मंगलवार, 27 अप्रैल 2010

व्यंग्य / मूर्ति की 'एडवांस बुकिंग

मित्रो, ''सद्भावना दर्पण'' नामक इस चिट्ठे को मैंने बहुत पहले ही बना लिया, था, लेकिन मेरी लापरवाही के कारण ''चिट्ठाजगत'' में इसका विधिवत ''पंजीकरण'' नहीं हो पाया था. संयोगवश कल ही हुआ. आप कह सकते हैं, कि एक चिट्ठी मैंने बहुत पहले ही लिख ली थी,मगर उसे 'पोस्ट' कल ही किया. कल किया और देखिये कितनी जल्दी आप तक पहुँच भी गई. अब लगता है, कि 'सद्भावना दर्पण'' के माध्यम से मैं अपने गद्यकार को आप तक पहुंचा सकूंगा. इसमे मेरी पत्रकारिता और मेरा गद्य साहित्य दोनों रहेगा. साहित्य और पत्रकारिता दोनों क्षेत्र में सक्रिय रह कर समाज की सेवा करने का विनम्र प्रयास करता रहा हूँ, आप लोगों का प्रोत्साहन मिला तो सिलसिला चलता रहेगा. मेरी कविताओं वाले ब्लॉग को आपने प्यार-दुलार दिया. अब 'सद्भावना दर्पण'' को भी आपकी सद्भावना चाहिए.
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मूर्ति की 'एडवांस बुकिंग
मूर्ख लोग ईमानदारी के साथ समाज-सेवा करते हैं और बुद्धिमान लोग अपनी मूर्तियाँ बनवाने में लगे रहते हैं।
अनेक शोधों के बाद यही निष्कर्ष निकला है, कि ऐसा करने वाले कुछ अतिरिक्त किस्म के समझदार होते हैं। अपने जीवित रहते ही अपनी मूर्तियाँ बनवाने वाले लोग मरने के बाद की तैयारी कर लेते हैं। उनके जीते-जी मूर्ति बन जाने से यह फायदा होता है, कि वे इत्मीनान के साथ मरते हैं। बिल्कुल ही टेंशन-फ्री हो कर। वे तो बेचारे बस, इतना ही चाहते हैं, कि जब कभी वे मर-मुरा जाएँ तो किसी चौराहे पर उनकी मूर्ति-फूर्ति लग जाए।
ऐसे ही एक बुद्धिमान व्यक्ति से एक मूर्तिकार के घर में मुलाक़ात हो गयी। नाम था लतखोरीलाल।
हमने पूछा - ''लगता है, किसी महापुरुष की प्रतिमा बनवाने के लिए आए हुए हैं।''
वे हँस पड़े। बोले कुछ भी नहीं।
हमने पूछा - ''किसकी प्रतिमा बनवा रहे हैं ? भगत सिंह की ? चंद्रशेखर आजाद की ? सुभाषचंद्र बोस की ? या किसी और शहीद की ?''
वे फिर हँस पड़े। कुछ-कुछ शरमाए से। मेरे बहुत कुरदने पर बोले ''अरे, इतने बड़े-बड़े महापुरुषों के नाम लेकर आप मुझे धर्म संकट में क्यों डाल रहे हो भई!''
मैं चौंका। महापुरुष छोटा या बड़ा भी होता है क्या ? फिर भी मैंने पूछा - ''बड़ा महापुरुष नहीं तो क्या, कोई छोटा महापुरुष है क्या, जिसकी प्रतिमा बनवा रहे हैं आप!''
वे फिर भी लजाए-मुसकाए खड़े रहे।
मैंने कहा - ''अरे साब, बेसब्री बढ़ती जा रही है। जल्द ही खुलासा कीजिए न, कि आखिर किस महापुरुष की प्रतिमा बनवाने आए हैं ? अपनी तो बनवाने से रहे। प्रतिमाएँ हमेशा महापुरुषों की ही बनती है। फिर चाहे वह स्थानीय स्तर का,  या फिर राष्ट्रीय स्तर का। वैसे तो महापुरुष केवल महापुरुष ही होता है। वह किसी क्षेत्र के खूँटे से बँध ही नहीं सकता। बहरहाल, अब तो बता दीजिए उस महापुरुष का नाम ?''
