(किसी एक ब्लॉग पर किसी का लेख पढ़ रहा था. प्रतिक्रिया देते-देते छोटा-सा लेख ही बन गया तो लगा अपने ब्लॉग पर इसे पोस्ट कर दूं, सो प्रस्तुत है)
नक्सली हिंसा को लेकर अनेक बुद्धिजीवी(?) समर्थन की मुद्रा में ही नज़र आते है. वैचारिक लड़ाई या सामाजिक परिवर्तन के लिए हिंसा का सहारा लेना, हत्याएं करना और उसको न्यायसंगत ठहराना भी बड़ा अजीब-सा लगता है. समझ में नहीं आता की इन बुद्धिजीवियों को हो क्या गया है? नक्सलियों की हिंसा की निंदा पहले होनी चाहिए, फिर टाटा-वाटा की बातें होनी चाहिए. टाटा या किसी को भगाना है तो उनके सामने आमरण अनशन करो, धरना दो, लोक जागरण करो. ये क्या बात हुई, कि जंगल में एक जगह बैठे है, और मूड हुआ कि,
'भूमाफियाओं को फिर सबक सिखाना है, चलो साथियों आज फिर कुछ हत्याएं कर के आते है. दिखा देंगे सत्ता को की हम किसी से कम नहीं.''
''लेकिन सरदार, बस में सामान्य लोग भी होंगे?''
ज़वाब -''कोई बात नहीं, अच्छे काम के लिए बलिदान देना ही पड़ता है''.
तो भाई, ये है नक्सलवाद. हिंसा उन्हें इतनी प्रिय हो गयी है, की वे अब यह नहीं देखते की कौन मर रहा है. मासूम बच्चे की गला काट कर ह्त्या कर दी, ये कौन-सा वैचारिक संग्राम है? मै भी व्यवस्था विरोधी हूँ. व्यंग्य लिखता हूँ. मैंने ही लिख है-
''लोकतंत्र शर्मिंदा है,
राजा अब तक ज़िंदा है
हमने अपनी बात कही
वे समझे यह निंदा है''
ऐसी अनेक रचनाएं है, व्यंग्य हैं. जैसे-''मंत्री को जुकाम'', ''नेताजी बाथरूम में'', मूर्ती की एडवांस बुकिंग'' आदि. लगातार सत्ताविरोधी लेखन करता हूँ. लेकिन मैं नक्सलियों की हिंसा का समर्थन नहीं कर सकता. नास्तिक हूँ मगर गो हत्याएं देख कर ''देवनार के दानव'' नामक उपन्यास भी लिखा है. हस्तक्षेप करना लेखक काधर्म है. लेकिन हिंसा धर्म नहीं है. धरती को लाल करके परिवर्तन नहीं लाया जा सकता. परिवर्तन आयेगा लोक-जागरण से.. अहिंसा से. मना कि शातिरों की पूरी फ़ौज खड़ी है, लेकिन ये हटेंगे. अच्छे लोग आयें. हिंसा करके हम बुरे ही बने रहेंगे, कौन करेगा हमारा विश्वास? क्या भारत को हम हिंसक देश बनाना चाहते हैं? इसके लिए सामने आना होगा. और हैरत होती है कि तथाकथित बुद्धिजीवी नक्सली हिंसा के समर्थन में नज़र आते है? किस तरह का समाज रचना चाहते हो भाई, जिसकी बुनियाद लहू से तर-ब-तर हो?
खून से तर चौबारे कब तक?
हिंसा भरे नज़ारे कब तक?
सुन्दर-प्यारे बस्तर में
बहेंगे आंसू खारे कब तक? (पूरी ग़ज़ल यहाँ देखें)
ये अपना ही देश है? ठीक है कि हमारी व्यवस्था सड़ती जा रही है, लेकिन इसका मतलब यह तो नह के जब मूड हुआ , उठे और ह्त्या करके फिर जंगल में गायब हो गए? एक सज्जन बस्तर के युवक राजीवरंजन प्रसाद ने, जो दुनिया को बेहतर देखना चाहता है, नक्सली हिंसा का विरोध किया, तो एक ''मानवतावादी'' ने उसकी शर्ट पर टिप्पणी कर दी, कि ''तुम्हारी शर्ट चमक रही है''.हद है सोच की.टिप्पणीकार ने छद्म नाम रखा है ''मानवतावादी'' और व्यवहार है दानवतावादी. मानवता दिखाओ और जो गलत है, उसका विरोध करो. हिंसा के लिए सरकार या टाटा-फाटा को दोष मत दो. अभी हिंसा रुके. विकास की बात हो.
बुधवार, 19 मई 2010
नक्सली हिंसा और ये बुद्धिजीवी(?)
प्रस्तुतकर्ता girish pankaj पर 9:54 am
लेबल: व्यंग्य / गिरीश पंकज, lekh
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1 Comment:
आपकी गज़ल पढ़ने के बाद से अभी तक सहज नहीं हो पाया हूँ इस पर क्या प्रतिक्रिया लिखूँ ?
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