हिंद स्वराज्य की अधिकांश बातें समकालीन निकष पर सौ टंच खरी उतर रही हैं। आज भी अगर हम गाँधीजी के हिंद स्वराज्य की बातों पर चल सकें तो पुनर्निमाण की दिशा में एक बड़ी उपलब्धि हो सकती है। हिंद स्वराज्य के बीस अध्याय मुझे आधनिक विचारों की गीता बीस अध्याय सरीखे लगते हैं। इन्हें आत्मसात करके ही भारत भारत बन सकता है लेकिन अब जैसे अधिकांश जीवन-मूल्य, नैतिकता, परम्पराएँ बहिष्कृत-सी होती जा रही हैं। ठीक उसी तरह गाँधी को भी अप्रासंगिक करार देने की साजिशें हो रही है। अपने काल से काफी आगे की प्रगतिशील सोच रखने वाले गाँधी के बगैर भारत सच्चा विकास नहीं कर सकता। गाँधी के बगैर बढऩा आतमघाती कदम हो सकता है।'
हिन्द स्वराज' के बारे में गाँधी पुस्तक की भूमिका में लिखते हैं, कि ''यह पुस्तक द्वेष धर्म की जगह प्रेम सिखाती है, हिंसा की जगह आत्म बलिदान को रखती है। पशुबल से टक्कर लेने के लिए आत्मबल को खड़ा करती है।''आज गाँधी की इन्हीं बातों को अमल में लाने की जरूरत है। फिर चाहे वह यंत्रोन्मुखी होने का मसला हो, राष्ट्रभाषा का सवाल हो, गो हत्या का मामला हो या हिंदू-मस्लिम एकता का प्रश्न। जब तक समाज आत्म बलिदान के लिए प्रवृत्त नहीं होगा, ऐसे तमाम मुद्दों पर सफलता नहीं मिल सकती जो हमारी अस्मिता के पर्याय हैं। यांत्रिक सभ्यता से ग्रस्त समाज निर्मम-मन का स्वामी हो जाता है। वह करुणाविहीन हो कर स्वार्थसिद्धि के लिए हिंसा का, छल का, लूट का, बलात्कार का यानी कि हर अनैतिक कार्यों का सहारा लेता है जो कि किसी भी शिष्ट समाज के विरुद्ध नज़र आते हैं। सौ साल पहले गाँधी जी जिन तमाम मुद्दों पर हिंद स्वराज्य में गंभीरतापूर्वक विमर्श किया है, वे तमाम मुद्दे अब और गहनतम होते गए हैं। इन पर सोचने-विचारने और बेहतर समाज कैसे बन सके, इस पर ही चिंतन की जरूरत है।
आजकल जिस यांत्रिक सभ्यता का एक तरह से (चलताऊ जुमले में कहूँ, तो)जो 'बूम' नजर आ रहा है, और जिसके कारण नैतिकता हाशिये पर दम तोड़ रही है, उसकी जालिम पदचाप तो गाँधी ने सौ साल पहले ही सुन ली थी। इसीलिए तो उन्होंने मशीनों पर आश्रित होने की बढ़ती ललक पर जो तल्ख टिप्पणियाँ की हैं, वे आज सार्थक हो रही हैं। कपड़ा मिलों के बढ़ते दुष्प्रभाव आज हमारे सामने हैं। खादी जो कभी वस्त्र नहीं विचार था, अंगरेजों से लडऩे का कारगर हथियार था, आज कहाँ हैं? सरकारें तक खादी की उपेक्षा कर रही हैं। गाँधी जी ने उस वक्त भारतीयों की मानसिकता समझ ली थी इसीलिए उन्होंने कहा था, कि ''मिल मालिक यकायक मिलें छोड़ दें, यह मुमकिन नहीं है लेकिन हम उनसे ऐसी विनती कर सकते हैं कि वे अपने इस साहस को बढ़ाएँ नहीं। अगर वे देश का भला चाहें तो खुद अपना काम धीरे-धीरे कम कर सकते हैं। वे ''खुद पुराने, प्रौढ़ पवित्र चरखे देश के हजारों घरों में दाखिल कर सकते हैं और लोगों का बुना कपड़ा लेकर उसे बेच सकते हैं।''
आज मिलें तो स्वदेशी हैं, लेकिन हमारी मानसिकता विदेशी हो गई है। जो खादी घर-घर में तैयार होती थी, जो चरखा पूजा की थाल से कम नहीं माना जाता घ्था, जिस चरखे की आवाज मंत्र सरीखी प्रतीत होती थी, वह चरखा कहाँ है? खादी अब खद्दर बन कर बुजुर्गों की तरह घर से निकाल बाहर कर दी गई है। गाँधी के देश में खादी की इतनी दुर्गति की कल्पना खुद गाँधी जी ने उस वक्त नहीं की होगी। इसका एक कारण है यांत्रिकता के प्रति हमारी गहरी अनुरक्ति। मिलों के बने चिकने कपड़ें के बरअक्स खादी की हालत ऐसी हो गई है, जैसे किसी अर्धवसना आधुनिका के सामने सिर पर पल्लू लेने वाली ठेठ भारतीयता की प्रतीक कोई संस्कारित नारी। ऐसी