वे इस बार बत्तीस दिखाते हुए बोले - ''लत.. खोरी..लाल की।''
मुझे चक्कर आने लगा। खुद को संभालते हुए बोला - ''क्या.. क्या कहा आपने ? लतखोरीलाल ? यानी कि आप ? बाप रे बाप! अपनी ही प्रतिमा बनवा रहे हैं आप!''
लतखोरीलाल तनिक गंभीर हो गए। कहने लगे - ''क्या हम इस लायक नहीं कि हमारी किसी जगह प्रतिमा लग सके?'' मैंने कहा - ''क्यों नहीं, आपके अपने घर में, घर के आंगन में तो लग ही सकती है। इसके लिए मरने की ज़रूरत ही नहीं है। जीते जी लग सकती है प्रतिमा। आप प्रतिमा लगाएं माला चढ़ाने हम आ जाया करेंगे।''
लतखोरी लाल बोले - ''अरे भई, घर में अपनी प्रतिमा लगवाए तो काहे के महापुरुष ? हम तो अपनी प्रतिमा शहर के किसी व्यस्त चौराहे पर ही लगवायेंगे। और वो भी जीते जी।''
''लेकिन अक्सर तो यही देखा गया है कि किसी के मरने के बाद ही प्रतिमा लगती है।''
मेरे प्रश्न पर लतखोरीलाल बोले - ''अरे ये जीना भी कोई जीना है साब! कोई घास ही नहीं डालता! पूछता तक नहीं।''
मैंने कहा - ''भई, पूछ-परख तो उनकी होती है जो कुछ काम् करके दिखाए। आपने कुछ ऐसे काम तो किए नहीं कि लोग आपको घास डालें।'' लतखोरीलाल बोले - ''वाह साहब, आप कहते हैं, हमने कुछ किया ही नहीं! देखिए, जोरदार धंधा किया, डटकर कमाई की। आलीशान घर बनवाया अपने सारे रिश्तेदारों को मालामाल कर दिाय। अभी शहीदों के परिवारों के लिए भी हमने बहुत बड़ी रकम दान की थी।''
''अच्छा, क्या एक लाख ?''
''नहीं, थोड़ा सा कम।''
''पचास हजार ?''
''नहीं, उससे भी थोड़ा सा कम।''
''पच्चीस हजार ?''
''नहीं इससे भी थोड़ा सा कम।''
मैं सोच में पड़ गया। फिर सोचकर बोला - '' इक्कीस हजार ?''
वे चुप हो गए। मैं समझ गया। मेरा अनुमान सही था। थोड़ी देर बाद इधर-उधर देखकर धीरे से बोले - ''ग्यारह हजार तो बहुत बड़ी रकम होती है। मैंने...''
बीच में ही टोक दिया मैंने - ''हाँ, पाँच हजार रुपये दिया होगा आपने। करोड़पति हैं। अपना नाम अमर करना चाहते हैं। फोकट में थोड़े न होगा नाम। फिर प्रतिमा लगाने की पिपासा है आपके मन में।''
वह फिर बोला - ''थोड़ा-सा कम कर लीजिए इस राशि को।''
मैंने कहा - ''दो हजार ?''
वह बोले - ''थोड़ा कम।''
''एक हजार एक ?''
''थोड़ा-सा कम।''
''पाँच सौ एक ?''
''थोड़ा और कम।''
''ओफ्फो, एक सौ एक।''
''बस, पहुँच रही हे हैं आप।''
''इक्यावन रुपये मात्र।''
''बस, बस पहुँचने ही वाले हैं।''
''अरे, हद हो गई भई, अब तो मैं गलत हो ही नहीं सकता। इक्कीस रुपये तो दिया ही होगा आपने।''
''हाँ, बिल्कुल ठीक अनुमान लगाया आपने।'' लतखोरीलाल बोले - ''आप बुद्धिजीवी हैं। गलत तो हो ही नहीं सकते। जानते हैं, इतनी बड़ी राशि हमने मोहल्ले के सेठों से दो-दो रुपये चंदा करके एकत्र की थी। अरे, इस देश के लिए हमारा भी कोई फर्ज बनता है। अब आप ही बताएँ,  इतनी सेवा करता हूँ देश की। क्या चौराहे पर मेरी प्रतिमा भी नहीं लग सकती ?''
