हिन्दी दिवस. ।
हिंदी दिवस । मै सोचता हूँ कि ऐसा कैसे हो गया कि किसी देश राष्ट्रभाषा के प्रश्न पर हमारे उस काल के नेता उदार हो गए और वे यह सोचने लगे कि अगर हिन्दी को राष्ट्र भाषा बना दिया जाएगा तो देश में अराजकता आ जायेगी। खाई इतना तो किया कि हिन्दी को राजभाषा का दर्जा दे दिया गया। लेकिन इस राजभाषा की हालत क्या है। हिन्दी दिवस पर देश भर में सरकारी-अ-सरकारी आयोजन होते रहते है, लेकिन अधिकांश केवल पाखंड के पर्व बन कर रह जाते है। अधिकांश आयोजन बे-मन से होते है। गोया न किया तो नौकरी पर असर पड़ जाएगा। हिन्दी इस देश कि राष्ट्र भाषा बन जाती अगर १५ अगस्त १९४७ को नेहरू जी ने देश कि आज़ादी पर अपना भाषण अंगरेजी नही, हिन्दी में दिया होता। गांधीजी से जे किसी विदेशी पत्रकार ने बातचीत करनी चाही तो गांधीजी जी ने हिन्दी में ही कहा था, कि पूरी दुनिया से कह दो कि गाँधी अंगरेजी भूल गया है. वे यही संदेश दे रहे थे कि अब आजाद भारत कि कोई भाषा हो सकती है तो वह हिंदी ही हो सकती है। लेकिन बापू कि किसी ने सुनी नही। नतीजा सामने है। आज भी अंगरेजी का वर्चस्व बना हुआ है। हिन्दी हाशिये पर है। तुर्की के राष्ट्रपति कमालपाशा को यद् करना चाहिए जिन्होंने तुर्की की आज़ादी के बाद कहा था कि इस देश कि राष्ट्रभाषा तुर्की रहेगी। अभी और इसी वक़्त से। गांधीजी ने भी कहा था कि भाषा के मामले में तानाशाह बनना हो तो मै तानाशाह भी बन जाऊंगा।
हिन्दी दिवस पर पिछले अनेक वर्षो से मै आयोजनों में जाता रहा हूँ। बहुत कम ऐसे मौके आए है जब वहा उत्साह दिखा हो। एक तो सरकारी कर्मचारी आते ही नही, आ भी गए तो उनके चहरे देख कर लग जाता है कि ये जल्द Iसे जल्द मुक्ति चाहते है। कार्यक्रम ख़त्म हो, नाश्ता करे और घर जाए। जिस देश में रास्त्रीयता की भावना ही न रहे तो उस देश के लोगो से भाषा, राष्ट्रध्वज, राष्ट्रगान आदि के सम्मान की बात करना ही बेमानी है। अपने देश मै मैंने यही महसूस किया है कि यहाँ नई पीढी में देशभक्ति की भावना कम हुई है। कुछ देश-प्रेमी बचे है, जिन पर हम गर्व कर सकते है, लेकिन यह संख्या बढ़नी चाहिए।
हिन्दी अब पूरी दुनिया में छा रही है। अपने ही घर में भले ही वह उपेक्षित हो लेकिन अपनी सरलता के कारन वह जगह बनाती जा रही है। मेरा यह मानना है कि हिन्दी के प्रति दक्षिण भारत और विदेश में जैसा स्नेह देखा जा रहा है, वैसा उत्तर भारत में नही है। कारण है हिन्दी के प्रति देश में ही एकमत नही है । इसका खामियाजा हिन्दी को भुगतना पड़ रहा है। गाँधी, विनोबा, टैगोर जैसे न जाने कितने ही महान लोगो ने साफ़-साफ़ कहा था कि हिन्दी ही राष्ट्र भाषा बन सकती है, लेकिन उनकी भावनाओ की कद्र नही की गयी।
खैर, हमारे जैसे हिन्दी-प्रेमी इसी बात पर खुश है कि आज हिन्दी विश्व की भाषा भी बन चुकी है । कंपनियों को अपने उत्पाद बेचने के लिए हिंदी का ही सहारा लेना पड़ता है। हिग्लिश के रूप में एक नयी भाषा भी अस्तित्व में आ रही है। यह नई हिन्दी है। पर उसका एक सीमाहै यही मेरी कविताये लेकिन ध्यान यही रखना होगा कि इस नव-हिन्दी के चक्कर में हम अपनी मूल हिन्दी को ही न खो दे। हिन्दी दिवस पर इतना ही....
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रविवार, 13 सितंबर 2009
प्रस्तुतकर्ता girish pankaj पर 7:18 am
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2 Comments:
पंकज जी आपके द्वारा कहा गया कथन सही है। आज लोग हिन्दी को आत्मसात नहीं कर रहे हैं। आपका ब्लाग में स्वागत है
अजय झा
गिरीश भाई अच्छा लग रहा है हिन्दी दिवस की पूर्व सन्ध्या पर आपने यह चिंतन प्रस्तुत किया । यह चिंतन निरंतर चलता रहे यह कामना ।
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