नारियों की ओर अब देखता ही कौन है? अब तो नग्नता ही प्रगतिशीलता है। ऐसी मानसिकता के कारण चरखे से उपजी खादी-गंगा मैली हो कर लुप्त होती जा रही है। खादी की दुर्गति यांत्रिक सभ्यता का ही दुष्परिणाम है। अगर गाँवों को खुशहाल रखना है तो हमें यंत्रजनित उत्पादों की जगह कुटीर उद्योगों एवं हस्तशिल्पों को बढ़वा देना होगा। हमारे गाँव तो वैसे भी तबाह हो रहे हैं। डायनासोर बनते जा रहे शहर गाँवों को निगलते जा रहे हैं। ऐसे संक्रमण-काल में गाँधी जी का स्वदेशी-चिंतन ही भारतीय ग्रामीण अर्थव्यवस्था को तार-तार होने से बचा सकता है।
गाँधीजी अगर यांत्रिक सभ्यता के विरुद्ध थे तो इसका मतलब यह नहीं कि वे विकास विरोधी थे। दरअसल वे विकास को ग्रामीण अर्थशास्त्र से जोड़कर देखते थे। हिंद स्वराज्य को बहुत से तथाकथित विचारक अब तक ठीक से समझ ही नहीं सके हैं। या तो उन्होंने हिंद स्वराज्य को सरसरी तौर पर ही पढ़ा है, अथवा वे जानबूझ कर गाँधी के विचारों को नकार रहे हैं। यह संतोष की बात है कि अमरीकी राष्ट्रपति बराक ओबामा से लेकर नोबेल पुरस्कार विजेता भारतीय अर्थशास्त्री अमत्र्य सेन जैसे अनके लोग हैं, जो गाँधी के विचारों का आदर करते हैं। अमत्र्य सेन ने हिंद स्वराज्य की तमाम बातों से अपनी सहमति जताई है।
यंत्रों के बारे गाँधी जी के विचारों को पढऩे के बाद जब रामचंद्रन ने उनसे पूछा था कि 'क्या आप तमाम यंत्रों के खिलाफ हैं'', तो गाँधी जी ने मुस्कराते हुए कहा था, कि ''वैसा मैं कैसे हो सकता हूँ, जब मैं जानता हूँ कि यह शरीर भी एक बहुत नाजुक यंत्र ही है। खुद चरखा एक यंत्र है, छोटी दाँत कुरेदनी भी यंत्र है।'' गाँधी जी यहाँ बिल्कुल साफ कर दिया कि 'मेरा विरोध यंत्रों से नहीं है बल्कि यंत्रों के पीछे जो पागलपन चल रहा है, उसके लिए हैं। आज तो जिन्हें मेहनत बचाने वाले यंत्र कहते हैं, उनके पीछे लोग पागल हो गए हैं। उनसे मेहनत जरूर बचती है लेकिन लाखों लोग बेकार हो कर भूखों मरते हुए रास्तों पर भटकते हैं। समय और श्रम की बचत तो मैं भी चाहता हूँ परंतु वह किसी खास वर्ग की नहीं, बल्कि सारी मानव जाति की होनी चाहिए। कुछ गिने-चुने लोगों के पास संपत्ति जमा हो ऐसा नहीं, बल्कि सबके पास जमा हो, ऐसा मैं चाहता हूँ। आज तो करोड़ों की गरदन पर कुछ लोग सवार हो जाने में यंत्र मददगार हो रहे हैं। यंत्रों के उपयोग के पीछे जो प्रेरक कारण है, वह श्रम की बचत नहीं है बरन धन का लोभ है। आज की चालू अर्थव्यवस्था के खिलाफ मैं अपनी ताकत लगा कर युद्ध चला रहा हूँ।'' गाँधी जी का यह कथन बताता है कि वे यंत्रों के खिलाफ नहीं थे लेकिन यंत्रों के पीछे छिपे षडयंत्रों के खिलाफ जरूर थे। वे तब समझ चुके थे कि यंत्र चंद लोगों के शोषण के औजार और विलासता के विकास के उपकरण बन चुके हैं। अगर यही रफ्तार रही तो भविष्य में मेहनतकश समाज के भविष्य पर प्रश्नच्न्हि लग जाएगा।
हिन्द स्वराज को ध्यान से पढ़ें । यंत्रों के उपयोग का पीछे की मानसिकता पर बापू कहते हैं कि ''मैं इतना जोडऩा चाहता हूँ, कि सबसे पहले यंत्रों की खोज और विज्ञान लोभ के साधन नहीं रहने चाहिए। फिर मजदूरों से उनकी ताकत से ज्यादा काम नहीं लिया जाएगा और यंत्र रुकावट बनने की बजाय मददगार हो जाएँगे। मेरा उद्देश्य तमाम यंत्रों का नाश करने का नहीं है बल्कि उनकी हद बाँधने का है।'' गाँधी जी ने अपनी बात को और साफ करते हुए कहा, कि ''हम जो कुछ भी करें, उसमें मुख्य विचार इंसान के भले का होना चाहिए। ऐसे यंत्र नहीं होने चाहिए जो काम न रहने के कारण आदमी के अंंगों को जड़ और बेकार बना दे। इसीलिए