लतखोरी की बातें सुनकर मैं बुरी तरह उखड़ चुका था। कहना पड़ा - ''हाँ भई, आप जैसे महापुरुषों की प्रतिमा अब पूजने को बची हैं। ऐसा करते हैं फाँसी पर झूल जाने वाले किसी शहीद की जगह आपकी प्रतिमा अभी से लगा देते हैं।'' वह खुश हो गये। कहने लगे - '' ऐसा ही हो जाए तो मजा आ जाए। लेकिन अभी रहने दें। मरने के बाद ही प्रतिमा लगे तो मजा आ जाएगा।''
मैंने कहा - ''तब आप मजे के लिए कहाँ रहेंगे ?'' वह बोले - ''स्वर्ग-लोक में।''
मैं हँस पड़ा - ''बड़ा कान्फीडेंस है आपको!''
वह बोले - ''हमारा सब कुछ एडवाँस बुकिंग में चलता है। मूर्ति एडवाँस में, होटलें एडवाँस बुकिंग में, टाकीजों में एडवाँस बुकिंग और दान-दक्षिणा, भजन-पूजन के सहारे स्वर्ग में एडवाँस बुकिंग।''
मुझे चक्कर आ ही गया। गिर पड़ा। होश में आया तो देखा घर में था। लतखोरीलाल छोड़ गए थे। घर वालों ने बताया कि वे पाँच रुपइये का चमकता हुआ सिक्का दे गये हैं। कह रहे थे कि किसी की प्रतिमा लगवानी है। उसी का एडवाँस है।
मुझे फिर से चक्कर आने लगा।

सोमवार, 26 अप्रैल 2010

मुख्यधारा का सवाल

राजधानी में 24-25 अप्रैल को ''अनुसूसिच जनजातियाँ ,कल आज और कल'' विषय पर दो दिवसीय राष्ट्रीय सेमिनार का आयोजन हुआ। इसमें देश भर से वे लोग पधारे जिन्होंने जनजातियों पर गहन अध्ययन किया है। कुछ तथाकथित विद्वानों ने जब यह बात उठाई कि अनुसूचित जनजातियों को राष्ट्र की मुख्यधारा से जोडऩा चाहिए तो उनके इस कथन की बधिया उधेड़ दी गई। शुरुआत तो राज्यपाल महोदय ने ही की। उन्होंने आदिवासी भाइयों की मुख्यधारा को शहरी मुख्यधारा से बेहतर बताया। बाद में कुछ जनजातीय विद्वानों ने इसी बात को आगे बढ़ाते हुए कहा कि मुख्यधारा क्या है, जो शहर का भ्रष्ट जीवन है, क्या वह मुख्यधारा है? या फिर मुख्यधारा वह है, जहाँ एक संस्कृति है, परम्परा है, जल-जंगल-जमीन को अपना समझने का संस्कार है? मुख्यधारा में शहरी लोगों को आना चाहिए, जनजातियों को नहीं। और भी अनेक बातें उठी, लगा कि जनजातियों को लेकर अब देश में गंभीर-विमर्श का समय आ गया है। विकास की धारा से उन्हें जोडऩा तो है, लेकिन यह भी ध्यान रखना है, कि वे अपनी जड़ों से ही न काट दिए जाए। यह बात भी सामने आई कि हर क्षेत्र की जनजातियों के अनुरूप ही योजनाएँ बननी चाहिए क्योंकि नागालैंड के आदिवासी की अपनी संस्कृति है, तो बस्तर के आदिवासी की अपनी सांस्कृतिक पहचान है।
दिग्विजय सिंह  पर भड़के मुख्यमंत्री
