहाँ कि गाँव में शराब फैक्ट्री नहीं खुलेगी। यह चेतना हर गाँव में नज़र आए तो कोई बड़ी बात नहीं कि छत्तीसगढ़ में शराब माफियाओं के हौसले पस्त होंगे।
आग लगी तो कुआँ खोदो...?
रायपुर में और अनेक शहरों में यही हो रहा है। भीषण गरमी के कारण पानी का संकट खड़ा हो गया है, तालाब-कुएँ सूख रहे हैं तो लोग जाग रहे हैं। कोई श्रम दान कर रहा है, कोई वाटर हार्वेस्टिंग के लिए रथयात्रा निकाल रहा है। यानी कि जितने कर्मकांड होने चाहिए, वो सब हो रहे हैं। लेकिन वे लोग कहाँ हैं, जिन्होंने विकास के नाम पर हमें विनाश का तोहफा दिया?देखते ही देखते  रायपुर और अनेक शहरों के तालाब पट गए, हरे-भरे पेड़ भी कट गए। कांक्रीट के जंगल उग आए। भू-जल स्तर घटता गया। लेकिन अब भी बहुत कुछ सँवारा जा सकता है। बशर्ते हम लोग मन से काम करें। दिखावा बहुत हो गया है। जरूरी यह है कि शहरों में, गाँवों मे नए तालाब बनें। उनका संरक्षण हो। अधिक से अधिक पेड़ लगें और वे पेड़ भी बचाए जाएँ। ग्लोबल वार्मिंग के इस भयावह दौर में छत्तीसगढ़ को हरितप्रदेश बनाए रखने के लिए केवल गर्मी में ही चिंता नहीं करनी चाहिए, यह हमारे साल भर का एजेंडा होना चाहिए।
गाय की हाय न लें....
गाय को पशु समझ कर बहुत से लोग उस पर गंभीरतापूर्वक ध्यान नहीं देते। छत्तीसगढ़ के अनेक शहरों में गायों की बुरी हालत देखी जा सकती है। जबकि गायको हम लोगों माँ मानते हैं। और वो माँ है। अपनी माँ का दूध हम दो साल तक पीते हैं मगर गौ माता का दूध जीवन भर पीते रहते हैं। लेकिन इस माँ को सड़कों पर बदहाल घूमते देखा जा सकता है। कभी वह किसी कचरे में भोजन तलाशती है तो कभी गली-मोहल्ले की खाक छानती है। लेकिन कुछ गायों के दिन फिरने वाले हैं। विभिन्न सेवाकार्यो में संलग्न राउतपुरा सरकार-आश्रम ने पिछले दिनों यह संकल्प किया कि वह एक हजार गायों को गोद लेगा। ऐसी गायें जो नि:शक्त हो चुकी हैं। यह बड़ी घोषणा है। गौ सेवकों को, गौशालाओं को इस निर्णय से सबक लेना चाहिए। बहुत-से गौ सेवक गायों का दूध पीते हैं, दूध बेचकर कमाई भी करते हैं, लेकिन गायों का ेदेखभाल नहीं करते। उनके लिए बस यही कहा जा सकता, है कि वे गाय से भरपूर आय तो लें, मगर उसकी हाय कतई न लें। वो भारी पड़ सकती है।
विकास में हड़बड़ी न हो...
छत्तीसगढ़ के पूर्व वित्त मंत्री रामचंद्र सिंहदेव के बारे में लोगों को पता है कि वे बेहद ईमानदार और समर्पित बौद्धिक जनप्रतिनिधि हैं। पिछले दिनों रायपुर के एक साहित्यिक कार्यक्रम में उन्होंने बड़ी अच्छी बात की, जिसका दूसरे बौद्धिक लोगों ने भी समर्थन किया। सिंहदेव जी ने कहा कि आदिवासी क्षेत्रों में इस्पात संयंत्र आदि लग जाते हैं लेकिन वहाँ के लोग संयंत्र में केवल मजदूरी का काम करते हैं। ऐसा इसलिए कि वहाँ कोई इंजीनियर नहीं होता। इसलिए हमारा दायित्व यह है कि अपने गाँवों में, आदिवासी क्षेत्रों में पहले हम इंजीनियर तो पैदा करें। तब तक वहाँ संयंत्र आदि लगाने का काम स्थगित किया जाना चाहिए।  दिल्ली से आए प्रख्यात चिंतक पुरुषोत्तम अग्रवाल ने भी सिंहदेव का समर्थन करते हुए कहा कि जब भी विकास की बात होती है तो आदिवासी क्षेत्र को ही उजाडऩे की कोशिश होती है, किसी पॉश इलाके को निशाना क्यों नहीं बनाया जाता। गोष्ठी में मौजूद लोग इस चिंतन से सहमत थे। अब समय आ गया है कि बस्तर या अन्य क्षेत्रों के आदिवासी या ग्रामीण क्षेत्रों में वहीं से अच्छे इंजीनियर तैयार करें ताकि कोई कारखाना लगे तो वहाँ के लोगों की सम्मानजनक भागीदारी बन सके। इस कार्य में समय लग सकता है लेकिन यह न्यायसंगत व्यवस्था ऐसी होगी, जिसके पीछे न तो नफरत होगी और न हिंसा।

बुधवार, 19 मई 2010

नक्सली हिंसा और ये बुद्धिजीवी(?)