यंत्रों को मुझे परखना होगा। जैसे सिंगर की सीने की मशीन का मैं स्वागत करूँगा। आज की सब खोजों में जो बहुत काम की थोड़ी खोजें हैं, उनमें से यह सीने की मशीन है। इस मशीन की खोज के पीछे मनुष्य की जो करुणा की भावना है, उसके बारे में भी गाँधी जी ने घटना बताई कि सिंगर ने अपनी पत्नी का सीने और बखिया लगाने का उकताने वाला काम देखा। पत्नी के प्रति उसके प्रेम ने गैर जरूरी मेहनत से उसे बचाने के लिए मशीन बनाने की प्रेरणा दी। ऐसी खोज करके उसने न सिर्फ अपनी पत्नी का ही श्रम बचाया, बल्कि जो भी ऐसी मशीन खरीद सकते हैं उन सबको हाथ से सीने के उबाने वाले श्रम से छुड़ाया। इस उदाहरण से तो बिल्कुल साफ हो जाता है कि गाँधी मशीनों के कतई खिलाफ नहीं थे। इसलिए गाँधी को यंत्र विरोधी करार देने की भूल नहीं की जानी चाहिए।
हिंद स्वराज्य में गाँधी जी ने सभ्यता के मसले पर भी लिखा है। वे उस सभ्यता के विरोधी थे जो मनुष्य को निर्मम बनाती है। इस इक्कीसवीं सदी की हालत क्या है? यांत्रिकता ने हमें पूरी तरह से यंत्रवत ही बना कर रख दिया है। रोबोट होते जा रहे हैं लोग। यंत्रों में संवेदनाएँ नहीं होतीं। यंत्र यंत्र होते हैं। बटन या प्रोग्रामिंग से चलते हैं। यंत्र में तब्दील मनुष्य की संवेदनाएँ क्षरित होती जा रही हैं। यही कारण है कि आज सुदूर गाँवों में बड़े-बड़े कल-कारखाने लगाए जा रहे हैं तो वहाँ के माटी पुत्रों को बेदखल किया जा रहा है। उनको चालाकी के साथ या फिर डंडे-गोलियों का भय दिखा कर भगाया जा रहा है। खून से सनी मिट्टी में यंत्र लगाए जा रहे हैं। धन पिपासुओं के आगे समूची व्यवस्था जैसे घुटने टेकने पर विवश है। विकास की आड़ में आदिवासी या ग्रामीण उजड़ते जा रहे हैं। यही है निर्मम यांत्रिक सभ्यता जिसके विरोध में गाँधी सौ साल पहले खड़े थे, और हिंद स्वराज्य के माध्यम से आज भी खड़े हैं और शायद कल भी खड़े रहेंगे। सौ साल पहले कहा गया गाँधी का कथन जैसे लगता है कि आजकल में ही कहा गया है, कि ''धन के पीछे आज जो पागल दौड़ चल रही है, वह रुकनी चाहिए। मजदूरों को सिर्फ अच्छी रोजी मिले, इतना ही बस नहीं है। उनसे हो सके, ऐसा काम उन्हें रोज मिलना चाहिए। ऐसी हालत में यंत्र जितना सरकार को या उसके मालिक को लाभ पहुँचाएगा, उतना ही लाभ उसके चलाने वाले मजदूरों को भी पहुँचाएगा। मेरी कल्पना में यंत्रों के बारे में कुछ अपवाद हैं उनमें यह है। सिंगर मशीन के पीछे प्रेम था इसमें मानव-सुख का विचार मुख्य था।''
यंत्रों में कोई बुराई नहीं है, यांत्रिकता बुरी है। जड़ में विकास है लेकिन जड़ता में अवरोध है। प्यार अच्छी चीज है, लेकिन मोह गलत है। विश्वास और श्रद्धा का सम्मान होना चाहिए लेकिन अंधविश्वास और अंधश्रद्धा उचित नहीं। यह विवेकहीनता है। गाँधी मनुष्य का विवेक जागृत करने का काम करते हैं। उनकी दृष्टि व्यापक है। वे सर्वजन हिताय सोचते थे। वंचितों को उन्होंने गले लगाने की कोशिश की। समाज में एक वातावरण बनाया। दलितों को उन्होंने हरि का जन कहा लेकिन हमारी मानसिकता ने गाँधी के महान अलंकरण में भी खोट देख लिया। वह अलंकरण ही प्रतिबंंधित कर दिया गया। यही कट्टरता है। यांत्रिकता से उपजी विचारशून्य सभ्यता है। गाँधी जी ऐसी कट्टरता के विरुद्ध थे। यांत्रिक सभ्यता कट्टरवाद को भी जन्म देती है। गाँधी को न समझ पाने वाला एक वर्ग आज भी नफरत से भरा हुआ है। वैचारिक अलगाव भारतीय-जीवन के केंद्र-सा बनता जा रहा है। गाँधी को गरियाने वाले आज भी मिल जाते हैं। इनमें अधिकतर वे लोग हैं जिनके जीवन में गाँधी-सा न कोई त्याग है, न कर्म। ये लोग का-पी कर