अनुसूचित जनजातियों पर आयोजित सेमिनार के समापन पर मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह भी पहुँचे। उन्होंने बस्तर के नक्सलवाद पर गंभीर विचार विमर्श करते हुए उनके समर्थक बुद्धिजीवियों को जम कर लताड़ा। उन्होंने कहा कि दिल्ली में बैठे ये बुद्धिजीवी अंगरेजी अखबारों में लिखते हैं, अंगरेजी वाले ही इन्हें पढ़ते हैं। असलियत से इनका कोई सरोकार नहीं है। माओवाद इनके लिए एक फैशन की तरह है। मुख्यमंत्री का इशारा मध्यप्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह  की  ओर था. जिन्होंने एक अंगरेजी समाचार पत्र में नक्सलवाद के बहाने रमन-सरकार को कोसने की कोशिश कि है. आज बस्तर में विकास अवरुद्ध हो गया है, इसके दोषी नक्सली हैं। सड़कें नहीं बन पा रही, स्कूल नष्ट हो गए। सृजन की जगह विध्वंस पनप गया। इन सबको समझने की जरूरत है। मुख्यमंत्री के भाषण से सबको यही लगा कि उन्होंने दिल से अपनी बात कही, जिसमें जनजातियों के विकास न होने की पीड़ा साफ नजर आ रही थी। दिल्ली से पधारे चिंतक इंद्रेशकुमार ने भी जनजातियों के वैभव पर प्रकाश डाला और विस्तारपूर्वक समझा कि किस तरह दूसरे धर्मवालों ने उनके साथ छल किया।
कलेक्टरों को सिर चढ़ाना बंद हो
पिछले दिनों रायपुर के कलेक्टर के खिलाफ काँग्रेसी इतने उत्तेजित हुए कि राज्यपाल को जा कर शिकायत कर दी। कलेक्टर जनता का नौकर है। ये और बात है कि उसे नौकरशाह कह दिया जाता है। यानी नौकर तो है मगर शाही है। शाही होने का मतलब यह नहीं, कि  वह जनप्रतिनिधियों की अवहेलना कर दे। काँग्रेसी कुछ मुद्दों पर कलेक्टर से बात करना चाहते थे, कांग्रेसी समूह में गए थे, तो कलेक्टर ने कलेक्टरी दिखाते हुए फरमाया कि पाँच लोग आ कर चर्चा करें। कांग्रेसियों ने कहा हमारे साथ आए बाकी लोग भी मिलेंगे। कलेक्टर महोदय राजी नहीं हुए तो काँग्रेसी नाराज हो कर लौट गए। राज्यपाल से मिले और शिकायत की। अब राज्यपाल कलेक्टर को बुला कर समझाइश देते हैं, या नहीं, ये अलग बात है लेकिन मुद्दा यह है कि आखिर कलेक्टरों के हौसले इतने बुलंद क्यों रहते हैं। जनप्रतिनिधियों से उसे मिलना ही चाहिए । पाँच हो या पचास। लोकतंत्र में लोक ही ताकत है। लोक के बगैर कुछ नहीं। कलेक्टर कोई राजा-महाराजा तो है नहीं कि उसकी मर्जी चलेगी। दरअसल हमारा सिस्टम ही इतना लचर है, कि हमने कलेक्टर पद को सिर पर चढ़ा कर रखा है। जब तक ऐसा रहेगा, कोई भी कलेक्टर अपनी अकड़ दिखाएगा ही। जरूरत है, सिस्टम में बुनियादी परिवर्तन की। कलेक्टरों को भी यह समझना चाहिए के वे ब्रिटिशकाल में नहीं, स्वतंत्रकल में रह कर नौकरी कर रहे है।
ग्राम सुराज के सबक
ग्राम सुराज का पहला चरण समाप्त हो गया है लेकिन इसने सरकार को सोचने पर भी मजबूर किया है। अगर सरकार सोचे तो। इस बार अनेक जगहों पर सुराज दल का विरोध हुआ। कहीं-कहीं तो अधिकारियों को बंधक ही बना लिया गया।  