(किसी एक ब्लॉग पर किसी का लेख पढ़ रहा था. प्रतिक्रिया देते-देते छोटा-सा लेख ही बन गया तो लगा अपने ब्लॉग पर इसे पोस्ट कर दूं, सो प्रस्तुत है)
नक्सली हिंसा को लेकर अनेक बुद्धिजीवी(?) समर्थन की मुद्रा में ही नज़र आते है. वैचारिक लड़ाई या सामाजिक परिवर्तन के लिए हिंसा का सहारा लेना, हत्याएं करना और उसको न्यायसंगत ठहराना भी बड़ा अजीब-सा लगता है.  समझ में नहीं आता की इन बुद्धिजीवियों को हो क्या गया है? नक्सलियों की हिंसा की निंदा पहले होनी चाहिए, फिर टाटा-वाटा की बातें होनी चाहिए. टाटा या किसी को भगाना है तो उनके सामने आमरण अनशन करो, धरना दो, लोक जागरण करो. ये क्या बात हुई, कि जंगल में एक जगह बैठे है, और मूड हुआ कि,
'भूमाफियाओं को फिर सबक सिखाना है, चलो साथियों आज फिर कुछ हत्याएं कर के आते है. दिखा देंगे सत्ता को की हम किसी से कम नहीं.''
''लेकिन सरदार, बस में सामान्य लोग भी होंगे?''
ज़वाब -''कोई बात नहीं, अच्छे काम के लिए बलिदान देना ही पड़ता है''. 
तो भाई, ये है नक्सलवाद. हिंसा उन्हें इतनी प्रिय हो गयी है, की वे अब यह नहीं देखते की कौन मर रहा है. मासूम बच्चे की गला काट कर ह्त्या कर दी, ये कौन-सा वैचारिक संग्राम है? मै भी व्यवस्था विरोधी हूँ. व्यंग्य लिखता हूँ. मैंने ही लिख है-
''लोकतंत्र शर्मिंदा है,
राजा अब तक ज़िंदा है
हमने अपनी बात कही
वे समझे यह निंदा है''
ऐसी अनेक रचनाएं है, व्यंग्य हैं. जैसे-''मंत्री को जुकाम'', ''नेताजी बाथरूम में'',  मूर्ती की एडवांस बुकिंग'' आदि. लगातार सत्ताविरोधी लेखन करता हूँ. लेकिन मैं नक्सलियों की हिंसा का समर्थन नहीं कर सकता. नास्तिक हूँ मगर गो हत्याएं देख कर ''देवनार  के दानव'' नामक उपन्यास भी लिखा है. हस्तक्षेप करना लेखक काधर्म है. लेकिन हिंसा धर्म नहीं है. धरती को लाल करके परिवर्तन नहीं लाया जा सकता. परिवर्तन आयेगा लोक-जागरण से.. अहिंसा से. मना कि शातिरों की पूरी फ़ौज खड़ी है, लेकिन ये हटेंगे. अच्छे लोग आयें. हिंसा करके हम बुरे ही बने रहेंगे, कौन करेगा हमारा विश्वास? क्या भारत को हम हिंसक देश बनाना चाहते हैं? इसके लिए सामने आना होगा. और हैरत होती है कि तथाकथित बुद्धिजीवी नक्सली हिंसा के समर्थन में नज़र आते है? किस तरह का समाज रचना चाहते हो भाई, जिसकी बुनियाद लहू से तर-ब-तर हो?
खून से तर चौबारे कब तक?
हिंसा भरे नज़ारे कब तक?
सुन्दर-प्यारे बस्तर में
बहेंगे आंसू खारे कब तक? (पूरी ग़ज़ल यहाँ देखें)
ये अपना ही देश है? ठीक है कि हमारी व्यवस्था सड़ती जा रही है, लेकिन इसका मतलब यह तो नह के जब मूड हुआ , उठे और ह्त्या करके फिर जंगल  में गायब हो गए? एक सज्जन बस्तर के युवक राजीवरंजन प्रसाद ने, जो दुनिया को बेहतर देखना चाहता है,  नक्सली हिंसा का विरोध किया, तो एक ''मानवतावादी'' ने उसकी शर्ट पर टिप्पणी कर दी, कि ''तुम्हारी शर्ट चमक रही है''.हद है सोच की.टिप्पणीकार ने छद्म नाम रखा है ''मानवतावादी'' और व्यवहार है दानवतावादी. मानवता दिखाओ और जो गलत है, उसका विरोध करो. हिंसा के लिए सरकार या टाटा-फाटा को दोष मत दो. अभी हिंसा रुके. विकास की बात हो.