अघाए हुए तथाकथित सभ्य लोग हैं, जो न तो समाज के बारे में सोचते हैं, न देश के बारे में। वे अपनी-अपनी सीमित अस्मिताओं के लिए लड़ते रहते हैं, बस। अगर हम यांत्रिक सभ्यता के शिकार न होते तो चिंतनशील होते, प्रेम-अहिंसा जैसे मानवीय-गुणधर्मों से लबरेज होते। देश में धार्मिक या जातीय-विद्वेष इतनी तेजी से नहीं फैलता। राष्ट्रभाषा और क्षेत्र को लेकर संकुचित दृष्टि भी इतना विकराल रूप धारण न करती। यांत्रिक सोच की दुखद परिणति ही है कि आज भारत की जगह हर तरफ इंडिया ही इंडिया नजर आने लगा है। हिंद स्वराज्य के 'स्वराज्य क्या है' नामक अध्याय में गाँधी जी ने व्यंग्य करते हुए कहा है कि ''हमें अंगरेजी राज्य तो चाहिए, पर अंगरेजों का शासन नहीं चाहिए। आप बाघ का स्वभाव तो चाहते हैं लेकिन बाघ नहीं चाहते। मतलब यह हुआ कि आप हिंदुस्तान को अंगरेज बनाना चाहते हैं और हिंदुस्तान जब अंगरेज बन जाएगा तब वह हिंदुस्तान नहीं कहा जाएगा। यह मेरी कल्पना का स्वराज्य नहीं है।'' सचमुच गाँधी की कल्पना का स्वराज्यअभी तक नहीं आ पाया है। आज अंगरेज तो नहीं है लेकिन सत्ता में बैठे लोग अंगरेजों के पिताश्री हैं। उनकी मानसिकता अंगरेजी है। वे अंगरेजी में सोचते हैं, अंगरेजी में लिखते-पढ़ते हैं, बोलते हैं और अँगरेजी में ही खाते-पीते हैं इसलिए उनका चरित्र आज भी अंगरेजियत से भरा है। वे राष्ट्रविरोधी हैं। सामंती है, मगरूर हैं, हिंसक है। प्रतिरोध में उठी आवाजें इन्हें पसंद नहीं, जैसे अंगरेजों को नहीं थीं। बड़ा आश्चर्य है कि फिर भी ये लोग अपने को सभ्य कहते हैं। अगर यह देश गाँधी जी के हिंद स्वराज्य को समझ कर अपनी नीतियाँ बनाता और उस पर अमल कर लेता तो देश में राजराज्य होता, इतनी सरकारी हिंसा भी नहीं होती। दिमाग के यंत्रवत कार्य करने के कारण ही करुणा और अहिंसा जैसी बुनियादी चरित्र से शासन से दिनोदिन दूर होता गया। तंत्र ने लोक को लोक नहीं समझा। यह सब गाँधीवाद के विरुद्ध है।
गाँधी जी ने इग्लैंड की पार्लियामेंट को बाँझ और वेश्या कहा था। बाद में उन्होंने 'वेश्या'' शब्द को विलोपित कर दिया था लेकिन उनका आरोप सही था। आज भारतीय परिप्रेक्ष्य में भी ये दोनों शब्द अप्रासंगिक नही हैं। हमारी संसद जनहित में अनेक निर्णय तो करती है लेकिन वे कार्यरूप में परिणत नही हो पाते। पार्लियामेंट में अब जैसे लोग चुनकर जा रहे हैं, उसे देख कर हैरत होती है। अब आम आदमी संसद नही पहुँच सकता। या तो वंश-परंपरा से आने वाले लोग पहुँचते हैं या फिर करोड़पति-अरबपति। ब्रिटिश पार्लियामेंट के बारे में गाँधी जी ने लिखा था कि 'जितना समय और पैसा पार्लियामेंट खर्च करती है, उतना समय और पैसा अगर लोगों को मिले तो प्रजा का उद्धार हो जाए। ब्रिटिश पार्लियामेंट महज प्रजा का खिलौना है।' आज भी कमोबेश वही हालत है। पार्लियामेंट की व्यवस्था में करोड़ों खर्च होते हैं, लेकिन देश की जनता की बेहतरी कितनी हो पाती है? उल्टे संसद की कार्रवाइयों के जो दृश्य सामने आते हैं, वे कई बार नाट्य मंचों या टीवी चैनलों में प्रस्तुत होने वाले नाटकीय दृश्यों जैसे ही फूहड़ लगते हैं। हमारा संविधान लोकमंगल की भावना से भरा पड़ा है लेकिन व्यावहारिक धरातल पर अमल न हो पाने के कारण लोकतंत्र मजाक-सा लगने लगता है। बातें तो बड़ी अच्छी है, मगर वे सार्थक न हो सकें तो उसका औचित्य ही क्या? हमारी नई यांत्रिक सभ्यता का यही चरित्र है कि वह बातें बड़ी-बड़ी करती है, लेकिन काम फूटी कौड़ी का नहीं। यंत्रों में अगर संवेदनाएँ होती तो शायद वे कुछ करती भी। इसी तरह जो मनुष्य यंत्रवत हो चुके हैं, उनसे