दरअसल लोग त्रस्त हैं। घोषणाएं होती है, मगर उनको पूरा नहीं किया जाता । मुख्यमंत्री को भी कुछ जगह ग्रामीणों की नाराजगी झेलनी पड़ी। ग्राम सुराज में जो घोषणाएँ होती है, उन्हें निर्धारित समय में ही पूर्ण करना चाहिए, तभी तो गाँव वालों को भी लगेगा, कि सुराज आ गया है। मुख्यमंत्री घोषणा कर के चले जाए और ग्रामीण भाई अफसरों के पीछ-पीछे घूमते रहे, यह नहीं होना चाहिए। लोकतंत्र में जनप्रतिनिधि के कहे की प्रतिष्ठा होनी चाहिए। अधिकांश अफसर बदमाशी करते हैं। वे सरकार की छवि को नुकसान पहुँचाने के लिए जनप्रतिनिधियों द्वारा की गई घोषणाओं को पूरा करने में जानबूझ कर विलंब करते हैं। इस बार ऐसा न हो। ग्राम सुराज के दौरान ग्रामीणों ने जो मुद्दे उठाए हैं, उन्हें पहली प्राथमिकता के साथ पूरा करना चाहिए।
मंत्रियों-अफसरों की विदेश यात्राओं पर लगाम
ये अच्छा निर्णय लिया मुख्यमंत्री ने । सरकारी खर्चे पर विदेश जाने की परम्परा-सी चल पड़ी थी। विदेश जा रहे हैं, किस लिए विकास का अध्ययन करने। कुछ जनपतिनिधि न तो ठीक से हिंदी बोल पाते हैं,न अंगरेजी, इस कमी को शातिर-चालाक अफसर समझते हैं। वे मंत्री को पटा कर उनके साथ लग जाते हैं। मंत्री की भी ऐश और अफसर की भी। ये लोग विदेश जाते हैं, और राज्य का करोड़ों रुपए स्वाहा कर देते हैं। जरा पता तो किया जाए कि पिछले कुछ वर्षो में विदेश जाने वाले मंत्री-अफसरों ने लौट कर आखिर सरकार को  कोई भावी योजना दी कि हम फलां देश की तरह यहाँ भी ये-ये काम करें? शायद नहीं। विदेश यात्रा का ज्यादातर मतलब करके ऐशोआराम ही होता है। इसलिए मुख्यमंत्री ने समझदारी से काम लिया। अभी सबकी विदेश यात्राएँ बंद। कम से कम तीन साल तो बंद ही रहनी चाहिए।

रविवार, 4 अप्रैल 2010

राजधानी के रंग

डीजीपी का नक्सलवाद....
छत्तीसगढ़ के डीजीपी कवि भी हैं। कभी-कभार बोलते हैं और फँस जाते हैं। पिछले दिनों राँची गए और पत्रकारों से बात कहते हुए कह दिया कि नक्सलवाद कोई समस्या नहीं, यह एक विचारधारा है। अब जो कुछ छपा है, उसे लेकर काँग्रेसी हंगामा मचा रहे हैं। मांग कर रहे हैं कि डीजीपी को हटाया जाए क्योंकि ये नक्सल समस्या को लेकर गंभीर नहीं है। बात एक हद तक सही भी है। नक्सलवाद कभी रहा होगा एक विचारधारा। लेकिन अब तो यह केवल हत्याधारा है। इसे विचारधारा का नाम देना ही गलत है। यह एक समस्या है। और इसे मिटाने की ही बात होनी चाहिए। विचारधारा-फारा की बातें कह कर बौद्धिकता दिखाने की जरूरत नहीं होनी चाहिए। मीडिया से जब बात हो तो दो टूक कहना चाहिए, कि हम इस समस्या से पार पा लेंगे। आपरेशन ग्रीन हंट चल रहा है। अब इसे विचारधारा है,जैसे जुमलों के सहारे किनारे करने की कोशिश करने का दुष्परिणाम तो भुगतना ही पड़ेगा। उम्मीद है, वे भविष्य में फूँक-फूँक कर ही कदम रखेंगे। एक तो मीडिया कहाँ धँसा दो, उस पर विपक्ष तो बैठा ही रहता है, खिंचाई करने, इसलिए विश्वरंजन जी, सावधानी जरूरी है। क्योंकि जीवन और कविता में अंतर होता है।
चाटुकारिता की हद है....
