वहसत्यानाश हो सबका वाली भाव-भंगिमा बनाते हुए बोला-''पता नहीं साहब, कहते हैं कोई श्रीदेवी आई है। उसी के लाने लोग टूटे पड़े हैं? ''
मैं चकराया, गुजरे ज़माने की हीरोइन के लिए इतनी भीड़? ''नहीं-भाई, आइटम गर्ल मलिका सहरावत होगी। ''
सिपाही मुझे अनसुना करके डंडे और भीड़ के बीच तालमेल बनाने लगा।
मैंने दो पाटन के बीच पिसते आमआदमी टाइप एक इंसान से पूछा-''काहे की भीड़ है? '' बोला-''लग जाओ, ये पद्म पुरस्कार के लिए बेचैन आत्माओं की भीड़ है। ''
मैंने पूछा-''क्या, तुम को भी चाहिए? ''
वह आदमी हँसा- ''नहीं, मुझे तो रोटी मिल जाए। गरीब को रोटी मिल तो लगता है पदमश्री मिल गई। पद्मश्री मेरे मालिक को चाहिए। वो बिजी है, सो मुझ जैसे इजी को यहाँ भेज दिया। ''
मैंने एक दूसरे सज्जन को देखा। वह कुछ-कुछ बुद्धिजीवी टाइप का दिख रहा था क्योंकि उसके चेहरे पर गंभीरता ने अवैध कब्जा कर रखा था। वह बोला- ''पद्म पुरस्कार नहीं, उसके आवेदन पत्र के लिए भीड़ है। ''
''अच्छा, आवेदन पत्र जमा करने के बाद पुरस्कार मिल जाएगा? ''
''ट्राई करने में अपने पिताश्री का क्या जाता है? क्या पता कब किस्मत फ्राई हो जाए। पिछली बार रामस्वरूप ने आवेदन पत्र जमा किया था, मगर फलस्वरूप को मिली थी। ज्यादा सोचो मत, लग जाओ। ''
मैं भी लाइन से लग गया। धक्का-मुक्की तेज हो गई थी। सबको चिंता थी, कि आवेदन पत्र न खतम हो जाए। भीड़ में कोई भी गे जैसा नहीं दिख रहा था, लेकिन सब के सब सामने वाले को धकेले जा रहे थे। हालत मारपीट और कर्णप्रिय गालियों तक पहुँच गई। मेरे पीछे खड़ा व्यक्ति उत्तेजित साँड की तरह हरकत कर रहा था। मैंने कहा-''ए.....ए...धक्का मत दे..। बड़ा आया है पद्म पुरस्कार लेने वाला? ये मुँह और अरहर की दाल? धक्का दे कर सोचता है पद्म पुरस्कार पा जाएगा? ''
पीछेवाले ने छाती तानते हुए कहा-''अबे..(डेश-डेश-डेश) ऐसे ही धक्का दे-दे कर पुरस्कार हथियाता रहा हूँ। बीस साल पुराना अनुभव है। चुपचाप खड़ा रहा तो गया काम से। बहस मत करो और तुम भी धक्का दे कर आगे बढ़ो। ''
मैंने भी ज्ञान अर्जित करके सामने वाले को धक्का देना शुरू किया तो वह मुसकराने लगा फिर पलट कर बोला-''अपना मोबाइल नंबर दे दीजिए, प्लीज़ । आप बहुत अच्छा धक्का मारते हैं। आजकल देश में ढँग से धक्का मारने वाले बचे ही नहीं। '' फिर वह तनिक गंभीर होकर बोला-''भाई मेरे, पद्म पुरस्कार के लिए आए हो, एक रुपया किलो चावल पाने के लिए नहीं। शालीनता के साथ खड़े रहो। ''
''आप पद्म पुरस्कार और चावल को एक ही तराजू पर रख रहे हैं? ''
वह हँसा-''और नहीं तो क्या? पद्म पुरस्कार भी ऐसे आवेदन पत्र बाँट-बाँट कर दिए जाएंगे, तो इसकी वैल्यू एक रुपए किलो चावल जैसी तो रह जाएगी न। ''
मैंने कहा-''ये व्यंग्य है या हास्य? ''
वह बोला-''हास्य। ''
मैंने कहा- ''तब ठीक है, क्योंकि व्यंग्य मुझे पसंद नहीं। ''
''क्यों, तुम कोई नेता हो या उसके चमचे? ''
बात चल ही रही थी कि भीड़ फिर बेकाबू होने लगी। कुछ लोग दफ्तर के मुख्य द्वार तक पहुँच गए।
''अरे भाई, मुझे दो... नहीं, पहले मुझे... नहीं, पहले मैं आया था.... पहले मैं... मैं...मैं... मैं... ''
मैं-मैं-मैं की तीखी आवाजें सुन कर राह चलते कुत्तों ने लडऩे वालों को नैतिक समर्थन देना शुरू कर दिया। भड़ास डॉट कॉम के खखवाए लेखकों की तरह सिपाही मनुष्यों की जगह श्वानों पर डंडे बरसाने लगे। कुत्तों को डंडा पड़ते देख मैं-मैं की आवाजें बंद हो गईं।
एक अफसरनुमा जीव ने ज्ञान बाँटना शुरू किया- ''साथियो, हम भविष्य के संभावित पद्मश्री हैं। गरिमा का ध्यान रखें और शांति के साथ खड़े रहें। ''
''अरे, तुमको कैसे पता चला कि मेरी पत्नी का नाम गरिमा है और अपनी साली शांतिबाई के साथ आया हूँ? हें..हें.. दोनों उधर खड़े हैं। ''
गरिमा और शांति की बात करने वाले ने सिर पीट लिया। उधर जो लोग आवेदन पत्र हथियाने में सफल हो चुके थे, वे कुछ इस तरह गद्गद न•ार आ रहे थे गोया पद्मश्री लेकर लौट रहे हों।
एक बोला- ''कई सालों से वेटिग में हूँ, कि पद्मश्री मिल जाए। ''
दूसरे ने कहा- ''जब तक ऊपर तक सेटिंग न हो, वेटिंग करते रह जाओगे। ''
पहला चौंका- ''तो क्या पद्म पुरस्कारों के लिए भी सेटिंग करनी पड़ती है? ''
दूसरे ने कहा- ''आजकल बिन सेटिंग सब सून है। ''
पहला आदमी सज्जन टाइप का था। उसका चेहरा लटक गया। बोला- ''अपना तो कोई नहीं। न नेता, न अभिनेता। मैं साला काम से गया? ''
दूसरे ने मुसकराते हुए कहा-''पद्म पुरस्कार न सही, उसका आवेदन ही सही। इसकी फोटो कॉपी करवा कर रखना। चाहे तो अपने लेटर हेड पर भी छपवा लो, जिस पर लिखा रहे : फलानेराम.. पद्मश्री, और आगे कोष्टक में छोटे-छोटे अक्षरों में रहे-इन वेटिंग, यानी पद्मश्री इन वेटिंग। ''
आइडिया सज्जन को जम गया। उसने मुसकराते हुए कहा- ''आप कुछ ज्यादा समझदार नज़र आते हैं। राखी सावंत की तरह कहीं पद्मश्री आपका ही वरण न कर लें।
सब हँस पड़े क्योंकि अगले ने गुदगुदाने वाला मजाक किया था।
हम घर लौट रहे थे और सत्रह सौ साठ लोगों की तरह सोच-सोच कर गद्गद थे कि पद्मश्री न सही, उसका आवेदन पत्र ही सही। संतोषी सदा सुखी।
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