हम कल्याण की उम्मीद नहीं कर सकते। इसीलिए मेरा यही मानना है, कि इस नई यांत्रिक सभ्यता ने हमें हृदयहीन बना कर रख दिया है। अभी तो ये अँगड़ाई है, आगे और लड़ाई है। यह शुरुआत है। जो मंज़र अभी दीख रहे हैं, उससे भविष्य की विसंगतियों का अनुमान लगाया जा सकता है। अगर भारतीय समाज को बचाना है तो उसे गाँधी के रास्ते पर ही चलना होगा। बले ही वह 'गाँधीवाद' को पचा न पाए, 'गाँधीगीरी' जैसे हाजमोलाई शब्द ही काम चलाए लेकिन हमें गाँधी के निकट तो आना ही पड़ेगा क्योंकि गाँधी लाख दुखों की एक दवा है। इसका कोई साइड इफेक्ट भी नहीं है। इससे घबराने की जरूरत नहीं। हम आधुनिक बनें, यंत्रों की दुनिया के बीच जीएँ (मोबाइल और इंटरनेट से हमारा कितना गहरा रिश्ता बन चुका है) मगर गाँधी के उन वचनों को न भूल जाएँ जो उन्होंने मनुष्यता को बचाने के लिए हिंद स्वराज्य में कहे।
आज भारतीय समाज पश्चिम की ओर मुँह करके चल रहा है इसीलिए ठोकरें का रहा है। कदम-कदम पर गिर रहा है। संस्कृति की चुनरी उड़ कर कहाँ चली गई, पता ही नहीं चला। नैतिकता का जूता कब का फट चुका है। सभ्यता के वस्त्र तार-तार हो चुके हैं। सब कुछ दिखने लगा है खुल्लमखुल्ला। जो दैहिक उभार या जो चीजें ढँकी रहती थीं, अब उन्हें ही दिखाया जा रहा है। बर्बादी को जैसे पारिवारिक-सामाजिक स्वीकृति मिल गई है। हिंद स्वराज्य में जो दिशा दिखाई गई है, जो जीवन-सूत्र दिए गए हैं, उसके सहारे हम क्यों नहीं चल सकते? अगर ऐसा कर सकते तो एक नैतिक समाज की स्थापना में आसानी होती लेकिन अब ऐसा संभव नहीं दिखता। लगता है, कि हम लोग बहुत आगे निकल आए हैं। आज की नई सभ्यता में अराजकता है, असंकारिता है। निर्लज्जता है। गाँधी ने हिंद की सभ्यता को सबसे अच्छी सभ्यता निरूपित किया था। यूरोप की सभ्यता को उन्होंने चार दिन की चाँदनी कहा था। सौ साल पहले गाँधी ने भारतीय समाज की यूरोपीय संस्कृकि के प्रति अंधी आसक्ति देख कर कहा था, कि अँगरेजों की सभ्यता को बढ़ावा दे कर हमने जो पाप किया उसे धो डालने के लिए हमें मरने तक भी अंदमान में रहना पड़े तो वह कुछ ज्यादा नहीं होगा। सौ साल पहले गाँधी जी ने जिस पाप की ओर इशारा किया था, उस पाप का घड़ा तो कब का लबालब भर चुका है लेकिन फूटने का नाम नहीं ले रहा। उल्टे इस घड़े को बचाने की मुहिम-सी चल रही है। नए भारतीय मानल को देख कर हैरत होती है। सोचना पड़ता है, कि कया इसी देश में कभी महावीर, गौतम, नानक, विवेकानंद, दयानंद सरस्वती, गाँधी, बिनोबा आदि महापुरुष जन्में थे? आने वाली पीढियों को यकीन ही नहीं होगा। वे समझेंगी कि ये सब मिथक है। काल्पनिक पात्र है। भविष्य में जैसा क्रूर समाज विकसित होगा, उसमें यह संभव है।
यह नई यांत्रिक सभ्यता हमें और पतित करेगी। रिश्तों के मामले में हम धीरे-धीरे कृपण होते जा रहे हैं। पशुवत आचरण की खबरें आए दिन छपती ही रहती हैं। सम्पत्ति-विवाद के कारण भाई ने भाई को मार डाला। बेटे ने पिता की हत्या कर दी..आदि-आदि। आधुनिक सभ्यता ने हमें शिक्षित तो किया है, सुशिक्षित नहीं। हिंद स्वराज्य में गाँधी ने इस बाबत अँगरेज विद्वान हक्सले के कथन का हवाला दिया हैं, जिसमें हक्सले कहते हैं कि उसी आदमी ने सच्ची शिक्षा पाई है जिसकी बुद्धि शुद्ध, शांत और न्यायदर्शी है। उसने सच्ची शिक्षा पाई है, जिसके मन की भावनाएँ बिल्कुल शुद्ध हैं। जिसे नीच कामों से नफरत है और जो दूसरे को अपने जैसा मानता है। हक्सले के इन कथनों के बरअक्स आज की शिक्षा और इसके फलितार्थों को देख लें। पढ़े-लिखे लोगों के न तो मन शुद्ध हैं, न शांत है और न प्रेम से भरे हुए