सोमवार, 17 मई 2010

छत्तीसगढ़ की डायरी

विकास के रास्ते की ओर सरकार...
सरकार बस्तर के विकास को ले कर अब ज्यादा चिंतित नजर आ रही है। ये अच्छे संकेत हैं। राजधानी रायपुर से लेकर दिल्ली तक अब नेता बस्तर के बारे में सोच रहे हैं। सोनिया गाँधी ने भी स्वीकार किया कि नक्सलवाद के पीछे कारण यही है, कि वहाँ ठीक से विकास कार्य ही नहीं हुुआ। राज्य सरकार अब विकास की दिसा में तेजी के साथ बढ़ रही है। बस्तर के जारों शिक्षित नवयुवकों के लिए सौ दिन में  नौकरी देने का एक पैकेज भी ला रही है। मुख्यमंत्री योजना आयोग को 9760 करोड़ की एक कार्ययोजना भी सौंपने वाले हैं। काश,ये सब काम बहुत पहले शुरू हो गए होते लेकिन अभी भी बहुत देर नहीं हुई है। सरकार की इस पहल के बाद उम्मीद की जा सकती है, कि बस्तर के युवक नक्सलवाद की ओर नहीं, विकासवाद की ओर आकर्षित होंगे। जब उन्हें काम मिलेगा तो वह मुख्यधारा में शामिल होंगे, जंगल की ओर क्यों भागेंगे?
नक्सलियों को एक प्रेरक -संदेश
हफ्ते भर पहले की ही बात है। सरगुजा में घायल हुए एक नक्सली को एक जवान ने ही खून दे कर उसकी जान बचाई। यह घटना एक प्रेरक-संदेश है नक्सलियों के लिए, कि समाज अगर तुम्हारे खिलाफ खड़ा है तो उसका कुछ कारण है,लेकिन वह तुम्हारी जान का दुश्मन नहीं है। नक्सलियों को भी समझ लेना चाहिए कि वे जवान जो समाज की रक्षा के लिए तैनात हैं, नक्सलियों के शत्रु नहीं हैं। वे अपना फर्ज निभा रहे हैं। जिस जवान ने नक्सली को खून दिया वह मना भी कर सकता था, कि मैं क्यों दूँ खून। नक्सली हमारे जवान भाइयों की हत्याएँ कर रहे हैं। लेकिन जवान ने ऐसा नहीं किया। उसने सदाशयता दिखाई। यही सदाशयता हमें मनुष्यता की ओर ले जाती है। जवान ने इंसानियत दिखाई, अब नक्सली भी दिखाएँ और मुख्यधारा से जुड़कर। पता नहीं, वो दिन कब आएगा, अभी तो वे किसी का गला रेत रहे हैं, जन अदालत लगा कर किसी को फाँसी पर लटका रहे हैं और अपने क्रूर सामंती चरित्र का ही सबूत दे रहे हैं।
साम्प्रदायिक सद्भावना की बात
गाय हमारी आस्था का केंद्र-बिंदु है। किसी भी समाज की आस्था को ठेस पहुँचे तो कटुता बढ़ती है। गाय को काटने की बातें जब सामने आती हैं, तो हिंदुओं को दुख होता है। वैसे सच्चाई यह भी है कि बहुत-से धनलोभी हिंदू ही अपनी कमजोर-बीमार गायों को कसाइयों को सौंप देते हैं। बहुत-सी गायें कसाईखानों को भेज दी जाती है। खैर, ये अलग मसला है। हर मुसलमान गाय का दुश्मन है, ऐसी बात नहीं है। कुछ हो सकते हैं, लेकिन वे मुसलमानों के प्रतिनिधि नहीं है। आदर्श मुसलमानों के प्रतिनिधि हैं पैगंबेरइस्लाम के वंशज बाबा हाशमी जी जैसे संत, जो साम्प्रदायिक सदभावना की दिशा में काम कर रहे हैं। पिछले दिनों वे रायपुर पधारे और अपनी तकरीर करते हुए उन्होंने मुसलिम भाइयों को समझाया कि हमें दूसरों की पसंद का खाना खाना चाहिए अगर हिंदुओं को गो की हत्या पसंद नहीं है, तो वह कार्य नहीं करना चाहिए। बाबा हाशमी जैसे संतों के उद्बोधन के बाद लोगों की सोच में बदलाव आएगा ही। बाबाजी ने संस्कृत के श्लोक सुनाए, गीता का हवाला दिया और पूरे प्रवचन के माध्यम से मानवता के विकास की बात की और कहा कि मिलजुल कर रहने में ही जीवन का सार है। ऐसेे प्रवचनों से समाज में शांति-सद्भावना कायम हो सकती है।
पानी की चिंता
रहिमन पानी राखिये बिन पानी सब सून...चार सौ साल पहले रहीम कवि ने यह संदेश दिया था। अब हम इसे दुहरा रहे हैं और अपनी नादानी पर रो रहे हैं। पश्चाताप कर रहे हैं। विकास के तथाकथित ढाँचे ने हमारी नदियों को, तालाबों को,हरे-भरे पेड़ों को हमसे छीन लिया। अब हम हाय-हाय...पानी-पानी कर रहे हैं। सरकारी तंत्र के कारण, मूर्ख लोगों के कारण पर्यावरण का विनाश होता रहा। आज भी हो रहा है। गौरवपथ बना कर हमनें पेड़ों की निर्मम हत्याएँ कीं और खुश हुए कि देखो, सड़कें कैसी चौड़ी हो गई। लेकिन मूर्ख मन ने यह नहीं देखा कि हरी-भरी धरती का सत्यानाश कर दिया। अब जब तापमान की तपिश एसी को भी फेल करने लगी, हम घर के भीतर भी झुलसने लगे तो अपनी गलती समझ में आने लगी। खैर, अभी भी चेत जाना चाहिए। अब नेताश्रमदान कर के तालाबों को, नदियों को बचाने का उपक्रम कर रहे हैं। ये सब नाटक-नौटंकी न बने, हम गंभीरता के साथ हरियाली बचाएँ, पेड़ लगाएँ, तभी भविष्य के लिए पानी बचा सकेंगे। शहरों में, गाँवों में हरियाली को बचाने का उपक्रम हो, हमें शॉापिंग मॉल नहीं, हरे भरे मैदान और पेड़ चाहिए, यह अभियान चले तो हम ग्लोबल वार्मिंग के दैत्य से बच सकते हैं।
 विरोध का यह तरीका नहीं...
पिछले दिनों खरसिया के गाँव दर्रामुड़ा में जो कुछ हुआ, वह ठीक नहीं हुआ। प्रतिरोध का यह तरीका ठीक नहीं कि हम लोगों का मुँह काला करें, उनको उठक-बैठक लगाएँ, जूते की माला पहनाएँ। ये ठीक है कि गाँव की सहमति के बिना एक इंच जमीन भी कोई कंपनी नहीं ले सकती। गाँव के लोगों को इसके लिए तैयार रहना चाहिए। कंपनी के चालाक लोग धूर्तता का सहारा लेकर गाँवों में पावर प्लांट या अन्य कारखाने लगाने के लिए जमील हड़प लेते हैं। गाँव का सत्यानाश हो रहाहै। गाँव वालों के मन में आक्रोश स्वाभाविक है लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि हम कानून अपने हाथ में  ले लें। हम शांतिपूर्वक प्रतिवाद करें, हिंसा का सहारा न लें। लेकिन जो भी हुआ उससे एक बात तो साफ हो गई कि गाँव के लोग अपने गाँव से प्यार करते हैं। वे अपने गाँव को बचाना चाहते हैं। एक बार कोई कारखाना लग गया तो गाँव उजडऩे लगता है। उसकी हरियाली, उसकी नदी-तालाब तबाह होने लगते हैं। उद्योगपति भी समझ लें कि गाँववालों को विश्वास में लिए बगैर कोई काम करने का दुष्परिणाम क्या हो सकता है। हमें  विकास चाहिए, लेकिन विनाश की कीमत पर नहीं। आपसी सदभावना के साथ विकास हो, यही समय की मांग है।
फुटपाथी चमत्कारों से सावधान..
अकसर यह खबर सुनने को मिल जाती है कि किसी ने चमत्कार का झाँसा देकर किसी महिला को ठग लिया। ऐसी खबरें छपती भी हैं, लेकिन हमारे अंदर का बैठा डर, लालच हमें झाँसों में आने पर मजबूर कर देता है। पिछले दिनों राजधानी में तीन महिलाएँ ठगी का शिकार हो गईं। एक चमत्कारी बाबा ने महिलाओं को रोका और कहा कि आप जो जेवर पहनी हुई हैं वे आपको बर्बाद कर सकते हैं. इसे मंत्रोपचार के जरिए ठीक किया जा सकता है। तभी बाबा को चमत्कारी सिद्ध करने के लिए उन्हीं के सिखाए-पढ़ाए लोग आ गए और बाबा को प्रणाम करके उसका गुणगान करने लगे। महिलाएँ झाँसे में आ गईं और अपने गहने उतार कर दे दिए। बाबा ने गहनों को पोटली में रखा, मंत्र फूँकने का नाटक किया और पोटली वापस कर दी और चलते बने। राह चलते चमत्कार दिखाने वाले किसी भी बाबा को फटकार देना चाहिए। महिलाएं रुक जाती हैं और बाबा लोग कुछ ऐसा सम्मोहन करते हैं कि वे जाल में फँस जाती हंै और अपने जेवर और धन लुटा कर ही होश में आती है। लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी होती है। इसलिए सावधान रहने की जरूरत है।

