इन्वेस्ट कम और पुण्य ज्यादा..?
समाजसेवी सेठों को देखता हूँ, तो अकसर बड़ी प्रेरणा मिलती है: चालाकी सीखने की। कुछ धनवान बड़े चालाक होते हैं। इतने चालाक, कि ऊपरवाले को भी गच्चा दे कर अपने लिए स्वर्ग बुक कर लेते हैं।
उस दिन एक धनवान मिल गए। घर के बाहर मिट्टी के बड़े-से कटोरे (सकोरा) में पानी डाल रहे थे। मैंने पूछा-ये किसलिए, तो कहने लगे, प्यासे पक्षियों के लिए। देखिए न, कितनी गरमी पड़ रही है।
मैंने चौंकते हुए पूछा- अरे, क्या शहर के सारे नदी-तालाब सूख गए हैं कि चिडिय़ों के पीने लायक जल भी नहीं बचा?
सेठजी बोले- ऐसी बात नहीं। नदी-नाले-तालाब तो बचे हैं, फिर भी सोचता हूँ, कि सकोरे में पानी रख देने से पक्षियों को सुविधा होगी। बेचारे कहाँ-कहाँ भटकते फिरेंगे? यहीं पी लेंगे। मैंने मुसकराते हुए कहा- महोदय, पक्षी अपनी व्यवस्था कर लेते हैं। आज से नहीं, जब से सृष्टिï बनी है, तब से वे अपनी व्यवस्था करते चले आ रहे हैं। ऊपरवाला उनके दाना-पानी की चिंता कर लेता है। आप तो इनसानों के लिए कुछ करो। लोग पानी के लिए तरस रहे हैं। आप एक प्याऊ की व्यवस्था क्यों नहीं कर देते? तब पक्षी भी आकर प्यास बुझा लिया करेंगे। एक पंथ दो काज हो जाएगा।
ऊँची रकम के रूप में चर्चित सेठ जी मुसकराते हुए बोले- बात तो ठीक है भाया, लेकिन प्याऊ के लिए बड़ी रकम चाहिए। आप तो मुझे चूना लगाने में तुल गए हैं। प्याऊ खोलने में हजारों का खर्च और एक सकोरा खरीदने में पाँच रुपइये का खर्चा? जब दोनों ही स्थितियों में पुण्य मिलता है, तो घाटे का सौदा क्यों करें? पाँच रुपए खर्च कर के ही पुण्य कमाने में क्या बुराई है?
मैंने सेठ के चिंतन को प्रणाम किया। वाह, क्या आइडिया है सर जी। मैं भी धार्मिक और पुण्यात्मा बनना चाहता हूँ। कुछ और टिप्स दें। सेठ जी ने एक और आइडिया दिया। कहने लगे, मंदिर में एकाध पाव परसादी चढ़ाओ और ईश्वर की तरफ एक-दो रुपए का सिक्का उछाल दो, फिर झोंक लो पुण्य। गरीबों को फल खरीद कर बाँटो। लेकिन ऐसे फल जो एक किलों में ढेर सारे चढ़ जाते हों। मिठाई भी ऐसी खरीदो जो एक किलो में बहुत-सी चढ़ती हो। नारियल और चिंरौंजीदाना भी ठीक रहता है। इन्हें थोड़ा-थोड़ा करके बाँट दो बहुत-से गरीबों में। जितने गरीब, उतनी दुआएँ। स्वर्ग पक्का। जय हो।
लेकिन प्याऊ खोलने से बड़ा स्वर्ग मिल सकता है। मैं प्याऊ पर अटका हुआ था। मेरी बात सुनकर सेठ जी हँसे- स्वर्ग स्वर्ग होता है। मुंबई की तरह। वहाँ छोटा-सा टुकड़ा भी मिल जाए तो बहुत है। प्याऊ खोलने में कितने लफड़े हैं। अपना बजट गड़बड़ा जाएगा। परिवार सड़क पर आ जाएगा इसलिए चिडिय़ों के पानी का बंदोबस्त करो और पुण्य लूटो। यह सस्ता, सुंदर और टिकाऊ तरीका है। इनसानों या जानवरों के लिए प्याऊ की बात सोचना भी पाप है। हम लोग तो बनिये हैं। यही देखते रहते हैं, कि कम इन्वेस्ट करके अधिक से अधिक इंकम कैसे गेन करें। हमें पक्षियों को पानी पिलाने वाला रास्ता आसान लगा। ऊपर वाला बड़ा दयालु है। पक्षियों को पानी पिलाने के एवज में भी बहुत खुश होगा, शाबाशी देगा और गब्बर सिंह टाइप के लोगों को भी सीधे स्वर्ग बुला लेगा।
सेठ ने मुझे राह दिखा दी। सेठ करोड़पति। प्याऊ खोल सकता है, लेकिन नहीं खोल रहा। फिर भी स्वर्ग जाएगा। मैं फकीरपति, चाह कर भी प्याऊ नहीं खोल सकता लेकिन सेठ की बराबरी तो कर ही सकता हूँ। पक्षियों को पिलाने के लिए पाँच रुपए का सकोरा तो खरीद ही सकता हूँ। अपन भी स्वर्ग जाएंगे। आखिर हमने कौन-सा अपराध किया है? पक्षियों को पानी पिलाएँगे तो पड़ोसी भी सोचेंगे, कि भयंकर दयावान है। इसे कहते हैं, हींग लगे न फिटकरी और रंग चोखा। जब कभी मुझे दान-पुन्य का कोई सस्ता, सुंदर और टिकाऊ आइडिया नहीं सूझता, तो किसी सेठ को पकड़ लेता हूँ। हे स्वर्गाभिलाषियो, आप भी सेठों की तरह पुण्य कमाएँ और अपने लिए स्वर्ग-लोक की एडवांस बुकिंग कर लें। बस, पाँच रुपए का तो सवाल है।
रविवार, 11 अक्तूबर 2009
-गिरीश पंकज
प्रस्तुतकर्ता girish pankaj पर 9:36 am
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