हैं। वे लोग अपने ही लोगों से नफरत करते हैं। अपराध और अपराधी तक हाइटेक हो चुके हैं। ऐसा पढ़ा-लिखा समाज किस काम का जो हिंसा करता है और बेचैन नहीं होता? नफरत करता है और ग्लानि से नहीं भरता? किसी को नीचा दिखाने का उपक्रम करता है और दुखी नहीं होता? समकालीन शिक्षा हमें केवल सूचित करती है, सुशिक्षित नहीं करती। हमारा विवेक जागृत नहीं करती। यही इसकी सबसे बड़ी कमी है। विवेक जागरण के लिए विद्यालयीन शिक्षा की जरूरत नहीं। इसके लिए नैतिक शिक्षा अनिवार्य बने। समता-ममता के पाठ पढ़ाएँ जाएँ। अब जो नई शिक्षा व्यवस्था लादी जा रही है, उसमें मनुष्य को केवल यंत्र बनाने की व्यवस्था है। वेतन के पैकजों की ही भाषा है। पढ़ा-लिखा युवा रोबोट की तरह काम कर लेता है, तगड़ी कमाई कर लेता है, ईष्र्या के लिए बाध्य करने वाला भौतिक वैभव प्राप्त कर लेता है लेकिन वह अपने माता-पिता से को वृद्धाश्रम में भेज देता है, अपने भाई-बंधुओं से तन और मन दोनों से ही दूर हो जाता है।
रिश्तों की, अपनत्व की हत्या करके भी हम सभ्य कहला रहे हैं तो यह बिल्कुल नई सभ्यता है, जिसकी आहट गाँधी ने सुन ली थी, और जिसक ी गहन चिंता उन्होंने हिंद स्वराज्य में की है। गाँधी ऐसी शिक्षा के कायल नहीं थे। वे चाहते थे, कि पढ़-लिख कर लोग मनुष्य भी बनें। लोग अपने नैतिक कर्तव्यों को भी समझें। लेकिन अब नया दौर है। अब 'गिव्ह एंड टेक' का जमाना है। 'यूज एंड थ्रो'' की अप-संस्कृति जोरों पर है। यह नया समाज हैरत में डाल देने वाला है। आदिम युग से उठ कर मानव यहाँ तक पहँच गया है, लेकिन उसकी प्रवृत्तियाँ आदिम ही बनी हुई है। उसकी हरकतों में वे मूल्य दृष्टव्य नहीं होते जो यह साबित करें कि वह सभ्यता के नये आलोक में जी रहा है। विकास और विनाश में अंतर करना कठिन हो रहा है। इसका असली कारण यही है कि तमाम चिंताओं एवं प्रयासों के बावजूद पिछली शताब्दी में हम नैतिक मूल्यों की दृष्टि से निरंतर अवनति को ही प्राप्त हुए हैं। हिंद स्वराज्य को पढ़ कर उस दौर के भारत को भी समझा जा सकता है। जैसे पहले ही अध्याय में गाँधी जी एक जगह कहते हैं,कि स्वराज्य भुगतने वाली प्रजा अपने बुजुर्गां का तिरस्कार नहीं कर सकती। अगर दूसरों की इज्ज्त करने की आदत खो बैठेंगे तो हम निकम्मे हो जाएँगे। जो प्रौढ़ और तजुर्बेकार हैं, वे ही स्वराज्य को भुगत सकते हैं न कि बे-लगाम लोग। क्या यही सभ्यता है?
गाँधी जी ने सभ्यता का जो रूप बताया है, वह विचारणीय है। संवेदनशील पाठक आत्म-मंथन के लिए विवश होगा और सोचेगा, कि क्या सभ्यता के ये ही नए कँटीले शिखर हैं? गाँधी जी के विचारों को एक लम्बा अंश यहाँ प्रस्तुत करने का मोह संवरण नहीं कर पा रहा हूँ, देखें, ''सौ साल पहले यूरोप के लोग जैसे घरों में रहते थे, उनसे ज्यादा अच्छे घरों में आज वे रहते हैं। यह सभ्यता की निशानी मानी जाती है। इनमें शरीर के सुख की बात है। इसके पहले लोग चमड़े के कपड़े पहनते थे और बालों का इस्तेमाल करते थे। अब वे पतलून पहनते हैं और शरीर को सजाने के लिए तरह-तरह के कपड़े बनवाते हैं। और बाले के बदले एक के बाद एक पाँच गोलियाँ छोड़ सके, ऐसी चक्कर वाली बंदूक इस्तेमाल करते हैं। यह सभ्यता की निशानी है। किसी मुल्क के लोग जो जूते वगैरा नहीं पहनते हों, जब यूरोप के कपड़े पहनना सीखते हैं, तो जंगली हालत में से सभ्य हालत में आये हुए माने जाते हैं। पहले यूरोप में लोग मामूली हल्की मदद से अपने लिए जात-मेहनत करके जमीन जोतते थे। उसकी जगह आज भाप के यंत्रों से हल चला कर एक आदमी बहुत सारी जमीन जोत सकता है और बहुत-सा पैसा जमा कर सकता