शुक्रवार, 7 मई 2010

जब्बार ढाकवाला को याद करते हुए...

मौत ने हमसे एक सार्थक लेखक छीन लिया...
नहीं...नहीं....यह खबर सच न हो....लेकिन खबर सच है. दुखी का देने वाली है. व्यंग्यकार और कवि जब्बार ढाकवाला नहीं रहे. सात मई को ऋषिकेश के पास सड़क हादसे में उनका निधन हो गया. उनके साथ उनकी धर्मपत्नी तरन्नुम भी चल बसीं. जैसे ही यह खबर मित्र रविन्द्र सिंह ने दी, मै सन्न रह गया. मन नहीं माना तो भोपाल के अपने मित्र राजुलकर राज से बात की. थोड़ी देर बाद जयप्रकाश मानस का एसएमएस आ गया. सुधीर शर्मा ने भी फोन किया. दिल्ली से ललित मंडोरा ने भी फोन कर के दुःख का इज़हार किया. उनके निधन की सूचना जिस किसी को मिली, वह विचलित हो गया. सब एक दूसरे को सूचित कर रहे थे और हादसे की पुष्टि भी चाहते रहे. भाव यही था कि काश..यह खबर गलत हो..लेकिन ऐसा न हो सका. खबर पक्की थी कि ऋषिकेश के पास ढाकवाला जी कि कर ४-५०० फुट गहरी खाई में जा गिरी. वे छुट्टी मनाने उधर गए थे. उनके साथ साथ-साथ जीने-मरनेकी कसम खाने वाली उनकी धर्मपत्नी तरन्नुम जी भी थी. वे भी ढाकवाला जी के साथ स्वर्गवासी हो गयी. कब, कहाँ मौतरूपी जहरीला सांप हमें डस लें, कहा नहीं जा सकता. आखिर मौत पर किसका बस चलता है?
मुझे तो अब तक यकीन नहीं हो रहा है, कि ढाकवाला जी नहीं रहे. लेकिन मन को कितना बहलायेंगे. सच से मुह मोड़ना ठीक नहीं.  अपने इस  परम मित्र को याद करता हूँ, तो बीस साल पहले के दिनों में  जाना पड़ता  है. रायपुर के दुर्गा कालेज से पढ़ाई करने वाले ढाकवाला प्रशासनिक सेवा में चयनित हो कर डिप्टी कलेक्टर बने, फिर आईएएस के रूप में भी पदोन्नत हुए. कुछ मध्यप्रदेश के कुछ जिलों में कलेक्ट्री की. जब वे छात्र थे.  तभी से साहित्य में उनकी रूचि विकसित होने लगी थी. उस वक्त रायपुर के सक्रिय समाजवादी लेखक गणपत साव 'बिलासपुरी' जी के साथ रह कर उन्होंने सामाजिक सरोकारों का पाठ सीखा था और व्यंग्य तथा नयी कविता की दुनिया में प्रवेश किया.  प्रशासनिक व्यस्तताओं के बावजूद वे  लेखन-कर्म में आजीवनसक्रिय रहे. जब वे बस्तर में थे, तब उन्होंने वहा एक साहित्यिक कार्यक्रम किया था और  मुझे भी बुलाया था. मेरे प्रति उनके मन में बड़ा स्नेह था. जब वे छत्तीसगढ़ बनाने के बाद भोपाल चले गए तो भी रायपुर से उनका रिश्ता बना रहा. यहाँ उनका घर अब भी है. बड़े मन से उन्होंने यहाँ एक घर बनाया था. एक बार जब वे आये तो अपना घर दिखाने ले गए थे. वे जब भी रायपुर आतेथे तो कुछ मित्रों से ज़रूर मिलते थे. उनमे एक मैं भी होता था. हम लोग एक-दूसरे को अपनी रचनाये सुनाया करते रहे.
बस्तर के आदिवासियों पर केन्द्रित कविताओं का एक संग्रह ''उदास गीत नहीं हैं उनके पास'' जब छप कर आया तो इस पर एक बड़ी गोश्ह्ती भोपाल में हुई थे. इस गोष्ठी में आलेख पढ़ने के लिए उन्होंने मुझे बुलवाया था. इस संग्रह को ज़रूर पढ़ा जाना चाहिये. एक संवेदनशील कवि जनजातियों की संस्कृति को किस तरह हृदयंगम करता है, इस संग्रह की कविताओं से पता चलता है. कविता के साथ-साथ व्यंग्य में भी उनकी गहरी दिलचस्पी थी. ''बादलों का तबादलों से सम्बन्ध'' उनका महत्वपूर्ण संग्रह है. इसमे उनका एक व्यंग्य है  ''अफसरियत का अकाल''. इसमें उन्होंने अपनी ही बिरादरी यानी अफसरों की जम कर खिचाई की है. यह व्यंग्य वे अक्सर मंचों से भी सुनाया करते थे. यह उनका हिट व्यंग्य था. साहित्य में घुस पैठ करने  वाले शातिर अफसरों पर लिखे गए मेरे उपन्यास ''माफिया'' की उन्होंने तहेदिल से तारीफ़ की थी. जब बे मिले तो मुस्कराते हुए कहा था-पढ़ लिया भाई आपका उपन्यास..जो लिखा है, बिल्कुल सही लिखा है'' ऐसी  उदारता कितने लोगो के पास रह गयी है?