सचमुच राजनति में चाटुकारिता की हद हो जाती है कभी-कभी। अब देखिए, पूर्व मुख्यमंत्री अजीत जोगी के पुत्र अमित जोगी को कुछ काँग्रेसी राज्यसभा में पहुँचा कर सीधे मंत्री भी बनाना चाहते हैं। राहुल गाँधी को फेक्स भी कर दिया भाई लोगों ने। ये तो अच्छा हुआ, कि खुद जोगी जी ने इस कृत्य की निंदा कर दी। वे समझदार हैं। लेकिन चमचों को कौन समझाए, कि कुछ करने के पहले सोच तो लो, कि क्या कर रहे हो। अभी जोगी-पुत्र पर आपराधिक मामला चला। अभी उसे लम्बी लड़ाई लडऩी है। संघर्ष करना है। आसानी से उपलब्धियाँ नहीं मिल जातीं। यह बात उनको और चाटुकारों को समझ लेना चाहिए। लेकिन जब चाटुकारिता ही करनी है, तो विवेक काम नहीं करता।
राजनीति राजधानी के विकास को न ले डूबे
राजधानी में काँगे्रेस का महापौर है और भाजपा का सभापति। अब दोनों दलों के लोग अपनी-अपनी पार्टी की राजनीति से ऊपर नहीं उठ पा रहे हैं। उनको यह बात समझ में ही नहीं आ ही है, कि चुना तक राजनीति चलनी चाहिए। अब तो मिल-जुल कर विकास करने का समय आ गया है। लेकिन नहीं, किसी न किसी बहाने अपनी ताकत दिखाने का खेल चल रहा है। शर्म की बात है, कि नगर निगम की बैठक को शांतिपूर्वक संपन्न कराने के लिए पुलिस बुलानी पड़ती है। विकास के रास्ते में अगर राजनीति स्पर्धा आड़े आएगी, तो यह दोनों दलों के लिए ठीक बात नहीं, क्योंकि जनता दोनों को देख रही है। राजधानी को विकास की सख्त जरूरत है। ऐसे समय में आपसी झगड़े के कारण अनुदानों में दिक्कतें आ सकती हैं। कोई ठोस निर्णय नहीं हो पाएगा। इसका बुरा असर पड़ेगा विकास पर।
दारू के खिलाफ लामबंद राजधानी
एक अरसे बाद ऐसा हो रहा है कि इन दिनों राजधानी के कुछ हिस्से में दारूबंदी के खिलाफ मुहिम जारी है। यह जरूरी भी है। कहीं विद्यालय के पास, तो कहीं किसी धर्मस्थल के पास दारू की दूकानें खुल गई हैं। लोगों का आना-जाना प्रभावित होता है। बेहतर तो यही होगा कि सरकार ट्रांसपोर्ट नगर आदि की तरह शहर के बाहर कहीं दारूनगर ही बसा दे। शहर की सारी शराब दूकानें शहर से बाहर ही रहें। जिन्हें पीना-पिलाना है, वे बाहर जाएँ और  टुन्न-फुन्न हो कर वहीं गिरे-पड़े, गाली-गलौज करें। जो भी करना हो, शहर के बाहर करें। शहर में दारू दूकानें होनेके कारण कदम-कदम पर शराबी नजऱ आते हैं तो लगने लगता है, यह रायपुर नहीं दारूपुर है। उम्मीद है, कि प्रशासन जनता की सुनेगा और जहाँ-जहाँ लोग आंदोलित हैं, वहाँ-वहाँ की शराब दूकानें फौरन बंद होंगी। कुछ जगह दूकानें सीलबंद कर दी गई हैं, यह अच्छी बात है।
मंत्री के तमाचे की आवाज