है। यह सभ्यता की निशानी मानी जाती है। पहले लोग कुछ ही किताब लिखते थे और वे अनमोल मानी जाती थी। आज हर कोई चाहे जो लिखता और छपवाता है और लोगों के मन को भरमाता है (प्रकाशन के मामले में सौ साल बाद भी इसी तरह की बुरी स्थिति है-लेखक)यह सभ्यता की निशानी है।.. गाँधी जी ने बैलगाड़ी और रेलगाड़ी का और हवाई जहाज का भी उदाहरण दिया है कि लोग कुछ ही घंटे में लंबी दूरिया तय कर लेंगे। एक उदाहरण गाँधीजी ने त्रिकालदर्शी के रूप में कुछ इस तरह पेश किया है जो अब सार्थक हो रहा है। उन्होंने लिखा है, ''लोगों को हाथ-पैर हिलाने की जरूरत नहीं रहेगी। एक बटन दबाया कि आदमी के सामने पोशाक हाजिर हो जाएगी, दूसरा बटन दबाया कि उसे अखबार मिल जाएंगे, तीसरा दबाया कि उसके लिए गाड़ी तैयार हो जाएगी। हर हमेसा नये भोजन मिलेंगे, हाथ-पैर का काम नहीं करना पड़ेगा। सारा काम कल से हो जाएगा।...यह सभ्यता की निशानी है।... पहले लोगों को मारपीट कर गुलाम बनाया जाता था, आज पैसों का लालच देकर गुलाम बनाया जाता है। पहले जैसे रोग नहीं थे वैसे रोग आज लोगों में पैदा हो गए हैं और उसके साथ डॉक्टर खोजने में लगे हैंकि ये रोग कैसे मिटाए जाएँ। ऐसा करने से अस्पताल बढ़े हैं। यह सभ्यता की निशानी है।''
गाँधीजी ने और भी अनेक गहरे कटाक्ष किए हैं लेकिन उनके इतने विचार ही यह समझने के लिए पर्याप्त है कि सभ्यता को मनुष्य कितने हल्के से लेता है। कसाई खाने में अत्याधुनिक यंत्र लगा कर भी कहा जा सकता है कि हम सभ्य हो गए हैं। देखो, कितनी तत्परता के साथ पशुओं का कत्ल करते हैं और मानवश्रम बचाते हैं। दरअसल सभ्यता को कुछ लोगों ने गहराई से समझने की कोशिश ही नहीं की है। कुछ यांत्रिक सुविधाओं को सभ्यता समझ कर इतराने वाले समाज को सभ्यता का असली उत्स समझ में नहीं आता, जिसके लिए गाँधी जी बेचैन रहे। यूरोप की जिस सभ्यता और मानसिकता को गाँधी जी ने समझाने की कोशिश की थी, उस सभ्यता ने आज भारत को अपने कब्जे में बुरी तरह जकड़ लिया है। यह हास्यास्पद स्थिति नहीं है तो और क्या है कि भारत में भीषण गरमी के दौरान भी कुछ लोग सूट-बूट और टाई में नजर आते हैं, क्यों कि ऐसा पहरावा उन्हें सभ्य या कहें कि आधुनिक दर्शाता है। हद तो उस वक्त हो जाती है जब कुछ लोग अपने कुत्ते से भी अँगरेजी में बात करते हैं। सोचिए जरा, वह सभ्यता की किस ऊँचाई पर खड़ा है। पिज्जा-बर्गर या फास्ट फूड एवं ड्रिंक्स की नई संस्कृति को आत्मसात करके लोग खुद को माडर्न समझ रहे हैं। यह सभ्यता की सही निशानी नहीं है। कपड़े, भोजन और पेय आदि को सभ्यता नहीं समझा जा सकता। लोग खुद को सभ्य कहते हैं और अनेक घिनौने किस्म का माँसाहार भी करते हैं। सभ्यता की सीधी-सादी परिभाषा यही है कि आप का व्यवहार कैसा है। खास कर उस मानव से जो आर्थिक, सामाजिक एवं मानसिक रूप से आपसे कमजोर है। वंचितों, दलितों, पिछड़े एवं कमजोर लोगों से मनुष्य अगर नकारात्मक व्यवहार करता है तो वह जितना भी सुदर्शन हो, जितने भी अच्छे कपड़े पहनता हो, जितने भी भव्य घर में रहता हो, सभ्य नहीं कहा जा सकता। ये और बात है कि वह अपने को अकसर सभ्य बताने की काशिश करता होगा। हम खुद सोचें कि कितने सभ्य लोग हमारे इद-गिर्द सलामत हैं।