जब्बारभाई बहुआयामी रचनाकार  थे. नयी कविता और व्यंग्य दोनों ही विधाओं को वे साध चुके थे और ग़ज़ल को साधने की दिशा में तेज़ी के साथ बढ़ रहे थे. ग़ज़ल लेखन में भी उनकी गहरी रूचि थी. उन्होंने अनेक  श्रेष्ठ शेर कहे. कुछ अभी मुझे याद आ रहे है. इन्हें पढ़ कर ही सुधी पाठक समझ जायेंगे कि शेरोशाइरी में उनका मेयार क्या था. देखिये
गली से, गुलों से, नजारों से बातें
मै करने चला हूँ बहारों से बातें
खुदा मुझको परवाज़ दे मै करूंगा
ज़मी के सितम पर सितारों से बाते
जुबा कटते हो तो मगर याद रखना
मै करता रहूँगा इशारों से बातें
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मन में मेरे अदालत जिंदा है
क्या करुँ अन्दर छिपा परिंदा ज़िन्दा है..
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ज़िन्दगी के  हर लम्हे  का मज़ा लीजिये
यहाँ पर टेंशन की जेल में
उम्र कैद की  सजा लीजिये....
अभी अचानक ये पंक्तियाँ ज़ेहन में कौंध गयी. इन रचनाओं से ही हम समझ सकते है कि वे कितनी गहरे के साथ चिंतन करते थे. मुझको वे बहुत चाहते थे. इसका एक मात्र कारण यह थाई कि मैं भी उनकी तरह व्यंग्य लिखता हूँ और ग़ज़ले  कहता हूँ,  मेरे प्रति उनकी भावना क्या थी इसे समझाने के लिए एक उदहारण पर्याप्त है कि, जब मैंने सांप्रदायिक सद्भावना विषयक एक ग़ज़ल कही तो इसे उन्होंने नए वर्ष पर भेजे जाने वाले अपने ग्रीटिंग कार्ड पर छाप दिया था. मेरा नाम भी उन्होंने दिया था, जबकि ऐसी सदाशयता लोग दिखते ही नहीं. अपने ग्रीटिंग कार्ड पर किसी दूसरे अन्तरंग मित्र लेखक का शेर देना और उसका नाम भी, यह आजकल के एक दुर्लभ उदाहरण के रूप में दर्ज किया जाना चाहिए.  ऐसी सदाशयता जब्बार भाई ही दिखा सकते थे, क्योंकि वे अफसर भर नहीं थे, वे एक संवेदनशील लेखक भी थे. जो केवल अफसर होते है, वे अक्सर मनुष्यता से काफी नीचे गिर जाते है. साहित्य उन्हें मनुष्य बनाये रखता  है.  साम्प्रदायिकता के खिलाफ भी उन्होंने अनेक शेर कहे. उनका एक बहुचर्चित शेर है, कुछ शब्द भूल रहा हूँ. भाव कुछ इस तरह है, कि -
 नफ़रत फ़ैलाने वालों के साथ देश सारा नहीं है
नफ़रत इस देश की मुख्यधारा नहीं है.
जब्बार ढाकवाला अगर संवेदनशील मनुष्य की तरह लेखकों के बीच आते थे तो इसके पीछे उनके लेखकीय संस्कार ही थे.  अभी उनको बहुत कुछ लिखना था. वे इसकी तैयारी भी कर रहे थे. पिछले दिनों जब उनसे फोन पर बात हुई तो उन्होंने  बताया था कि वे एक नयी पुस्तक पर काम कर रहे है. उसका शीर्षक भी उन्होंने बताया था- ''ज़िंदगी के हर लम्हे का मज़ा लीजिये''  मुझे पता नहीं कि इस किताब  की अभी क्या स्थिति है लेकिन इतना तो कह सकता हूँ कि वे जब तक जीए, सृजन कर के  ज़िन्दगी का मज़ा लेते रहे. वे अब हमारे बीच नहीं है, लेकिन अपने रचनात्मक वैविध्य के साथ हमेशा बने रहेंगे. उनका अचानक चला  जाना हम लोगों को गहरी उदासी में डाल गया है.इनमे उनके मित्र है, लेखक बिरादरी है, प्रशासनिक सहयोगी भी होंगे. वे आज जीवित होते तो भी यही सब बातें मैं  कहता, या कही लिखना होता तो भी यही  बाते दुहराता,.क्योंकि वे ऐसे तथाकथित लेखक नहीं थे, जिनकी जीते जी तो आलोचना होती है, और उनके न रहने पर लोग तारीफों के पुल बाँध देते है. आज अगर मैं उन पर कुछ लिख रहा हूँ तो सिर्फ इसलिए कि वे अफसरियत का चोला उतार कर ही हम मित्रो के बीच आते थे. इसीलिए ही वे मुझे प्रिय थे क्योकि वे अंतिम साँस लेने तक भी मनुष्य बने रहे.
यह तो तय है कि बस्तर के आदिवासी भाईयों की ही तरह किसी भी किस्म के उदास गीत जब्बार ढाकवाला के पास नहीं थे, लेकिन उनका इंतकाल हमें गहरे उदास गीतों से भर गया है. अब केवल यादे है और इन्ही यादों और चंद रचनात्मक धरोहरों के सहारे हम सब को यह जीवन बिताना पड़ेगा.
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बुधवार, 5 मई 2010