प्रदेश के एक मंत्री ने एक अफसर को तमाचा क्या जड़ दिया, उसकी आवाज़ अब तक गूँज रही है। अफसर-कर्मचारी एकजुट हो कर मंत्री की निंदा कर रहे हैं, उसे हटाने की मांग भी कर रहे हैं। लेकिन क्या यह संभव हो पाएगा? कायदे से तो होना चाहिए। मंत्री को अपने किए पर खेद भी व्यक्त करना चाहिए। क्योंकि लोकतंत्र में सामंती प्रवृत्ति नहीं चलेगी। न मंत्रियों की न अफसरों की । यहाँ के चंद अफसर भी ऐसे हैं जो अपने को सबसे ऊपर समझते हैं। खैर, तमाचाशुदा अफसर की बात करें तो कहा जा सकता है, कि उसने  अगर मंत्री का कहना नहीं माना तो वह बेशक अपराधी है, उस पर कार्रवाई होनी चाहिए। लेकिन दादागीरी दिखाना गलत है। अगर जनप्रतिनिधि इस तरह की हरकत करेंगे, तो उन्हें प्रशासन से सहयोग नहीं मिलेगा। वैसे भी बहुत से अफसर भयंकर भ्रष्ट और बदतमीज हो चुके हैं। उन्हें सुधारने की जरूरत है। लेकिन तमाचे से वे नहीं सुधरेंगे। उन पर लिखित रूप में कड़ी कार्रवाइयाँ की जानी चाहिए। तमाचा मार कर लोकतंत्र का अपमान नहीं करना चाहिए। रामविचार जी, विचार कीजिए और पद की गरिमा बनाए रखिए। 
भूमाफिया चरागान भी हजम कर रहे
राजधानी में वैसे भी गोचर भूमि नहीं बची। शहर के बाहर 327 एकड़ जमीन चरागान के लिए रखी गयी थी, अब इस जमीन पर कुछ नेतानुमा लोगों ने कब्जा कर लिया है। गो सेवक बेचारे मांग कर रहे हैं, लेकिन उनकी कोई सुने तब न। हार कर ये लोग राज्यपाल से मिले । अब देखना यह है कि राज्यपाल महोदय की अनुशंसा पर कब तक कार्रवाई होती है। अंतरराष्ट्रीय कृषि-गो पर्यावरण संरक्षण परिषद के वयोवृद्ध अध्यक्ष झूमरलाल टावरी ने भूमाफियाओं के खिलाफ अभियान छेड़ रखा है। वे गो संरक्षण के लिए समर्पित हैंं। ऐसे अनेक लोग हैं, जो गाय को माँ की तरह जीने का अवसर देना चाहते हैं। लेकिन मनुष्य इतना स्वार्थी हो चुका है, कि अब गाय केवल सड़कों पर भटकती रहती है। चारा नहीं मिलता तो बेचारी कचरा खाती है और पॉलीथिन हजम करके एक दिन मौत का शिकार हो जाती है।
जननायक के महाप्रयाण पर...
रायगढ़ जिले के गौरव और अपना पूरा जीवन वहाँ की खुशहाली के लिए लगा देने वाले जननायक रामकुमार अग्रवाल जी नहीं रहे तो राजधानी में भी उनके चाहने वाले दुखी हो गए। सर्वोदय विचारधारा से जुड़े लोगों ने पिछले दिनों एक बैठक कर श्री अग्रवाल के संघर्षों को याद किया। यह भी चिंता व्यक्त की गई कि उनके जाने के बाद अब उनकी तरह जुझारू तेवर वाले लोग सामने आएंगे कि नहीं? उम्मीद है, कि चार बार विधायक रह चुके श्री अग्रवाल ने रायगढ़ के विनाश पर तुली ताकतों के विरुद्ध जो अभियान छेड़ रखा था, उन्हें आगे बढ़ाया जाएगा। इन पंक्तियों के लेखक ने श्री अग्रवाल के व्यक्तित्व पर एक गीत लिखा है। (पूरा गीत तो आप एक-दो दिन बाद पढ़ सकेंगे) फिलहाल दो पंक्तियाँ पेश हैं-
अंधकार में जले हमेशा बनकर एक मशाल
अमर रहा है, अमर रहेगा, रायगढ़ का लाल।

सुनिए गिरीश पंकज को