सच्ची सभ्यता आदमी को इन्सान बनाती है। यांत्रिक सभ्यता सच्ची सभ्यता नहीं हो सकती क्योंकि इसकी चपेट में आकर इंसान इंसानियत ही भूल जाता है। इस तरह नई सभ्यता एक तरह से शैतानी सभ्यता ही है। लोग धर्मस्थलों में जाते हैं और यंत्रवत सिर हिलाते हैं, झुकाते हैं, लोट-लोट जाते हैं, लेकिन मन के पाप जस के तस रहते हैं। माँसाहार सहज प्रवृत्ति बनी हुई है। कटते हुए माँस को लोग भूखे भेडिय़े की तरह देखते मिल जाते हैं। तमाम तरह के दुर्गुणों से भरा यह आधुनिक मनुष्य किस कोण से सभ्य हैं, यह तो मेरी भी समझ में नहीं आता। आज अगर गाँधीजी जीवित रहते तो 'हिंद स्वराज' के नए संस्करण में वे यही लिखते कि अरे, इन सब ने राह न पाई। सौ साल पहले मैंने जैसा भारत या समाज देखा था, वैसा और उससे भी बदतर समाज आज देख रहा हूँ। सभ्यता हमें अधम बना दे, निर्मम बना दे, जातिवादी, कट्टर धार्मिक बना दें, क्षेत्रवादी बना दे, भाषावादी बना दे, स्वार्थी बना दे तो ऐसी सभ्यता मानव जाति के किस काम की? गाँधी जी ने भी कहा है कि ''मेरी पक्की राय है कि हिंदुस्तान अँगरेजों से नहीं, बल्कि आजकल की सभ्यता से कुचला जा रहा है। उसकी चपेट में फँस गया है।''
गाँधी जी धर्म विरोधी नहीं थे। लेकिन उनका धर्म विवेकशून्यता से भरा नहीं था। वे कहते हैं, कि '' मुझे तो धर्म प्यारा है इसलिए पहला दु:ख मुझे यह है कि हिंदुस्तान धर्मभ्रष्ट होता जा रहा है। धर्म का अर्थ यहाँ मैं हिंदी, मुस्लिम या जरथोस्ती धर्म नहीं करता, इन सब धर्मों के अंदर जो धर्म है, वह हिंदुस्तान से जा रहा है। हम ईश्वर से विमुख होते जा रहे हैं।''
आज हालत यही है। हम असली धर्म भूल गए हैं। धर्म कहीं दिखता नहीं, बस पाखंड या आडंबर ही प्रधान है। ईश्वर के सामने पाप होते रहते हैं। हत्याएँ होती है, बलात्कार होते हैं, धोखाधड़ी होती है, ऊँच-नीच का खेल चलता है। भगवान के घर पर भी वीवीआइपी और गरीबों के साथ अलग-अलग व्यवहार होता है। ये कैसा धर्म, कैसी सभ्यता है? आराधना के नाम पर लोगों की आँखों तो बंद रहती है, लेकिन भीतर ही भीतर नए-नए पापों को करने की योजनाएँ भी बनती रहती हैं। ईश्वर का डर खत्म हो गया है। या फिर ईश्वर को इतना सस्ता समझ लिया गया है, कि उसके सामने हाथ-पैर जोडऩे से सारे पाप धुल जाएँगे। मनुष्य जीवन नैतिकता और सदकर्मों की सतत तलाश है। यही सच्ची सभ्यता है। लेकिन अब ऐसी सभ्यता के दीदार कम ही होते हैं। मनुष्य यंत्र हो चुका है।
आधुनिकता या यांत्रिक सभ्यता की परमस्वीकृति का बिल्कुल ताजा उदाहरण यह भी है कि अब समलैंगिकता को सामाजिक स्वीकृति देने की दिशा में व्यवस्था कदम तक बढ़ा रही है। कुछ चीजों के लिए तो हमें समाज को जोर-जबर्दस्ती के साथ प्रतिबंधित करना होगा, लेकिन प्रगतिशीलता, और मानवाधिकार के चक्कर में अनैतिकता को भी हरी झंडी दिखाई जा रही है। अगर यही रफ्तार रही तो जिस यांत्रिक सभ्यता के खतरे को गाँधी से ने देखा और महसूस किया था, और हम सबको सावधान भी किया था, वह सभ्यता हमें खाक में मिला देगी। सौ सालों में हमारा समाज और ज्यादा पतित हुआ है। इक्कीसवीं सदी में के इस व्यामोह में और ज्यादा विनाश संभावित है। मंज़र सामने है। कुंवारी लड़कियों के माँ बनने की रफ्तार बढ़ी है। अगर यह सभ्यता है तो मुझे कुछ भी नहीं कहना और अगर यह सभ्यता नहीं है तो विचार किया जाना चाहिए, कि ऐसा क्यों हो रहा है। कारणों तक पहुँच कर उसे दूर करने की कोशिश होनी चाहिए। गाँधी जी के सपनों का महान भारत तभी बन सकेगा। यह संभव हो सकता है, बशर्र्ते हम सब मिल-जुल कर इस दिशा में वैचारिक प्रयास करें। गाँधी, खादी, नैतिकता, प्रेम, करुणा, त्याग जैसे मानवीय गुणों का विकास करके ही सभ्यता की सच्ची परिभाषा गढ़ी जा सकी है। इसके लिए जरूरी है कि हम यांत्रिकता से बाहर निकल और सही अर्थों में सभ्यता की उस दिशा की ओर कदम बढ़ाएँ, जिसकी ओर चलने का आग्रह गाँधी जी ने किया था।
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