अब शांति की बात खबर नहीं बनती,...खबर बनती है अशांति. हिंसा, तोड़फोड़..

आज रायपुर के टाउन हाल में देश के विभिन्न हिस्सों से आये बुद्धिजीवियों की एक सभा हुई. प्रख्यात वैज्ञानिक प्रो. यशपाल, बुजुर्ग गांधीवादी नारायणभाई देसाई, सर्वोदयी अमरनाथजी, गाँधी शांति प्रतिष्ठान की राधा बहन, पूर्व सांसद-चिन्तक रामजी सिंह और छत्तीसगढ़ में जन्मे स्वामी अग्निवेश सहित देश के कोने-कोने से पधारे लगभग पचास शांतिकामी लोग जमा हुए. ये लोग बस्तर में हो रही हिंसा को लेकर चिंतित थे. कल ये लोग बस्तर भी जायेंगे. लोगो से बात करेंगे. बस्तर कैसे शांत हो इसका रास्ता तलाशेंगे.आज हर वक्ता ने देश के विकास पर अपनी बात रखी.लेकिन अचानक एक अप्रिय स्थिति उस वक्त निर्मित हो गयी, जब कुछ लोग सभा के बीच चले आये. इनके हाथों में तख्तियां, थी, जिन पर लिखा था. ''गो बैक'', ''शांतिवार्ता नहीं चलेगी'' ''नक्सलियों का समर्थन बंद करो'' आदि-आदि. पहले तो ये प्रदर्शनकारी मौन धारण कर आये. गांधीगीरी भी दिखाई. ये जब आये तो यशपाल जी बोल रहे थे.लगभग पचास प्रदर्शनकारी रहे होंगे. सबके सब मंच पर चढ़ गए. साथ में गुलाब के फूल लेकर आये थे. उन्होंने सबको फूल दिया, और अपनी बात रखते हुए कहा कि आप बुद्धिजीवी लोग बस्तर में जवानो की ह्त्या पर मौन रहते है,...अप नक्सलियों के समर्थक है''. यशपाल जी ने कहा-''बेटे, हमें गलत मत समझो. हम शांति के लिए आये है''. थोड़ी देर के लिए वातावरण तनावग्रस्त हो गया. तोरायपुर के गांधीवादी नेता केयूरभूषण भावुक हो कर चिल्लाने लगे कि ''तुम लोग मेरी जान ले लो, मगर जो अतिथि बाहर से आये है, उनको सुनो''. लोगों के समझाने पर प्रदर्शनकारी बाहर चले गए, लेकिन कुछ देर बाद वे फिर आ गए. इस बार वे जोर-जोर से नारे लगा रहे थे.इस बीच इलेक्ट्रानिक मीडिया के कैमरे काम करने लगे थे. तब बात समझ में आ गयी. अभी तो चले गए, थे, लेकिन जैसे ही कैमरे सक्रिय हुए तो ये भी सक्रिय हो गये. दरअसल आजकल मीडिया के कहने पर बहुत-से नेता खबर गढ़ने लगते है. कैमरे के सामने चीखने से वे हीरो बन जाते है और मीडिया का सनसनीवाला मामला भी जम जाता है. खबर हिट हो जाती है सवाल है टीआरपी का. अब शांति की बात खबर नहीं बनती, खबर बनती है अशांति. हिंसा, तोड़फोड़.. मंच पर बैठे तमाम बुद्धिजीवियों ने नवनिर्माण की बाते रखी. उस ओर किसी कि रूचि नहीं थी. मै पूरे समय तक इसीलिए बैठा रहा कि देखूं, ये लोग कहते क्या है. कहीं सचमुच नक्सलियों के पक्ष में तो बातें नहीं कर रहे हैं, अगर ऐसा होता तो मैं भी खड़े होकर हस्तक्षेप कर देता. लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ. वक्तागण प्रदर्शनकारियों से नाराज़ नहीं हुए, उलटे किसी ने उन्हें बेटा कहा तो किसी ने पोता. हमलोगों को दुःख इस बात का हुआ कि देश के जाने-माने बुद्धिजीवियों के साथ मेरे शहर में अभद्र व्यवहार हो गया. और वाह रे पुलिस..? वह तो मूकदर्शक बनी रही. लगा वह प्रदर्शनकारियों को ही संरक्षण दे रही है, जबकि संरक्षण मिलना था गांधीवादी लोगों को. बाहर से लोग आये हैं उन्हें सभा करने देते. खैर, कुछ देर बाद प्रदर्शनकारी चले गए तो मंच पर बैठे वक्ताओं ने शांति-सद्भावना पर अपने विचार रखे. अग्निवेश जी ने कहा- ''मै नक्सलियों की हिंसा का घोरविरोधी हूँ.'' उन्होंने अद्भुत भाषण दिया. लेकिन वक्ताओं की बात सुनाने के लिए प्रदर्शनकारी मौजूद नहीं थे. अगर वे लोग रुकते और सुनते तो समझ सकते कि बुद्धिजीवियों का दल शांति के लिए ही आया है, नक्सलियों के समर्थन के लिए नहीं. खैर जैसे-तैसे सभा तो हो गयी. अब ये शांति-दल कल बस्तर जाएगा. सभा से लौट कर मुझे लगा कि कुछ लिखना चाहिए. सो,आँखों देखा हाल लिख दिया. पूरा लिखना संभव नहीं. क्योकि पाठको के पढ़ाने की भी एक सीमाहोती है. इसलिए बस इतना ही. आग्रह यही है, कि आप मेरी कविताओं वाला ब्लॉग जरूर देखे. शांति को समर्पित एक गीत दिया है आज..

रविवार, 2 मई 2010

छत्तीसगढ़ की डायरी

हो रही है दो सिंहों की टक्कर
जी, हाँ, इन दिनों दो सिंहों की भिडंत जारी है। यह नूरा कुश्ती है, जिसका कोई खास अर्थ नही निकलता, लेकिन चलती रहती है। यह अखबारी कुश्ती है, जिसका मजा हम सब लेते हैं। मध्यप्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री ने छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री डॉ.रमन सिंह को नक्सल समस्या के हल में विफल होने पर खरी-खोटी सुनाई तो डॉ.रमन सिंह ने भी उसी अखबार में जवाबी लेख भेज दिया। उसे पढ़ कर दिग्गी राजा बौखलाए तो उन्होंले फिर एक ळिख मारा और डॉ.रमन सिंह से दस तीखे सवाल पूछ डाले। उन्होंने कहा है कि नक्सलवाद पर मैं खुली बहस के लिए कहीं भी आमंत्रित हूँ। अब बारी है डॉ.रमन सिंह की। वे जवाब देंगे ही। डॉक्टर  साहब जल्दी जवाब दें और बेहतर तो यही होगा, कि दोनों आमने-सामने हो जाए। रायपुर में खुली बहस हो। अगर ऐसा हुआ तो हजारों लोग जमा हो जाएंगे। सुभाष स्टेडियम में ही बहस हो पाएगी। यह तो एक सुझाव भर है। अब ये इन दो सिंहों पर निभर करता है कि वे क्या सोचते हैं।  आमने-सामने होना है कि ऐसेही अखबारी लड़ाई जारी रहे। जो भी हो, सवाल-जवाब से एक वैचारिक जीवंतता तो भी है। और यह जिंदा लोकतंत्र का ही प्रतीक है।
काँग्रेस की वादीखिलाफी पर नगाड़े
राजधानी में भाजपाइयों को नगरनिगम कार्यालय के बाहर नगाड़े बजाने पड़े। यह जररूरी भी था। बहरी व्यवस्था को सुनाने के लिए नगाड़े ही बजाए जाते हैं। नगर निगम में काँग्रेसी महापौर बैठी है। काँग्रेस ने अपने चुनावी घोषणापत्र में कहा था, कि हम लोग आए तो संपत्ति कर नहीं बढ़ाया जाएगा। और अब दन्न से कर बढ़ा दिया। अग्निशमन कर भी कई गुना बढ़ा दिया गया है। महापौर कह रही है,कि राज्य सरकार के आदेश पर ऐसा किया गया है, जबकि भाजपा और दूसरे लोगों का कहना है कि यह नगर निगम का अधिकार क्षेत्र है। काँग्रेसी भी दुखी है। वे कह रहे हैं, कि जनता के बीच काँग्रेस की छवि खराब हो रही है। हमने जब वादा किया तो उसे निभाना ही पड़ेगा। अंदर की बात यह है कि अनेक काँग्रेसी तो महापौर के रवैये से भी दुखी चल रहे हैं। सबका दर्द यही है,कि वह हम लोगों की नहीं सुनती। महापौर मानती है कि मैंने अपनी छवि के कारण चुनाव जीता है। फिर भी उनकोसोचना तो होगा ही कि वे काँग्रेसी की महापौर हैं और काँग्रेस ने घोषणा पत्र में जो लिखा उसी के अनुरूप काम करना होगा, वरना स्वाभाविक है कि लोग कहेंगे, कि वादाखिलाफी हो रही है। कहीं ऐसा न हो कि भविष्य में महापौर के विरुद्ध काँग्रेसी ही सड़क पर उतर आएँ।
काँग्रेसी पार्षद ही चपेट में आ गए
जयस्तंभ और आसपास के इलाके को विज्ञापनमुक्त क्षेत्र बनाया गया है,इसका उल्लंघन करने पर काँग्रेस के पार्षद लखवंत सिंह गिल उर्फ गुड्डा भैया को दस हजार का जुर्माना पडऩा पड़ गया। उनकी एक होर्डिंग वहाँ लगी हुई थी। गुड्डा भैया ने जुर्माना पटा दिया। इससे दो संदेश समाज के बीच अच्छा गया, वो यह कि अभी भी कुछ सिद्धांत जिंदा हैं। गुड्डा भैया चाहते तो बहस कर सकते थे, लेकिन उन्होंने उदारता दिखाई और इसी बहाने दूसरे लोगों को भी आगाह कर दिया, कि होर्डिंग लगाई तो खैर नहीं। इन दिनों शहर में होर्डिंग्स लगाने का भूत-सा सवार हो गया है। पिछले दिनों आंधी चली तो एक होर्डिंग एक घर के ऊपर आ गिरी। गनीमत है, कि उस वक्त वहाँ कोई नहीं था, वरना बड़ी दुर्घटना हो जाती। बाजारबाद के दौर में अब छोटे-छाटे विज्ञापन से कंपनियों का मन नहीं भरता। उनका मानना है कि जितने बड़े विज्ञापन होंगे, उनका माल उतना ज्यादा बिकेगा।
बच्चे क्यों भागते हैं?
राजधानी के पास माना में बच्चों का संप्रेक्षण गृह है। इसमें वे बच्चे रखे जाते हैं, जो नाबालिग हैं, लावारिस-से है और किसी अपराध में संलिप्त थे। और पुलिस के हत्थे चढ़ गए। यहाँ उनकी देखरेख की जाती है लेकिन हो यह रहा है कि वहाँ रह कर बहुत-से बच्चे सुधरते ही नहीं और ज्यादा बिगड़ जाते हैं। पिछले दिनों संप्रेक्षण घर के ग्यारह बच्चे भाग निकले। उन्होंने वहाँ के प्रहरियों की आँखों में मिर्ची डाली, उन्हें घायल किया और  निकल भागे। यह गंभीर अपराध है। सारे लड़के नशे में थे। उनकी तलाश हो रही है। सोचने की बात यह है कि आखिर बच्चे इतने उद्दंड कैसे हो गए? मतलब साफ है कि वहाँ की व्यवस्था ठीक नहीं है। बच्चे बिगड़ रहे हैं, मुख्यधारा में नहीं आ पा रहे हैं, तो मौजूदा पशासन दोषी है। उन पर भी कार्रवाई होनी चाहिए। बच्चे हमारा भविष्य हैं। किसी कारणवश अगर वे संप्रेक्षण घर में आ गए मतलब यही उनकी दुनिया नहीं है। इस दृष्टि से सोचने की जरूरत है और उन्हें बेहतर माहौल दिया जाना चाहिए ताकि वे सुधरे, और ज्यादा न बिगड़ जाएँ।
सबक लड़कियों के लिए
टीवी-सिनेमा की अनेक रूमानी कहानियाँ देख कर इन दिनों युवा पीढ़ी में स्वच्छाचारिता बढ़ती जा रही है। नई उम्र की नई फसल बहुत जल्दी बौरा जाती है। इसमें भावनाओं का ज्वार होता है, लेकिन विवेक की शक्ति कम होती है। एक-दूसरे को देखा, आकर्षण बढ़ा तो बात प्यार-मोहब्बत के गलियारे से होते-होते बहुत जल्दी शादी तक पहुँच जाती है। अभी ठीक से खड़े भी नहीं हो सके हैं, एक-दूसरे को समझ भी नहीं पाए हैं, बस शादी करेंगे। घर वाले विरोध करेंगे तो घर से भाग खड़े होंगे। पिछले दिनों एक लड़की ने ऐसी ही भूल कर दी। लड़के के बहलावे में जमशेदपुर चली गई। वहाँ शादी भी कर ली। बाद में लड़के ने लड़की को पैसे के लिए तंग करना शुरू किया। लड़की पर अत्याचार बढ़ा तो रायपुर लौट आई। अब लड़के के खिलाफ रिपोर्ट लिखाई गई है। उस पर बलात्कार को मामला दर्ज किया गया है। यह नौबत नहीं आती अगर लड़की ने विवेक से काम लिया होता। राजधानी क्या बहुत से शहरों से लड़के-लड़कियाँ भागने लगे हैं। घर के संस्कार जब बच्चों पर ठीक से नहीं पड़ पाते, तब ऐसी नौबत आती है। माँ-बाप आत्ममंथन करें और बच्चों को समझाएँ कि अगर उन्हें कोई पसंद है तो घरवालों को बताएँ, उनको विश्वास में लें। घर वाले भी समय के साथ चलें और अंतरजातीय विवाह की नौबत आए तो अगर लड़का या लड़की ठीक हो तो अपनी सहमति दे ताकि बच्चे घर से भाग कर उनकी फजीहत न करवा सके।
जन्म दिन हो तो ऐसा
रायपुर के विधायक बृजमोहन अग्रवाल की शैली ही ऐसी है कि उनकी लोकप्रियता में कमी नहीं आती। सबकी मदद का भाव सच्चे जनप्रतिनिधि की विशेषता होनी चाहिए। एक मई को उन्होंने अपना जन्मदिन मनाया तो केवल मौज-मस्ती नहीं हुई, उन्होंने दान-पुण्य के अनके काम किए। नि:शक्तों को ट्राइसिकल, कैलिपर्स, बैसाखी, श्रवण यंत्र आदि बाँटे गए, भंडारा कर गरीबों का खाना खिलाया गया, स्वास्थ्य शिविर लगा। गरीब बस्ती में इक्यावन किलो का केट काटा गया। कार्यकर्ताओं ने रक्तदान किया, वृद्धाश्रम में फल वितरित किए गए। कहीं-कहीं शरबत-जूस भी बाँटे गए। इस तरह का जन्म दिन ही जन प्रतिनिधियों का मनाना चाहिए। इससे उनकी एक सही पहचान बनती है। आम लोगों को भी लगता है कि यह हमारा सच्चा नेता है। उम्मीद है कि दूसरे नेता भी इसी तरह का जन्म दिन बना कर लोगों का भला करते रहेंगे।

सुनिए गिरीश पंकज को